हिमाचल प्रदेश में साहित्यिक माहौल

By: Aug 2nd, 2020 12:06 am

गुप्तेश्वर नाथ उपाध्याय, मो.- 9817552865

हिमाचल की धरती न केवल प्राकृतिक दृष्टि से, बल्कि सांस्कृतिक और साहित्यिक दृष्टि से भी सदैव उर्वरा रही है। यहां पहाड़ी बोलियों के साहित्य का इतिहास बहुत पुराना है। लेकिन यहां की शैक्षिक और एक-दूसरे को जोड़ने वाली माध्यम भाषा हिंदी ही है। यहां की धरती से हिंदी की अनेक कालजयी कृतियों का सृजन हुआ है। आज हिमाचल के अनेक साहित्यकार साहित्य सृजन में तत्पर हैं और हिंदी साहित्य को अपना बहुमूल्य योगदान देकर इसे समृद्ध बनाने में लगे हुए हैं। यहां समय-समय पर विभिन्न साहित्यिक गतिविधियां न केवल यहां की राजधानी शिमला में, बल्कि दूरदराज के क्षेत्रों में भी आयोजित होती रहती हैं। हिमाचल के हर क्षेत्र से साहित्य सृजन हो रहा है, किंतु राजधानी शिमला इस क्षेत्र में विशेष रूप से सक्रिय है। यहां सरकारी सहयोग से हिमप्रस्थ, विपाशा, सोमसी नामक पत्रिकाएं तथा कुछ अन्य दैनिक, साप्ताहिक और पाक्षिक पत्र-पत्रिकाएं छपती हैं जो साहित्यकारों को उचित स्थान और सम्मान प्रदान करती हैं। यहां शिमला में तथा क्षेत्रीय स्तर पर भी अनेक साहित्यिक संस्थाएं साहित्य के प्रचार-प्रसार में लगी हुई हैं तथा यहां के साहित्यकारों को मंच प्रदान कर रही हैं। समय-समय पर कविता पाठ, कहानी पाठ, पुस्तक समीक्षा, पुस्तकों के लोकार्पण और विमोचन आदि से संबंधित साहित्य सम्मेलनों और साहित्यिक गोष्ठियों का आयोजन किया जाता है।

यहां साहित्य की हर विधा में लेखन हो रहा है और हर साल अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं। शिमला आकाशवाणी द्वारा प्रत्येक रविवार को ‘साहित्य दर्पण’ नाम से एक कार्यक्रम आयोजित होता है जिसमें साहित्यकारों के साक्षात्कार, कविता पाठ, कहानी पाठ, पुस्तक समीक्षा आदि संबंधी साहित्यिक कार्यक्रम प्रसारित होते हैं। दूरदर्शन शिमला द्वारा हर साल हिंदी पखवाड़े के दौरान नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति, शिमला के सौजन्य से एक से डेढ़ घंटे की अवधि की एक कविता पाठ प्रतियोगिता आयोजित की जाती है जिसका प्रसारण दूरदर्शन शिमला द्वारा दो से तीन बार किया जाता है। इसके अलावा दूरदर्शन शिमला समय-समय पर कुछ अन्य साहित्यिक गतिविधियां भी आयोजित करता रहता है। शिमला के गेयटी थियेटर में हर वर्ष जून महीने में एक पुस्तक मेले का आयोजन होता है जिसमें देश भर के प्रकाशक अपनी नई प्रकाशित पुस्तकों के साथ आते हैं। हिमाचल सरकार के भाषा एवं संस्कृति विभाग तथा कला, संस्कृति एवं भाषा अकादमी द्वारा भी समय-समय पर साहित्यकारों को प्रोत्साहित करने तथा मंच प्रदान करने हेतु विविध साहित्यिक आयोजन शिमला तथा हिमाचल के दूरदराज के क्षेत्रों में आयोजित किए जाते हैं। इन विभागों द्वारा हर साल कुछ साहित्यकारों को उनके साहित्यिक योगदान के लिए सम्मानित किया जाता है, कुछ नई प्रकाशित पुस्तकों की खरीद की जाती है और कुछ चुनी हुई साहित्यिक कृतियों के पुस्तकाकार प्रकाशन के लिए आर्थिक सहयोग भी दिए जाते हैं।

यहां की एक साहित्यिक संस्था हिमाचल साहित्य, संस्कृति एवं पर्यावरण मंच शिमला की तरफ  से विगत दो वर्षों में साहित्य के प्रोत्साहन और विकास के उद्देश्य से कुछ अभूतपूर्व कार्य किए गए हैं जिनमें से कुछ का संक्षिप्त वर्णन यहां जरूरी है। इस मंच की तरफ  से शिमला के बुक कैफे में डेढ़ सौ से भी अधिक साहित्यिक गोष्ठियों का आयोजन हुआ जो एक उत्साहवर्धक तस्वीर प्रस्तुत करता है। इसके अतिरिक्त इस मंच ने यहां की जेलों के कैदियों के बीच कविता पाठ आयोजित करवाया। कॉलेज के विद्यार्थियों को सृजनात्मक दिशा-निर्देश के साथ उन्हें मंच प्रदान करने के लिए कहानी और कविता पाठ करवाया।

कुछ पुस्तकों का विमोचन, लोकार्पण तथा कुछ साहित्यकारों को पुरस्कार देकर सम्मानित भी किया। भारतीय रेलवे के सहयोग से इस मंच द्वारा जो सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य हुआ, वह बड़ोग टनल के निर्माता निर्देशक बाबा भलकू की स्मृति में शिमला से बड़ोग और फिर बड़ोग से शिमला तक वर्ष 2018 और 2019 के अगस्त महीने में चलती ट्रेन के अंदर कविता और कहानी पाठ का आयोजन करना रहा। यहां की साहित्यिक संस्थाओं द्वारा इस वर्ष जिन साहित्यिक गतिविधियों का आयोजन होना प्रस्तावित था, वे कोविड-19 के कारण हो नहीं पाई हैं, किंतु फेसबुक और पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से यहां के साहित्यकार आज भी सक्रिय हैं और विश्वास है कि इस वैश्विक महामारी को परास्त कर आगे भी इसी प्रकार सक्रिय रहेंगे।

हिमाचल की साहित्यिक संस्थाएं, संगठन और आयोजन

डा. आर. वासुदेव प्रशांत

 मो.-9459987125

हिमाचल के साहित्यिक माहौल और परिदृश्य का मूल्यांकन हमेशा से ही कमतर होता रहा है। देश के हिंदी भाषी क्षेत्रों के साहित्यकारों और समीक्षकों के मन में यह भ्रम बना रहा है कि हिमाचल प्रदेश में साहित्यिक प्रतिभा की बहुत कमी है। इसका कारण संभवतः यही हो सकता है कि यहां के लेखकों की रचनाएं प्रदेश के बाहर कम पहुंचती रही हैं। अतः उनकी रचनाधर्मिता कभी भी ठीक तरह से आंकी ही नहीं जा सकी। किंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि हिमाचल के रचनाकार बड़े अच्छे साहित्य की रचना करने वाले हैं और उन्हें अपने रचनाकर्म में सरकारी व निजी अनेक साहित्यिक संस्थाओं से भरपूर प्रोत्साहन मिलता है। हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी शिमला का गठन हिमाचल में साहित्य, कला, संस्कृति और हिमाचली भाषाओं एवं हिंदी, संस्कृत तथा उर्दू के विकास के लिए हुआ।

इस दृष्टि से अकादमी अपने स्थापना काल से ही सतत प्रयासरत रही है। यह हर वर्ष हिमाचली साहित्यकारों की हिंदी, संस्कृत, पहाड़ी आदि भाषाओं में लिखी पुस्तकों की थोक खरीद करती है। इसके अलावा अकादमी हर वर्ष हिमाचली साहित्यकारों की श्रेष्ठ पुस्तकों का चयन कर पुस्तक सम्मान पुरस्कार भी देती है। अपनी पुस्तकें प्रकाशित करवाने के लिए लेखकों को अकादमी की तरफ  से अनुदान भी मिलता है। एक अन्य प्रावधान यह भी है कि पांडुलिपि तैयार करने के लिए लेखकों को फैलोशिप दी जाती है और आर्थिक दृष्टि से कमजोर कलाकारों को मासिक पेंशन योजना भी चलती है। इसके अतिरिक्त अकादमी हिंदी में सोमसी, पहाड़ी में हिम भारती तथा संस्कृत में श्यामला पत्रिकाएं भी निकालती है। अकादमी हर वर्ष डा. परमार, पहाड़ी गांधी बाबा कांशी राम और लाल चंद प्रार्थी की तीन जयंतियां भी मनाती है। दूसरी बड़ी सरकारी संस्था भाषा एवं संस्कृति विभाग है।

यह विभाग मुख्यतः प्रदेश में स्थान-स्थान पर सांस्कृतिक कार्यक्रम, लोक-नृत्य प्रतियोगिताएं और प्रदेश से बाहर देश तथा विदेश में सांस्कृतिक ट्रूप्स भेजता रहता है। हिंदी, पहाड़ी और संस्कृत दिवस भी विभाग द्वारा मनाए जाते हैं। प्रदेश के यश्ास्वी साहित्यकार यशपाल और चंद्रधर शर्मा गुलेरी की जयंतियां भी विभाग द्वारा मनाई जाती हैं। ‘विपाशा’ पत्रिका का प्रकाशन भी विभाग द्वारा किया जाता है। इन दोनों सरकारी संस्थाओं के अलावा लोक-संपर्क विभाग भी दो पत्रिकाएं- गिरिराज साप्ताहिक तथा हिमप्रस्थ मासिक प्रकाशित करता है। इन सरकारी संस्थाओं के अतिरिक्त प्रदेश में अनेक निजी साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाएं सराहनीय कार्य कर रही हैं। इनमें कुछ एक का उल्लेख यहां अपेक्षित है। इसके अतिरिक्त रचना साहित्य एवं कला मंच पालमपुर एक प्रसिद्ध साहित्यिक संस्था है जिसके अध्यक्ष डा. सुशील कुमार फुल्ल एक जाने-माने लेखक और साहित्यकार हैं। अपने पंजीकरण वर्ष 1985 से यह संस्था ‘रचना’ पत्रिका का प्रकाशन करती आ रही है और अपने विशेषांकों के लिए काफी चर्चित रही है। नए और उभरते साहित्यकारों को मंच प्रदान करना और उन्हें सृजन के लिए प्रोत्साहित करना इस संस्था का मुख्य उद्देश्य है। आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल की स्थापना वर्ष 2004 में साहित्यकार जयदेव विद्रोही के संरक्षण में हुई। इसका प्रथम अधिवेशन वर्ष 2005 में कुल्लू में हुआ। उसी समय पूरे प्रदेश में इसकी इकाइयां जिला चैप्टर के रूप में स्थापित कर दी गईं। इनका मुख्य उद्देश्य ‘साहित्य जगत की पहचान और नवोदित लेखकों का परित्राण’ रहा है। संस्था पूरे वर्ष कवि-गोष्ठियां, साहित्यिक चर्चाएं, शोध पत्र वाचन आदि के अलावा एक विशाल अधिवेशन भी करती है। जिला मंडी के सुंदरनगर में सुकेत साहित्यिक एवं सांस्कृतिक परिषद वर्ष 2015 से कार्यरत है। इसके प्रधान डा. गंगाराम राजी एवं सचिव कृष्ण चंद्र महादेविया हैं। यह संस्था मुख्य रूप से साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों को बढ़ावा देती है।

कृष्णा ड्रामेटिक क्लब महादेव (सुंदरनगर) में स्थित अपनी ही किस्म की संस्था है जिसके अध्यक्ष कृष्ण चंद्र महादेविया हैं। यह संस्था सुंदरनगर के विभिन्न स्थानों पर नाटकों का आयोजन करती रही है जिसमें मुख्य रूप से ग्राम्य कलाकार ही भाग लेते हैं। अखिल भारतीय सृजन सरिता परिषद एक राज्य स्तरीय साहित्यिक एवं सामाजिक संस्था है जिसके अध्यक्ष वीरेंद्र शर्मा तथा महासचिव विजय पुरी हैं। यह संस्था कई प्रकार के साहित्यिक आयोजन करती है। एक अन्य संस्था पहाड़ी विकास संगम है जो हिमाचली-पहाड़ी भाषा, लोक-कला एवं लोक-साहित्य को बढ़ावा देती है। इसके संरक्षक डा. धनीराम सांख्यान हैं। इन साहित्यिक संस्थाओं के अलावा प्रसिद्ध साहित्यकार राजेंद्र राजन के संपादकत्व में निकलने वाली ‘इरावती’ पत्रिका के राष्ट्रीय स्तर के वार्षिक आयोजन भी सराहनीय हैं।  साहित्य को बढ़ावा देने वाली प्रदेश में और भी अनेक संस्थाएं हैं, जिनमें शिखर, नवल प्रयास, क्रिएटिव राइटर्स एसोसिएशन, परिवर्तन (सभी शिमला स्थित), सर्जक (ठियोग), सिरमौर कला संगम, भुट्टिको एसोसिएशन कुल्लू आदि प्रमुख हैं, किंतु स्थानाभाव के कारण इन सबका विवरण यहां देना संभव नहीं है।

साहित्य के कितना करीब हिमाचल-11

अतिथि संपादक : डा. हेमराज कौशिक

हिमाचल साहित्य के कितना करीब है, इस विषय की पड़ताल हमने अपनी इस नई साहित्यिक सीरीज में की है। साहित्य से हिमाचल की नजदीकियां इस सीरीज में देखी जा सकती हैं। पेश है इस विषय पर सीरीज की 11वीं किस्त…

विमर्श के बिंदु

* हिमाचल के भाषायी सरोकार और जनता के बीच लेखक समुदाय

* हिमाचल का साहित्यिक माहौल और उत्प्रेरणा, साहित्यिक संस्थाएं, संगठन और आयोजन

* साहित्यिक अवलोकन से मूल्यांकन तक, मुख्यधारा में हिमाचली साहित्यकारों की उपस्थिति

* हिमाचल में पुस्तक मेलों से लिट फेस्ट तक भाषा विभाग या निजी प्रयास के बीच रिक्तता

* क्या हिमाचल में साहित्य का उद्देश्य सिकुड़ रहा है?

* हिमाचल में हिंदी, अंग्रेजी और लोक साहित्य में अध्ययन से अध्यापन तक की विरक्तता

* हिमाचल के बौद्धिक विकास से साहित्यिक दूरियां

* साहित्यिक समाज की हिमाचल में घटती प्रासंगिकता तथा मौलिक चिंतन का अभाव

* साहित्य से किनारा करते हिमाचली युवा, कारण-समाधान

* लेखन का हिमाचली अभिप्राय व प्रासंगिकता, पाठ्यक्रम में साहित्य की मात्रा अनुचित/उचित

* साहित्यिक आयोजनों में बदलाव की गुंजाइश, सरकारी प्रकाशनों में हिमाचली साहित्य

 लिट फेस्ट-साहित्यिक आयोजनों की सार्थकता

डा. देवकन्या ठाकुर

मैं पिछले कई वर्षों से देख रही हूं कि शिमला, कुल्लू, मंडी, कांगड़ा और हमीरपुर साहित्यिक आयोजनों के गढ़ रहे हैं। यह में कोरोना संकट से पहल की बात कर रही हूं। इसका मुख्य कारण यह है कि इन क्षेत्रों में कई बड़े लेखक सक्रिय रूप से विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं के बैनर तले अक्सर साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन करते रहते हैं। शिमला में एसआर हरनोट का हिमालय साहित्य मंच, विनोद प्रकाश गुप्ता की नवल प्रयास संस्था, ठियोग की सर्जक संस्था, शिखर संस्था, हमीरपुर में राजेंद्र राजन, कांगड़ा में गौतम शर्मा व्यथित, कुल्लू में दयानंद गौतम, सूरत ठाकुर, ऑथर्स गिल्ड, हिमतरु पत्रिका, मंडी में मुरारी शर्मा के अलावा और भी कई बड़े लेखक साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन करते रहे हैं। इन आयोजनों में किसी पुस्तक पर चर्चा,  समीक्षा, कहानी पाठ, कविता पाठ  या फिर किसी नई पुस्तक का लोकार्पण होता है। कभी-कभी इन कार्यक्रमों में कुछ पुस्तकें सेल के लिए भी रखी जाती हैं। लेकिन इनका उद्देश्य मार्केटिंग न होकर विशुद्ध रूप से साहित्य और इसके सरोकार होते हैं। यही वे छोटे-छोटे लिट फेस्टिवल या बुक फेयर हैं जो सही मायने में बिना किसी आडंबर के साहित्य साधना में लीन  हैं। वैसे भी साहित्य का पाठक एक  खास वर्ग ही होता है जिसे मार्केटिंग के मायाजाल से बाहर एक स्तरीय विषयवस्तु और स्तरीय कार्यक्रम ही प्रभावित कर सकते हैं।

मेरी नजर में ये स्थानीय साहित्यिक आयोजन किसी बड़े लिट फेस्ट या पुस्तक मेलों से कम नहीं हैं, बल्कि इस तरह के आयोजन अपने मूल उदेश्य और प्रामाणिकता पर खरे उतरते हैं। अक्सर आयोजित होने वाले इन कार्यक्रमों का लाभ नव लेखकों को भी मिलता है। साहित्य का रसपान करने वाले और साहित्य की समझ रखने वाले पाठक ऐसे आयोजनों में लेखक से रूबरू होते हैं। जबकि प्रदेश में आयोजित होने वाले दो बड़े वार्षिक लिट फेस्टिवल ‘नाम  बड़े, दर्शन छोटे’ की तर्ज पर औंधे मुंह ही गिरे हैं। कहते हैं अंधा बांटे रेवडि़यां अपनों-अपनों में, पर ये प्रदेश के लेखकों और आयोजकों का दुर्भाग्य है कि यहां रेवडि़यां अपनों को नहीं, प्रदेश से बाहर के आयोजकों को बांटी गईं ताकि वे वापस अंधे  की जेब में कुछ  रेवडि़यां डालें। अन्य प्रदेशों की तर्ज पर हिमाचल में भी भाषा और साहित्य को पुष्ट करने के लिए सरकारी संस्थान बनाए गए। बंगाली, तमिल, मलयाली, मणिपुरी के अलावा और भी भारतीय भाषाओं के समृद्ध साहित्य की बात करें तो हम पाएंगे कि उन प्रदेशों की सरकारों ने अपने लेखकों को प्रोत्साहित किया है, उन्हें वह साहित्यिक माहौल दिया है ताकि वे अपनी भाषा में अपने लोगों को केंद्र में रखकर साहित्य रचें। हमारे यहां स्थिति विपरीत है। दिल्ली और मुंबई की विज्ञापन एजेंसी यहां लिट फेस्ट का आयोजन करती है तो उन्हें लाखों रुपए का अनुदान हिमाचल सरकार द्वारा दिया जाता है।

लेकिन अगर कोई स्थानीय संस्था लिट फेस्ट और पुस्तक मेले का आयोजन करती है तो उसे पंद्रह हजार रुपए का अनुदान देकर इतिश्री की जाती है। इसके बाद इन लेखकों और आयोजकों को कार्यक्रमों  के प्रायोजन के लिए दर-दर भटकना पड़ता है। बिडंबना तो यह है कि साहित्यिक कार्यक्रमों के आयोजन को कोई भी संस्थान खुल कर अनुदान नहीं देता, जबकि मेलों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए सबकी जेबें तुरंत ढीली हो जाती हैं, गोया कि प्रबुद्ध साहित्यकारों की जरूरत समाज को आज है ही नहीं। भर्तृहरि  ने कहा है- संगीत, साहित्य, कला विहीनः साक्षात् पशु पुच्छ विहीनः (अर्थात- संगीत, साहित्य और कला के बिना मनुष्य पूंछ और सींग से रहित पशु के समान होता है।) तो मनुष्य को संवेदनशील बनाने के लिए साहित्य को पोषित करना परम आवश्यक है। भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर कई तरह के अनुदान कार्यक्रमों के आयोजन के लिए दिए जाते हैं। उसके लिए संस्कृति मंत्रालय है, साहित्य अकादमी है, और भी कई राष्ट्रीय संस्थाएं हैं। हिमाचल सरकार को अपने लेखकों और आयोजकों के अनुदान पर ध्यान देना चाहिए। यदि सरकार सही अर्थों में साहित्य को पल्लवित, पोषित करना चाहती है तो प्रदेश की संस्थाओं और लेखकों द्वारा अपने बूते पर आयोजित किए जाने वाले लिट फेस्ट और पुस्तक मेलों को पूरा संरक्षण मिलना चाहिए।

पुस्तक समीक्षा

चातक :  विविधवर्णी कहानियों का पुष्पगुच्छ

साहित्यिक विधाओं के माध्यम से मातृभाषा हिंदी की सतत साधना कर रहे लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार डा. अशोक रस्तोगी की तृतीय प्रकाशित कृति ‘चातक’ हृदयस्पर्शी एवं भावप्रवण 15 कहानियां संग्रहित किए है। जीवन के विविध रंगों को लेकर, शब्दों की तूलिका के माध्यम से कहानी रूपी चित्र को मनोमस्तिष्क के कैनवास पर कुशलता के साथ उकेरने वाले कहानीकार डा. अशोक रस्तोगी के नवीन कहानी संग्रह ‘चातक’ में समाहित सभी कहानियों का मूल स्वर मानव जीवन में मूल्यों की महत्ता का संदेश है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित डा. रस्तोगी का कथा संसार समाज के विभिन्न वर्गों की परिक्रमा किया करता है।

लगभग सभी कहानियों में अतीत स्मृति (फ्लैशबैक) शैली का प्रयोग किया गया है। कथानक की चुस्त-दुरुस्त बनावट से पाठक की जिज्ञासा ‘फिर क्या हुआ?’ को कहानी के अंत तक बनाए रखने में कहानीकार पूर्णतया समर्थ हुआ है। कुल 132 पृष्ठों पर आधारित इस कहानी संग्रह का मूल्य 190 रुपए है। काव्या पब्लिकेशन दिल्ली से प्रकाशित यह कहानी संग्रह पाठकों को जरूर पसंद आएगा।

-डा. अनिल शर्मा, बिजनौर

‘पाखी’ की परवाज़ मेंप्रेम के पंख

राजेंद्र राजन

मो.-8219158269

साहित्य के मर्म से किस्त – 5

कोरोना संकट के बीच जब अनेक पत्रिकाएं बंद हो गईं और कुछ डिज़िटल रूप में आईं तो ऐसे में पाखी के दो अंकों का मुद्रित रूप में पाठकों तक पहुंचना सुखद अनुभूति से कम नहीं है। अप्रैल-मई संयुक्तांक के रूप में छपा तो जून अंक पत्रिका के पूर्व व दिवंगत संपादक प्रेम भारद्वाज पर केंद्रित है। 12 साल से पाखी नियमित रूप से छप रही है। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर पहले अंक में एक लंबा शोधपरक लेख है- ‘सीलबंद लिफाफे और फैसले’। सेवानिवृत्ति के बाद तुरंत गोगोई का राज्यसभा के लिए नामित होना देशभर में विवाद का विषय बना।

लेख में कहा गया है, ‘लोकतंत्र में सबसे विश्वसनीय स्तंभ समझे जाने वाली संस्था न्यायपालिका में आए क्षरण पर 12 जनवरी 2018 के दिन एक अप्रत्याशित घटनाक्रम में सर्वोच्च न्यायालय के जिन चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने सीधे मीडिया से मुखातिब होकर सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की कार्यशैली के चलते लोकतंत्र पर मंडरा रहे खतरे की बात की थी, उनमें से एक जज रंजन गोगोई को सेवानिवृत्ति के बाद राज्यसभा सांसद के रूप में सुशोभित करने के बाद न्यायपालिका की निष्पक्षता पर सवाल उठने लगे हैं।’ यह लेख इसलिए भी पठनीय है क्योंकि न्यायपालिका में लगातार आ रही कथित गिरावट और सत्तासीन सरकारों के प्रति सॉफ्ट कॉर्नर की ओर ये लेख इंगित ही नहीं करता अपितु लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायपालिका की भूमिका पर नया डिस्कोर्स प्रस्तुत करता है। ‘आधा डूबा आधा उठा हुआ विश्वविद्यालय’ संस्मरण में भरत प्रसाद ने खुद को खोजने का प्रयास किया है।

इस अंक में राजकुमार भाटी का एक महत्त्वपूर्ण लेख है- ‘दंगों के असली गुनाहगार न्यूज़ स्टूडियो में बैठे हैं। देश के हिंदू-मुसलमानों के बीच अविश्वास, नफरत, गुस्सा और भय पैदा करने का सबसे बड़ा माध्यम इन दिनों इलेक्ट्रानिक मीडिया बन रहा है। प्रेस की आजादी के नाम पर यूं खुलेआम ज़हर फैलाने की आजादी नहीं दी जा सकती। इनकी मनमानी पर रोक न लगी तो ये देश को खतरनाक गृह युद्ध में झोंक देंगे।’ इसी अंक में अपूर्व जोशी का प्रेम भारद्वाज पर एक संतुलित और विचारोत्तेजक संपादकीय है जो ‘पाखी’ से प्रेम के रिश्तों की पड़ताल करता है। अपूर्व लिखते हैं -‘प्रेम ने पाखी का बेहद विषम परिस्थितियों में पूरी निष्ठा के साथ संपादन किया।’ इसे अपूर्व जोशी की दरियादिली, दानिशमंदी और अपने संपादक के प्रति अनुराग भाव ही कहा जाएगा कि संस्थान से विदा होने और निधन के बाद उन्होंने प्रेम को याद किया। करीब 11 साल तक अपने खूब पसंद किए गए संपादकीयों के बल पर प्रेम हजारों पाठकों व लेखकों के चहेते बने रहे। इस अंक में प्रेम भारद्वाज की स्मृति में जितने भी लेख छपे हैं उनमें लेखकों ने उन्हें ‘देवता’ के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया है। ‘दि ग्रेट इंडियन डेमोक्रेटिक सर्कस’ संपादकीय मई-2019 के अंक में छपा था। ‘देश-दुनिया के नीति-नियंताओं, पावरफुल हुक्मरानों से एक प्रार्थना है-इस पृथ्वी के किसी भी कोने में भूखे को रोटी का भूगोल मत बताइए। पानी के लिए छटपटाते किसी प्यासे को पानी का फार्मूला भी मत सिखाइए। भूखे को दो रोटी, प्यासे को एक गिलास पानी पिलाएं, यही जनतंत्र है। जनता जनतंत्र को नहीं ‘जीवन’ को जानती है।’ यह प्रेम के एक संपादकीय की बानगी है।

इस अंक में प्रेम भारद्वाज पर अनेक लेखकों के भावनापूर्ण व संवेदनात्मक लेख पढ़कर लगा कि हिंदी लेखक समाज किस गहराई तक एक संपादक से रिश्ता बनाए हुए था। भारत भारद्वाज के लेख में यह टिप्पणी सटीक है- ‘अपने समय के भयावह यथार्थ को वह रूपक से कम फैंटेसी से ज्यादा गढ़ते थे। उनकी चिंता के केंद्र में भारत जैसे देश की गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा, बेकारी के साथ लोकतंत्र में गांधी की धूमिल होती छवि भी थी।’ पाखी के प्रति प्रेम का बहुमूल्य योगदान यह भी रहा कि उन्होंने देशभर से नए युवा लेखकों को पहली बार पत्रिका में स्थान दिया और फिर वे अन्य पत्रिकाओं में भी सराहे गए। पाखी ने अपने सफर में लेखकों की एक नई पीढ़ी तैयार की और जन के प्रति अपनी पक्षधरता की आंच को कभी कम नहीं होने दिया।

अपने संपादकीय ‘मैं बोलता हूं अपनी तरफ से’ में अपूर्व जोशी का यह कथन उद्वरण योग्य है,-‘पाखी’ में ताजे फूलों की खुशबू भी होगी तो मजदूर के पसीने की गंघ भी…. ऐसा दर्पण जिसमें केवल और केवल समाज का सत्य दिखाई पड़े … इस मुल्क में अभी तक जितने भी जन-आंदोलन हुए हैं उसमें साहित्यकारों, कवियों, आलोचकों आदि की भूमिका कहीं देखने को नहीं मिलती।

ताजातरीन उदाहरण अन्ना आंदोलन का है, जिससे लगभग सभी नामचीन साहित्यकारों ने दूरी बनाए रखी। रोते-बिलखते बच्चे पर मार्मिक कहानी, कविता लिखना जरूरी है, बेहद जरूरी है हर अन्याय के खिलाफ कविता लिखना, लेकिन इतना ही जरूरी है सीधे हस्तक्षेप करना भी।’ बतौर संपादक एक साल में आए संपादकीयों को पढ़कर एक बात तो स्पष्ट है कि वे जन सरोकारों से गहरे जुड़े हुए हैं और भावनात्मक-भाषा व शिल्प के ़गलैमर से बेज़ा रूप से अभिभूत नहीं हैं।


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