प्रेम और आत्मा की भाषा

By: Aug 29th, 2020 12:15 am

श्रीश्री रवि शंकर

संसार की भाषा है कलह, दिल की भाषा है प्रेम और आत्मा की भाषा है मौन। अब किस भाषा में बात करें। दिल की जो भाषा है उसमें शब्द कोई ज्यादा मायने नहीं रखते। वैसे जब कारोबार करते हैं, दुकान चलाते हैं, उसमें तो दिल की भाषा नहीं होती, उसमें दिमाग का काम होता है। मगर जहां आत्मा का संबंध है, वहां तरंग काम कर रही होती हैं, कोई ज्यादा बोलने की जरूरत नहीं पड़ती। फिर भी तृप्त हो जाते हैं हम। ज्ञान को पकड़ोगे, कितना ज्ञान चाहिए? अच्छा ठीक है, दुनिया भर के सब शास्त्रों का ज्ञान समझ लिया, फिर करोगे क्या? ज्ञान का उपयोग तब तक है जब तक मैल न धुल जाए।

यदि ज्ञान को हम दान नहीं करते हैं, त्यागते नहीं हैं, तो ज्ञान ही अहंकार बन सकता है। अकसर तुम पाओगे जो ज्ञानी लोग हैं, उनमें अहंकार बहुत जबरदस्त होता है, भोलापन नहीं होता, सहजता नहीं होती और सहजता नहीं होने से फिर अविनाशी तत्त्व का अनुभव नहीं होता। चाहे तुम कुछ भी नहीं जानते हो, फिर भी तुम सहज होते हो तो अविनाशी तत्त्व मिल जाता है। जितनी हमारी चेतना सहज, तरल होती है, उतने ही हम आत्मा के करीब होते हैं। आप यदि गीता को गौर से देखते हैं, तो लगेगा कि यह क्या बात है?

सब कुछ कहने के बाद आखिर में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, अर्जुन सब कुछ छोड़ दो, सभी धर्मों को त्याग कर मेरी शरण में आ जाओ। भई, तब अठारह अध्याय सुनने की क्या जरूरत थी यदि सब छोड़ना ही था। सब गुणों का वर्णन किया, कर्म के बारे में, धर्म के बारे में, भक्ति के बारे में, सब कहने के बाद कहते हैं सब कुछ छोड़छाड़ कर तुम आ जाओ। सब पहले ही कह देते, सारा झंझट ही खत्म नहीं? मन भटकता है क्यों? कभी सोचा है, मन भटक क्यों रहा है? क्या चाहिए है इसको? चैन है नहीं क्यों अपने में? सबकी एक ही मांग है प्रेम। प्यार चाहिए, जो बांध कर रखे मन को और प्यार के बिना जितनी भी पूजा करो, मंत्र करो, जप करो, कथा सुनो, कुछ लगेगा ही नहीं। उसका कुछ असर नहीं। हमें क्या चाहिए, इस पर हमारी दृष्टि पड़ जाए वही काफी है। हमें इतना भी नहीं पता है हमें प्यार की आवश्यकता है, ऐसे प्यार की जरूरत है जो अविनाशी है, जो कभी घटता नहीं, पुरानी प्रीत चाहिए हमें। हमारा जो प्रेम है वह पुराना होता ही नहीं है, बचपन में ही मर जाता है। किसी से प्यार होता है, कुछ समय के लिए रहता है, फिर खत्म हो जाता है और वह जो प्रेम जिसकी तलाश है, वह तो हमारा स्वभाव है, स्वरूप है। ज्ञान हमें वहां तक पहुंचाता है। अब देखो किसी ने आपको कुछ कह दिया। क्यों कहा, उसको खुद को नहीं  पता है।  आप में ऐसी तरंगें उठीं कि आपने उसके मुंह से गाली निकलवा दी। फिर आप उससे पूछ रहे हैं तुमने गाली क्यों दी। आप समझ रहे हैं, इसका विज्ञान समझो न। जरा गहराई से देखो। आप में ऐसी तरंग है, ऐसा समय है, यह नहीं कहता तो दूसरे कोई कह देता या तीसरा कह दे देता उस वक्त। मगर हम उस व्यक्ति को पूछते हैं तुमने ऐसा क्यों किया? हम समझते हैं उसने जान बूझकर किया, उसके वश की बात है। यह दुनिया इतनी विशाल है, इसमें तुम्हारा अस्तित्व क्या है? कुछ भी नहीं है। यहां तो करोड़ों लोग आए, चल बसे। ऐसे ही तुम भी चले जाओगे। इस बीच तुम किसी को क्या साबित करने जा रहे हो।


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