कानून की चौखट में गवाहों का दर्द: राजेंद्र मोहन शर्मा, सेवानिवृत्त डीआईजी

By: Aug 10th, 2020 12:07 am

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राजेंद्र मोहन शर्मा

सेवानिवृत्त डीआईजी

अंत में जब मुकद्दमा फेल हो जाता है तो उसका ठीकरा पुलिस के सिर पर ही फोड़ दिया जाता है। गवाहों का दर्द यहां पर ही समाप्त नहीं होता, न्यायालयों में उनके बैठने की उचित व्यवस्था नहीं होती तथा वे बेचारे धूप-छाया में भटकते फिरते देखे जा सकते हैं। अंग्रेजों के समय से चलती आ रही इस प्रक्रिया के अंतर्गत उन्हें मुलजिमों की तरह न्यायालय में प्रवेश हो कर अपना बयान देने के लिए आवाजें लगाई जाती हैं तथा उनके मानसिक पटल पर एक डर का माहौल बना दिया जाता है। जहां तक गवाहों की सुरक्षा की बात है, तो उनके लिए कोई विशेष प्रावधान नहीं किया गया है…

कानून प्रणाली में गवाहों की अहम भूमिका होती है, क्योंकि तथ्यों को न्यायालय में सिद्ध करने के लिए अधिकतर गवाहों पर ही निर्भर होना पड़ता है। अपराध से लेकर सजा मिलने तक कई बार न्याय दम तोड़ देता है तथा अपराधी खुलेआम घूमते फिरते दिखाई देते हैं। दंड प्रक्रिया की धारा 161 के अंतर्गत पुलिस द्वारा गवाहों के लिए गए बयान कोर्ट में मान्य नहीं हैं तथा पुलिस किसी भी गवाह के बयानों पर हस्ताक्षर नहीं करवा सकती। यह एक बहुत बड़ी विडंबना है कि अंग्रेजों के समय से चलती आ रही इस प्रक्रिया को आज तक बदला नहीं गया। पुलिस किसी भी गवाह का बयान अपनी मर्जी से लिख कर कोर्ट में भेज सकती है तथा गवाहों के असली बयान व न्यायालय में पेशी भुगतते हुए दिए गए बयानों में आमतौर पर विभिन्नता पाई जानी स्वाभाविक हो जाती है तथा अपराधी को संशय का लाभ मिल जाता है। न जाने किन कारणों से हमारी निरंतर आ रही सरकारें इस ओर ध्यान नहीं दे पा रही हैं, क्या वे प्रतिपक्ष के वकीलों को लाभ पहुंचाना चाहती हैं ताकि अपराधी गवाहों के बयानों की भिन्नता का लाभ उठा कर सजामुक्त होते रहें।

पुलिस को कुछ ही हालात, जैसा कि किसी के घर की या फिर व्यक्तिगत तलाशी या फिर अन्य किसी प्रकार की बरामदगी में ही गवाहों के हस्ताक्षर करवाने की अनुमति है तथा वह भी न्यायालय में इसलिए सिद्ध नहीं हो पाते क्योंकि गवाहों को पुलिस आम तौर पर उनके बयानों की प्रतिलिपि नहीं देती तथा गवाहों की स्थिति दुविधापूर्ण बनी रहती है, क्योंकि उनको अपने दिए गए बयानों के बारे में जानकारी नहीं रह पाती। इसके अतिरिक्त गवाहों के साथ क्या गुजरती है या उनके साथ कैसा व्यवहार होता है, यह तो वे खुद बयां कर सकते हैं। सबसे पहले गवाह की जरूरत पुलिस को पड़ती है तथा चाहिए तो यह कि उसका बयान घटनास्थल पर या फिर उसके घर जाकर ही लिया जाए, मगर न जाने उसे थाने/चौकियों में कितनी बार बुलाया जाता है तथा पुलिस के व्यवहार को देखते हुए वह नकारात्मक बयान देने के लिए मजबूर हो जाता है। कई बार तो उसे यह भी पता नहीं होता कि उसका बयान क्या लिखा गया है।

कई बार तो ऐसी घटनाएं भी घटी हैं, जब गवाह को उच्च न्यायालयों में जाकर गुहार लगानी पड़ती है कि अमुक बयान उसका नहीं है। इसी तरह विधि-विधानों के अनुसार बच्चों व महिलाओं के बयान लेने के लिए उन्हें थानों में नहीं बुलाया जा सकता, मगर वास्तव में ऐसा नहीं होता। दूसरा पड़ाव अभियोजन पक्ष यानी कि सरकारी वकीलों का आरंभ होता है। गवाहों द्वारा पुलिस को दिए गए बयानों को न्यायालय के समक्ष रखने की जिम्मेदारी इन्हीं की होती है। न्यायालयों में प्रतिपक्ष द्वारा कई बार ऐसे प्रश्न पूछे जाते हैं जिसका घटना/मुकद्दमे के साथ कोई तर्कसंगत संबंध नहीं होता तथा उन पर प्रश्नों की इस तरह बौछार कर दी जाती है कि गवाह अपना सही बयान नहीं दे पाता तथा सरकारी वकील भी मूकदर्शक बनकर खड़े रहते हैं तथा मुकद्दमा मुलजिम के पक्ष में चला जाता है। इसके अतिरिक्त गवाहों को न्यायालय में बार-बार बुलाया जाता है तथा तारीख पर तारीख इस तरह दी जाती है कि कई बार विलंब होने के कारण गवाह अपना असली बयान ही भूल जाता है।

अंत में जब मुकद्दमा फेल हो जाता है तो उसका ठीकरा पुलिस के सिर पर ही फोड़ दिया जाता है। गवाहों का दर्द यहां पर ही समाप्त नहीं होता, न्यायालयों में उनके बैठने की उचित व्यवस्था नहीं होती तथा वे बेचारे धूप-छाया में भटकते फिरते देखे जा सकते हैं। अंग्रेजों के समय से चलती आ रही इस प्रक्रिया के अंतर्गत उन्हें मुलजिमों की तरह न्यायालय में प्रवेश हो कर अपना बयान देने के लिए आवाजें लगाई जाती हैं तथा उनके मानसिक पटल पर एक डर का माहौल बना दिया जाता है। जहां तक गवाहों की सुरक्षा की बात है, तो उनके लिए कोई विशेष प्रावधान नहीं किया गया है। केवल ब्लोअर एक्ट बनाने से ही उनकी सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की जा सकती। उनको गैंगस्टर लोगों द्वारा डराया व धमकाया जाता है। विकास दुबे का जीता-जागता उदाहरण हम सभी के सामने है।

आज शायद यही कारण है कि घटना स्थल पर कोई रुकता नहीं है क्योंकि वह गवाह बनकर अपना शोषण नहीं करवाना चाहता। गवाहों की इस दयनीय स्थिति के कारण शोषित व्यक्ति को अपनी बदनसीबी पर आंसू बहाने पड़ते हैं। गवाह तो पीडि़त व्यक्ति के लिए एक मसीहे का रूप होते हैं तथा उसे उचित सम्मान व सुरक्षा मिलनी चाहिए। यदि गवाहों के साथ उचित व्यवहार हो तथा उन्हें बिना वजह से बार-बार कोर्टों में या थानों में न बुलाया जाए तो वे अपराधियों को सलाखों के पीछे पहुंचाने में अपना सकारात्मक योगदान दे सकते हैं। इस सबके लिए पुलिस, अभियोजन पक्ष तथा न्यायालयों को उचित मापदंड सुनिश्चित करने चाहिए ताकि गवाह बेखौफ  होकर अपना बयान दर्ज करवा सकें तथा अपराधियों को सजा दिलवाने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकें।


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