मन अनेक आत्मा एक

By: Aug 29th, 2020 12:15 am

बाबा हरदेव

विद्वानों का कथन है कि हमारे मन अलग-अलग हैं लेकिन हम सभी की आत्मा एक है। मानो मनुष्य की परमस्थिति तो एक ही है परंतु इसकी बीच की स्थितियां भिन्न-भिन्न हैं। सभी मनुष्य आत्यांतिक रूप से समान हैं लेकिन अलग-अलग स्थितियों में ये बहुत असमान हैं। मन के अलग-अलग होने के कारण हमारे शरीर भी अलग-अलग हैं, क्योंकि शरीर मन के द्वारा ही निर्मित होता है शरीर को हम पाते हैं मन के द्वारा ही। क्योंकि हमारे मन अलग-अलग हैं इसलिए हमारे ऋषियों ने हमारी अलग-अलग चित्त की दशा के अधार पर चार प्रकार के व्यक्तित्व विभाजित किए हैं, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।

लेकिन इन चारों का कोई संबंध हमारे जन्म से नहीं है, क्योंकि यह चार शब्द हमारे व्यक्तित्व के ही प्रतीक हैं। अतः आध्यात्मिक जगत में शूद्र उस व्यक्ति को कहा जाता है, जो अपने शरीर के इर्द-गिर्द ही जीता है और उसे अपने शरीर से ज्यादा कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। इसका शरीर सुख में रहे, तो यह प्रसन्न रहता है और यदि  शरीर दुख में हो जाए, तो यह दुखी होने लगता है। ऐसे ही यदि इसके शरीर की मांग पूरी हो जाए, तो इसकी सब मांगें समाप्त हो जाती हैं और अगर शरीर की मांग पूरी न हो, तो इसके जीवन में व्यथा और संताप पैदा होने लग जाता है अर्थात इसके व्यक्तित्व का केंद्र शरीर ही है। अतः बहुत अनूठी बात भारतीय शास्त्रों ने कही है कि सभी व्यक्ति शुरू में शूद्र होते हैं। एक अर्थ में यह बात बिलकुल सही है, सभी व्यक्ति जन्म से शरीर के इर्द-गिर्द होते हैं।

खाओ, पीओ, मजे उड़ाओ, बस इतना ही इनके जीवन का अर्थ होता है, बाकी जीवन की ऊंचाई को क्रमशः प्राप्त करना पड़ता है। अब संक्षिप्त में कहें, तो जो व्यक्ति ऐसा मानता है कि शरीर ही सब कुछ है और शरीर ही इसका जीवन है, तो यह शूद्र है। उसका सारा जीवन शरीर पर ही समाप्त हो जाता है और यह शरीर के पार नहीं जाता, बस शरीर ही इसकी सीमा होती है। अतः जो शरीर का तल है यही इसके संबंध होते हैं। पति है, पत्नी है, बेटा है, बेटी है, परिवार है, मित्र हैं, परिजन हैं, जबकि यह सब आसक्तियां हैं, पाश हैं। इसलिए ज्ञानीजन फरमाते हैं कि जो व्यक्ति केवल शरीर में जीता है वो पाश में बंधा हुआ पशु के समान है और वह घूमता रहता है कोल्हू के बैल की भांति। अब शरीर के तल पर सिवाय असफलता और विषाद के कुछ नहीं है।

कौन अपना है कौन किसका है, मनुष्य का जीवन इसी उधेड़बुन में व्यतीत हो जाता है। मनुष्य को जीवन भर अकांक्षा बनी रहती है कि किसी तरह खोज लें शायद कहीं कोईर् सही मायनों में अपना मिल जाए और ऐसी ही आशा उसकी जीवन भर बनी रह जाती है।

अब तक मुझे न कोई मेरा राज़दां मिला,

जो भी मिला असीरे ज़मीनों मकां मिला। (सूफी कवि)

 अब शूद्र को इसलिए निम्नतम कहा है, क्योंकि शूद्र होना केवल जीवन की बुनियाद है ताकि इस पर भवन निर्मित किया जा सके और यदि भवन न निर्मित हो पाए, तो उसकी बुनियाद बेकार है। शरीर पर ही कोई यदि समाप्त हो जाए, तो इसका जीवन व्यर्थगया। भगवान श्रीकृष्ण फरमा रहे हैंः

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽमि स्युः पापनोनयः।

स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रोस्तेऽपि यांति परां गतिम। (श्रीमद्भगवतगीता 9/32)

हे पार्थ! जो लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं वे भले ही निम्नजन्मा क्यों न हों वे परमात्मा को प्राप्त होते हैं।


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