विकास कभी नहीं मर सकता: अजय पाराशर, लेखक, धर्मशाला से हैं

By: Jul 14th, 2020 12:05 am

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अजय पाराशर

लेखक, धर्मशाला से हैं

सत्ता, साहित्यकार और ़िफल्म निर्माता कभी यथार्थ और कल्पना में अंतर नहीं मानते। इसीलिए ये लोग अपने हिसाब से अपने पीरियड ड्रामा में घटनाएं और करेक्टर पैदा कर लेते हैं। अगर के० आ़िफस कल्पना में अकबर और सलीम के सामने अनार कली को खड़ा नहीं करते तो मु़गले-आज़म कैसे बनती? मलिक मोहम्मद जायसी पद्मावत नहीं घड़ते तो संजय लीला भंसाली, पद्मावत की लीला कैसे रचते? ऐसे ही अगर विकास का एनकाउंटर नहीं रचा जाता तो कानपुर में गाड़ी कैसे पलटती और विपरीत दिशा में भागने के बावजूद पीठ में लगने वाली गोलियां उसके सीने में कैसे धंसती? यह कल्पना और यथार्थ का ही घालमेल था कि सालों-साल सत्ता के आंचल में पलने वाला शिकारी पांव में रॉड होने के बावजूद एकाएक पुलिस की पिस्तौल झपट कर उसेन बोल्ट की तरह भागने लगा। मजबूरन ़खाकी को उसी शिकारी का शिकार करना पड़ा जो दिन-दिहाड़े ़खाकीवाड़े में घुसकर एक माननीय का शिकार कर आया था। विकास विशेषज्ञ मानते हैं कि विकास एक निरंतर प्रक्रिया है, जो कभी रुकती नहीं। लेकिन साथ ही यह कह कर विरोधाभास उत्पन्न कर देते हैं कि महज़ विकास के लिए ही विकास नहीं होना चाहिए। इसका प्रत्यक्ष लाभ उन सभी लोगों या वर्गों को मिलना चाहिए जिनके लिए यह लक्षित होता है। अब इन भले आदमियों से कोई पूछे कि अगर लक्षित वर्गों या लोगों का ही विकास करना हो तो अपना विकास कैसे होगा? इसके अलावा विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि विकास का सबसे बढि़या पहलू है, इसका ब्लू प्रिंट। यह जितना ज़ोरदार होगा वित्तीय संस्थानों से ़कज़र् मिलने की संभावना उतनी अधिक होगी। लेकिन अपने विकास के लिए ज़रूरी है कि किसी योजना के लिए जितनी धनराशि की ज़रूरत हो, उससे कम से कम पचास प्रतिशत अधिक बजट का निर्धारण किया जाए। साथ ही विकास कार्यों को घोंघे की गति से अमल में लाया जाए ताकि उनके संपन्न होने तक कुल राशि निर्धारित बजट से कई गुणा बढ़ जाए। वैसे विकास का सर्वसुलभ, सार्वभौमिक एवं स्वयंसिद्ध मंत्र तो यही है, ‘‘़खुद भी खाओ, दूसरों को भी खाने दो।’’ ऐसा होने से मौसेरे भाइयों का आपसी संघर्ष समाप्त हो जाता है और आपसी विकास का शेरशाह सूरी मार्ग खुल जाता है। ऐसे भाईपन के चलते आपसी विकास के हाईवे पर न कोई गड्ढा मिलता है और न स्पीड ब्रेकर। लेकिन मुश्किल तब खड़ी हो जाती है जब विकास छब्बे बनने की आतुरता में दुबेपन से भी हाथ धो बैठता है। लेकिन समझदार विकास कर्ता संपूर्ण विकास को कभी मरने नहीं देते। क्योंकि अगर संपूर्ण विकास मर गया तो उनका ़खुद का विकास रुक जाएगा। परंतु कई बार विकास को दुबे होने पर मारना पड़ता है। ऐसा न करने पर खादी एवं ़खाकी सहित कई स़फेदपोशों का स्वयं का और आपसी विकास मारा जाता है। अतः विकास की निरंतरता बनाए रखने के लिए विकास, दुबे होने पर मारा भी जाए तो कोई ़फ़र्क नहीं पड़ता। वैसे कामयाब आदमी वही है जो सार्वजनिक जीवन में ़कदम रखते ही अपने घर में पाली हुई बकरियों की तरह विकास की नस-नस पहचान ले। ज़रूरत पड़ने पर चाहे एक-आध बकरी ़कुरबान भी कर दे लेकिन संपूर्ण विकास को कभी मरने न दे। इसीलिए विशेषज्ञ मानते हैं कि विकास एक निरंतर प्रक्रिया है। भले ही विकास अपने को कानपुर वाला बताए लेकिन वह तो सार्वभौमिक है; इसीलिए वह कभी रुकता नहीं, मरता नहीं।


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