पंचायती राज और महात्मा गांधी: प्रो. एनके सिंह, अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन सलाहकार

By: प्रो. एनके सिंह, अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन सलाहकार Aug 28th, 2020 12:08 am

प्रो. एनके सिंह

अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन सलाहकार

मूल रूप से पंचायतों को राजनीति से दूर रखने की हमारी सिफारिश को संविधान संशोधन के निर्माताओं ने ध्यान में रखा, लेकिन व्यवहार में इनके चुनावों में राजनीति होती दिखती है। वास्तव में हमने यह सिफारिश भी की थी कि पंचायतों के चुनाव से बचा जाए क्योंकि इससे गांवों में गुटबाजी तथा राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ जाएगा। हम चाहते थे कि पंचायतों में मुखिया को सर्वसम्मति से चुना जाए, लोग उसे चुने, अपनी सहमति के जरिए, न कि मत पत्र के जरिए यह चुनाव हो। चुनाव लड़ने के प्रति हमारे प्रेम ने सर्वसम्मति वाली हमारी सिफारिश को धूल-धूसरित कर दिया। आज हमारी पंचायतों में जमीनी स्तर पर खूब राजनीति हो रही है। हालांकि पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है, लेकिन यह सैद्धांतिक रूप से ही है, व्यवहार में सभी निर्णय महिला प्रतिनिधियों के पतियों द्वारा लिए जाते हैं…

महात्मा गांधी ने भारत के लिए कई सपने देखे थे। वह चाहते थे कि भारत राम राज्य की ओर लौटे जिसमें राष्ट्र के नागरिकों को समृद्धि और शांति मिल सके। संयुक्त भारत का उनका पहला सपना देश के विभाजन के कारण टूट गया। उनकी पार्टी को मजबूरी में भारत विभाजन को स्वीकृति देनी पड़ी तथा देश में बहुत रक्तपात हुआ। जब गांधी जी ने राम राज्य का सपना देखा, तो वह चाहते थे कि गांवों का विकास स्वशासित संस्थानों के रूप में हो जो संपदा का भी निर्माण करें। उन्होंने ग्राम उद्योग जैसे खादी और कृषि उत्पादों की पैरवी की। उन्होंने गांवों की ऐसे संगठनों के रूप में परिकल्पना की जो गांवों की जरूरतों के लिए सेवाएं देने के लिए मूलभूत संस्थानों के रूप में कार्य करेंगे।

जिस देश की आजादी के लिए महात्मा गांधी ने अपना पूरा जीवन लगा दिया, उस देश के संविधान तक में पंचायतों की व्यवस्था नहीं की गई। अर्थात उनके सपने की ओर किसी ने भी ध्यान नहीं दिया। किसी ने भी इस बात की प्रशंसा नहीं की कि पंचायतों की अवधारणा उतनी ही प्राचीन है जितनी वैदिक विचारधारा। प्रसिद्ध विचारक चाणक्य के समय में गांव स्वशासित थे तथा ग्राम निकाय उनका नियंत्रण करते थे। उन दिनों गांव इस हद तक स्वशासित थे कि वे अपने पहचान पत्र जारी करते थे तथा एक जोन से दूसरे जोन में जाने के लिए ऐसे पासपोर्ट को दिखाना पड़ता था। लगता है हम अपना इतिहास भूल गए हैं। बहुत बाद में संवैधानिक व्यवस्था करके पंचायतों को कानूनी पहचान दी गई। वर्ष 1992 में संशोधन करके पंचायती राज भारत में सामने आया। इस संशोधन से पहले इस मसले पर भारत के योजना आयोग में विचार-विनिमय किया गया। उस समय योजना आयोग का नेतृत्व प्रसिद्ध कांग्रेस नेता प्रणब मुखर्जी कर रहे थे। उनके पास ऐसे स्वशासित संस्थानों की डिजाइन पर कार्य करने की अंतरदृष्टि थी।

मुखर्जी ने ऐसे स्वशासित संस्थानों के प्रकार को लेकर सिफारिश करने के लिए एक समिति का निर्माण किया। इन स्वशासित संस्थानों को गांवों के विकास के लिए तथा ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी दूर करने के लिए काम करना था। कार्यबल के चेयरमैन के रूप में उन्होंने मुझे नियुक्त किया। इस कार्यबल को इस मामले का अध्ययन करना था तथा लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए उपाय बताने के लिए रिपोर्ट देनी थी। इस कार्यबल के एक अन्य सदस्य ग्रामीण प्रबंधन संस्थान आनंद के निदेशक डा. आरपी अनेजा थे। इस संस्थान की स्थापना पीजे कूरियन ने की थी, जिन्होंने अमूल का निर्माण किया तथा शायद वह सबसे बड़ा ग्रामीण विकास मिशन चला रहे थे। मैंने उनसे बहुत अच्छे संबंध बना लिए तथा हमने ग्रामीण विकास के संभावित डिजाइन पर सोचने व उसकी परिकल्पना करने के लिए कई दिनों तक कार्य किया। हमारी कई संध्याएं इस विचार-विमर्श में ही बीत गईं। मैं साथ ही फाउंडेशन फार आर्गेनाइजेशन रिसर्च की स्थापना में भी जुटा था। हमारा जोर शिक्षा, अनुसंधान और ग्रामीण विकास के क्षेत्र में प्रबंध करने के लिए नवाचारी रास्ते खोजने पर था। हमने ऐसी पंचायतों की सिफारिश की जो स्वशासित संस्थान की तरह हों तथा राजनीति अथवा सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त हों। दुर्भाग्य से यह नहीं हो पाया क्योंकि अपने-अपने विचारों के साथ अन्य समितियां भी थीं। अंततः पंचायती राज निकायों को कानूनी जामा पहनाने के लिए सरकार ने वर्ष 1992 में संशोधन लाया। आज ग्राम स्तर, खंड स्तर तथा जिला स्तर की त्रिस्तरीय प्रणाली में तीन लाख से अधिक ऐसे निकायों का निर्माण किया जा चुका है। इन निकायों में महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है ताकि वे प्रबंधन में भागीदारी कर सकें।

मूल रूप से पंचायतों को राजनीति से दूर रखने की हमारी सिफारिश को संविधान संशोधन के निर्माताओं ने ध्यान में रखा, लेकिन व्यवहार में इनके चुनावों में राजनीति होती दिखती है। वास्तव में हमने यह सिफारिश भी की थी कि पंचायतों के चुनाव से बचा जाए क्योंकि इससे गांवों में गुटबाजी तथा राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ जाएगा। हम चाहते थे कि पंचायतों में मुखिया को सर्वसम्मति से चुना जाए, लोग उसे चुने, अपनी सहमति के जरिए, न कि मत पत्र के जरिए यह चुनाव हो। चुनाव लड़ने के प्रति हमारे प्रेम ने सर्वसम्मति वाली हमारी सिफारिश को धूल-धूसरित कर दिया। आज हमारी पंचायतों में जमीनी स्तर पर खूब राजनीति हो रही है। हालांकि पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है, लेकिन यह सैद्धांतिक रूप से ही है, व्यवहार में सभी निर्णय महिला प्रतिनिधियों के पतियों द्वारा लिए जाते हैं तथा महिलाएं केवल रबड़ स्टैंप बनकर रह गई हैं। व्यावहारिक राजनीति के कारण महिला आरक्षण की मूल भावना ही नष्ट हो गई है। महिला प्रतिनिधियों के मामले में पतियों के हस्तक्षेप को रोकने के लिए हमें न केवल कानूनी प्रावधान करने होंगे, बल्कि महिला शिक्षा को भी जमीनी स्तर पर सच करके दिखाना होगा। हालांकि हम धीरे-धीरे इस ओर बढ़ रहे हैं, फिर भी जरूरत इस बात की है कि महिला प्रतिनिधियों को माकूल प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए। उनके लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए। आज यह सही समय है जब प्रधानमंत्री नरेंद मोदी को पंचायतों की कार्यशैली में सुधार करने के लिए सिफारिशें देने के लिए किसी कार्यबल का गठन करना चाहिए।

ग्रामीण जनसंख्या को बेहतर प्रशासन देने के लिए पंचायतों का प्रभावी तथा सशक्त होना जरूरी है। पंचायतों को ग्रामीण सुधार के लिए सक्रिय तथा सर्वांगीण भूमिका निभानी होगी। पंचायतों को सशक्त किए बिना तथा उन्हें प्रभावी बनाए बिना यह संभव नहीं हो पाएगा। पंचायतों की स्वायत्तता तथा उनका आत्मनिर्भर होना बहुत जरूरी है। पंचायतों को राजनीति से भी मुक्त रखा जाना चाहिए क्योंकि इसके कारण स्थानीय स्तर पर गुटबाजी उभर कर आती है और पंचायतें सही ढंग से काम नहीं कर पाती हैं। पंचायतों को अपने संसाधन ऐजाद करने की भी सुविधा दी जानी चाहिए। तभी वे सक्षम होकर कार्य कर पाएंगी, अन्यथा विफल हो जाएंगी।

ई-मेलः singhnk7@gmail.com


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