साहित्य में सामाजिक चेतना और भाषायी सौंदर्य का समावेश

By: मुरारी शर्मा Aug 23rd, 2020 12:08 am

मुरारी शर्मा

मो.-9418025190

साहित्य में सामाजिक चेतना और भाषायी सौंदर्य का समावेश अनिवार्य है। हमारे आसपास का परिवेश जिसे हम लोक भी कहते हैं, भाषायी सरोकार जनता के बीच हमारी चेतना को प्रभावित करता है। अब यह आप पर निर्भर करता है कि जीवन के यथार्थ को अपनी रचना में किस रूप में और कितना व्यक्त करते हैं। जहां तक भाषा का सवाल है, यह परिवेश और परंपरा से उपजती है, जिसे समाज में रहने वाला आदमी रचता है और लेखक भाषा, शिल्प और अपनी रचना को गढ़ने के औजार समाज से ही लेता है। मगर इसके लिए सतत रियाज और कड़ी मेहनत की जरूरत है। किसान का बेटा होने की वजह से मिट्टी की तासीर को समझता हूं…मिट्टी को उर्वरता को बनाए रखने के लिए किसान उसे अपने खून-पसीने से सींचता है…खिलाफ  मौसम में भी किसान अपनी जमीन से जुड़ा रहता है। हल की मूठ थामे किसान को अपनी बंजर और कठोर जमीन को बार-बार जोत कर बीज डालने लायक बनाना पड़ता है।  यही बात साहित्य पर भी लागू होती है। मनुष्य के जीवन संघर्ष को भी साहित्य में नए सौंदर्य बोध के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।

मनुष्य का आंतरिक विकास साहित्य, संस्कृति और कलाओं से संभव है और यह सब समाज से ही उपजती है। साहित्य चाहे कविता हो या कहानी, वो तभी सार्थक है जब उसमें सामाजिक यथार्थबोध हो। सामाजिक विदू्रपता, गैर बराबरी, शोषण और जनपक्षधरता कुछ ऐसे बिंदु हैं जिनके बिना सार्थक साहित्य का सृजन संभव नहीं। साहित्य, कला-संस्कृति जनपक्षधर होनी चाहिए, साहित्य की पक्षधरता सत्ता के पक्ष में नहीं बल्कि प्रतिरोधक होती है। समाज से कटकर लेखक अपने अंचल को आत्मसात नहीं कर सकता है। लेखक अपने समय और समाज को अभिव्यक्त करने के साथ-साथ अपने समय के सवालों, विसंगतियों और चिंताओं से मुठभेड़ करता है। इसके बावजूद साहित्य मनुष्य को जानने-समझने की कुव्वत तो देता है…वहीं एक बेहतर इनसान भी बनाता है। यह सामाजिक चेतना का मूल स्वरूप है। कहानी में किस्सागोई जहां पहली शर्त है, वहीं जीवन का यथार्थ होना भी जरूरी है। दादी-नानी की कहानियों को सुनते हुए बड़े हुए हैं…जिसमें लोकधर्मी सौंदर्य उबर कर सामने आता है। यह तभी संभव है जब आम पाठक इसे अपने जीवन, अपने आसपास और परिवेश की कहानी के रूप में स्वीकार करेगा। अगर आपकी कहानी को पाठक अपने से जुड़ी हुई कहानी के रूप में मान्यता प्रदान करता है, तो यह आपकी सबसे बड़ी सफलता है।

यह किसी भी रचना के लिए आलोचकीय टिप्पणी से भी महत्त्वपूर्ण आकलन हो सकता है, जिससे लेखन को ऊर्जा मिलती है। हिमाचल के चर्चित कवि स्व. सुरेश सेन निशांत पांच पढ़ी औरत, बिजली मजदूर, लेदा गांव के वासी जैसी कई लोकप्रिय कविताएं लिखने के लिए न केवल जीवंत पात्रों के बीच बार-बार जाकर उनके मनोभावों को समझने का प्रयास करते रहे, बल्कि उनके बीच जाकर उन पर लिखी कविताओं को उन्हें सुनाते और उनकी प्रतिक्रिया जानने की कोशिश करते। वे कहते थे कि मैं किसी आलोचक को अपनी कविता सुनाने से इतना नहीं डरता, जितना उस पांच पढ़ी औरत को कविता सुनाने से डर रहा था। क्योंकि जितनी सहजता से वह मेरी गलतियों को पकड़ सकती थी, उतनी सहजता से कोई आलोचक नहीं पकड़ सकता था। जहां तक साहित्य में सामाजिक चेतना के साथ भाषायी सौंदर्यबोध और सरोकारों का सवाल है, इसके लिए भी लोक के बीच जाने की जरूरत है।

मनुष्य और प्रकृति के बीच के संबंधों को समझने की जरूरत है। लोक संवाद, लोकगाथाओं, लोकगीतों की संवेदनाओं, लोकमुहावरों को समझे बिना भाषायी सरोकारों को सही मायने में आत्मसात नहीं किया जा सकता है, क्योंकि भाषा सामूहिक रूप से समाज के भीतर से ही सृजित होती है। ऐसे में भाषा और यथार्थ को साहित्यिक परंपरा के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। कहानी-कविता और अन्य विधाओं में भी भाषा का आंतरिक सौंदर्य पाठक को अपने साथ जोड़ते हुए अपने लोक में ले जाने में समर्थ होता है, जिसमें पहाड़ के जन-जीवन की दुरूहता, प्राकृतिक सौंदर्य, नदी-नालों और मस्ती का गीत गाते झरनों की चंचलता के साथ यहां की लोक संस्कृति भी वनफूलों सी महक उठती है, जो हमारी भाषिक चेतना के साथ-साथ नए मुहावरे का सृजन कर सके।

साहित्यिक अवलोकन और मूल्यांकन का धर्म-कर्म

पीसीके प्रेम

 मो.-8219333986

मनुष्य की ग्रोथ साहित्य से जुड़ी होती है। ऐसे प्रश्न अक्सर जन्म लेते हैं। साहित्य की सही सूझबूझ एक धर्म है जिसका निर्वाह  करना समीक्षक के लिए अति महत्त्वपूर्ण होता है। इससे महज शब्द जाल के सहारे दर्शन व्यक्त नहीं होता। धीरे से वक्त के संग कहीं  अनमापी गहराइयों में झांकना पड़ता है, तब जाकर अर्थ जानते हुए व्यक्ति विकसित होता है। उसके बौद्धिक स्तर में फैलाव आता है  और अर्थ जानकर मन शांत और संतुष्ट होता है जिसके लिए संवेदना का होना आवश्यक होता है। संवेदना शक्तिमान ही नहीं, ऊर्जा प्रेषित कर स्वयं सिद्धि की ओर अग्रसर होती है। मानसिक और बौद्धिक ग्रोथ एक लंबी पीड़ादायक प्रक्रिया है जहां असीम आंतरिक आनंद अंतर्निहित होता है।

यही दिव्य अनुभूति परमानंद की ओर ले जाती है। यह कर्म साहित्य कृति में निवास करता है, यदि सर्जक साधक हो। साहित्य स्वयं में  व्यापकता  समेटे रहता है। इसमें न केवल मात्र बौद्धिक दर्शन होता है, अपितु यहीं पर तन-मन और बुद्धि को आत्मसात करना जरूरी होता है। साहित्यिक दृष्टि और साहित्य की  गूढ़ समझ पढ़कर ही उपलब्ध नहीं होती, इसके साथ अनुभव संसार का विकसित होना भी जरूरी होता है। आंतरिक और बाह्य विकास यहीं से आरंभ होता है जिसके लिए साधना और परिश्रम अनिवार्य है।

यहां साहित्य का सरोकार भाषायी सीमाएं लांघते आगे बढ़, देख-सुन सब कुछ स्वयं में समाहित कर लेता है और यहां इतिहास और जीवनी का संगम  होता है। इन सभी  का जज्ब होना ही जीवन के मुकम्मल ज्ञान का स्रोत बन जाता है जिसमें सही शब्द एवं अभिव्यक्ति विशेष मायने रखती है। मानसिक शुद्धता, प्रौढ़ता, भाषा-शैली और शिल्प का नियंत्रण और अधिकार और उसके अंतर्गत निरंतर घटित परिवर्तन के प्रति जागरूकता और संवेदनशीलता आवश्यक है अन्यथा अनुभूतियों के जमावड़े में अभिव्यक्ति के मुहावरे और मायने बदल जाते हैं। यहां सतही  सामाजिक चेतना में पीसता सर्जक स्वयं की गति और ग्रोथ में अवरोध पैदा करता है।

साहित्य में पाठन और आस्वाद दो विभिन्न स्थितियां हैं। साहित्य अनुसंधान अनेकों अर्थों का  संकेत है जहां दर्शन बेहद करीब भी होता है। यह मनुष्य को उसके अस्तित्व का एहसास देता है जिसका सरोकार संपूर्ण मानव जाति से होता है। प्रेम और सद्भावना से मानव अपना उद्देश्य ठीक उसी प्रकार प्राप्त कर लेता है जैसे पुरातन काल में या समृद्ध आधुनिक युग में भी ऋषि-मुनि या साधक ईश्वर न सही, दिव्य अनुभूति का अवश्य आनंद लेते हैं।

यहां साहित्य प्रेमी को मानव उत्थान के लिए सतर्क और जागरूक रहना होगा, तभी उत्कृष्ट रचना  संभव है। साहित्य मूल्य, मान्यताओं का ढोल पीटना नहीं है, मात्र खामोश शब्दों को आवाज देते हुए संजीदगी से दूसरों को राह दिखाना है। संवाद गोष्ठियों में ऐसे प्रश्न आते हैं और रचनाकार और आलोचक पर भी चर्चा अवश्यमेव होती है, परंतु कई बार अनुभव होता है कि विचार-विमर्श घिसे-पिटे मुहावरों और वाक्यांशों में सिमट जाता है। यह स्थिति प्रेरणा नहीं देती। यहां आलोचक को व्यापक अध्ययन की बहुत जरूरत है अन्यथा रचना पर तफसरा अधूरा और अपरिपक्व रहेगा। शब्द न कोई अर्थ देते हैं और न उनमें शेष ऊर्जा होती है।

यहां संभावित संशय और दुःस्थिति हस्तक्षेप करते हैं और संवाद खंडित हो जाता है। बुद्धिजीवी सचेत एवं संवेदनशील पाठक और आलोचक को अभिरुचि से बाहर निकलकर झांकने की आवश्यकता है। सृजन कठिन प्रक्रिया है। वक्त गुजर जाता है, परंतु आप न कह पाते हैं, नही व्यक्त कर पाते हैं। यह स्थिति रचनाकार के लिए इसलिए उत्पन्न होती है कि वह भाषा की मर्यादा समझता है, परंतु संभवतः उसकी सीमा से अनभिज्ञ रहता है। सृजनकर्ता की यह अनुभूतियां, आवृत्ति, संस्करण और संस्कृति और उस द्वारा  आत्मसात किए दृश्य, बिम्ब एवं चेहरे शब्दों में कहीं अधिक जटिल दिखाई देते हैं।

अभिव्यक्ति में कठिनाई आना और भाषा और अनुभव की खामियां उजागर करता है। यहां यदि सर्जक   यथार्थवाद या अतियथार्थवाद में उलझता है, तब भाषा की मर्यादा खारिज होती है, न भोगे हुए और काल्पनिक धारणा व्यक्त करना अतिरिक्त शक्ति की मांग करता है। यह सर्जक और आलोचक को जानना चाहिए। आधुनिक परिदृश्य में उन्मुक्त चेतना प्रवाह मनुष्य के भीतर अनेक विचार समूह घुमड़ते-उमड़ते हैं एवं बौद्धिक उद्वेलन की स्थिति में बेतुके और संदर्भहीन प्रसंग सांझा करना आसान नहीं होता, लेकिन उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। यह सर्जक की परीक्षा है और आलोचक के लिए चेतावनी कि कहीं रचना के असली मायने से दूर न चला जाए।

आलोचना मात्र शब्दों में छुपे हुए अर्थ स्पष्ट करने का माध्यम ही नहीं है, अपितु विवेचनात्मक कथ्य  से सार्थक  और अर्थवान लक्ष्यों की पूर्ति होती है। यह अनकहे भी बहुत कुछ व्यक्त करती है और सार्थकता में आलोचक के मीमांसात्मक सामर्थ्य, विवेक एवं बौद्धिक दमखम उद्घाटित होते हैं। आजकल आलोचना का स्वरूप बदल रहा है और आलोचक को ही नहीं, सृजन कर्म को भी विशेष सिद्धांतिका में बांधने की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कोशिश होती है। यह स्थिति शुद्ध अर्थवान साहित्य धर्म के विरुद्ध है। अवरोध-प्रतिरोध कई स्रोतों से आते हैं और उनका निवारण भी ऐसे ही होता है। यहां सर्जक का सतर्क होना ही आवश्यक नहीं, अपितु उसे स्वतंत्र विचारधारा का पोषक होना चाहिए। सर्जक को जटिल रचना यात्रा से गुजरते हुए सृजन की पीड़ा और संतुष्टि का एहसास तब होता है जब उसके अर्थ पाठक और आलोचक को समझाने में सफल रहते हैं।

यहीं से स्वस्थ साहित्यिक संस्कृति का निर्माण होता है। हिमाचल प्रदेश में सृजित साहित्य का अवलोकन करते यह एहसास होता है कि यहां का साहित्य किसी प्रकार के दुराग्रहों से मुक्त है। हिमाचल प्रदेश में गत तीन दशकों में विभिन्न विधाओं में विपुल साहित्य सृजन हुआ है। अनेक कृतियों ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान कायम की है। कृतियों की चर्चा, विश्लेषण और आलोचना अपेक्षित है ताकि  सृजित साहित्य सामने आ सके। बहुत सी श्रेष्ठ कृतियां भी चर्चा-परिचर्चा के अभाव में अनचीन्ही रह जाती हैं।

साहित्य के कितना करीब हिमाचल-13

अतिथि संपादक: डा. हेमराज कौशिक

हिमाचल साहित्य के कितना करीब है, इस विषय की पड़ताल हमने अपनी इस नई साहित्यिक सीरीज में की है। साहित्य से हिमाचल की नजदीकियां इस सीरीज में देखी जा सकती हैं। पेश है इस विषय पर सीरीज की 13वीं किस्त…

विमर्श के बिंदु

* हिमाचल के भाषायी सरोकार और जनता के बीच लेखक समुदाय

* हिमाचल का साहित्यिक माहौल और उत्प्रेरणा, साहित्यिक संस्थाएं, संगठन और आयोजन

* साहित्यिक अवलोकन से मूल्यांकन तक, मुख्यधारा में हिमाचली साहित्यकारों की उपस्थिति

* हिमाचल में पुस्तक मेलों से लिट फेस्ट तक भाषा विभाग या निजी प्रयास के बीच रिक्तता

* क्या हिमाचल में साहित्य का उद्देश्य सिकुड़ रहा है?

* हिमाचल में हिंदी, अंग्रेजी और लोक साहित्य में अध्ययन से अध्यापन तक की विरक्तता

* हिमाचल के बौद्धिक विकास से साहित्यिक दूरियां

* साहित्यिक समाज की हिमाचल में घटती प्रासंगिकता तथा मौलिक चिंतन का अभाव

* साहित्य से किनारा करते हिमाचली युवा, कारण-समाधान

* लेखन का हिमाचली अभिप्राय व प्रासंगिकता, पाठ्यक्रम में साहित्य की मात्रा अनुचित/उचित

* साहित्यिक आयोजनों में बदलाव की गुंजाइश, सरकारी प्रकाशनों में हिमाचली साहित्य

खामोशियां तोड़ती दो कहानियां

साल का अगस्त आते-आते न जाने कितने जिस्म पत्थर हुए होंगे या कोरोना काल की बुजदिली में खुशियों के घोंसले बर्बाद हो गए, फिर भी लेखकीय सृजन ने इन खामोशियों को तोड़ती कहानियां लिख डालीं। ‘पहल’ के कथा विशेषांक में एसआर हरनोट की ‘एक नदी तड़पती है’ और ‘पाखी’ के जुलाई अंक में राजेंद्र राजन, ‘पापा! आर यू ओके’ जैसी कहानियों के साथ मानव अस्तित्व के बिंदुओं को अपने-अपने ढंग से छूते हैं।

राजेंद्र राजन की कहानी ‘पापा! आर यू ओके’ कश्मीर की पृष्ठभूमि में एक अनुगूंज पैदा करती है। सियासी मंच से कहीं दूर साहित्यिक मन की सलवटें कितनी गहरी, कोमल और संवेदनशील हो सकती हैं, यह बताने में राजेंद्र राजन पूरी तरह सफल होते हैं। वहां हिंदोस्तान के नक्शे पर वह कहानी नहीं लिखते, बल्कि अभिव्यक्ति के अमिट निशान चस्पां कर देते हैं। कहानी दरअसल हमसे पूछती है कि कोरोना काल के चंद महीनों में अगर देश की जनता त्राहिमाम-त्राहिमाम कर उठती है, तो पूरे साल भर के लॉकडाउन में फंसी कश्मीर घाटी की चीख कैसी हो सकती है।

यहीं से कहानी अपनी बुनियाद में मानवतावादी तर्क को उन हजारों रिश्ते-नातों से जोड़ देती है, जो कभी खूंखार नहीं हो सकते। लॉकडाउन में फंसे परिवार से दूर उसके मुखिया से राफ्ता कायम करने की जद्दोजहद मात्र एक कहानी नहीं हो सकती, बल्कि न जाने कितनी कहानियां इसके आसपास जन्म लेती रहेंगी। एक चुस्त कहानी के शिल्प में राजेंद्र राजन उन ढेरों सवालों का जखीरा खड़ा कर देते हैं, जो देश से भी पूछते हैं कि कश्मीर घाटी के पंख कब तक टूटे रहेंगे और इस विराम के नीचे दफन रिश्तों की चीख सुनकर देश इन्हें कब अपनी छाती से लगाएगा। दूसरी ओर एसआर हरनोट भी छाती पीटते विकास के सामने कोल डैम में, मानवीय संवेदना का सुराख ढूंढ लेते हैं और इस रिसाव में तड़पती सतलुज के साथ खड़े हो जाते हैं।

तड़पती नदी सरीखी

विकास की परछाई में लिखी कहानी का मर्म, पूरे परिवेश में अस्तित्व के घनत्व तक बिखरे अंधेरों से बाहर निकलने की जद्दोजहद करता है। कहानी कब नदी से बांध होती विशालता के बाहुपाश में पाठक को ले जाती है या बांझ होती इनसानी फितरत के मुहाने पर पटक देती है, यह एक यात्रा सरीखा अनुभव है। एसआर हरनोट की कहानियों की खूबी भी यही रहती है कि पाठक भी खुद को इसके भीतर गहरे से अनुभव करता है। वह कोसता है, खुद को मसोसता है, क्योंकि उसके सामने एक नदी ही नहीं तड़प रही होती, बल्कि न जाने समय और प्रकृति के कितने चक्र विरक्त होकर उसे तड़पाते हैं। औरत के भीतर नदी या नदी के भीतर औरत की असीमित शक्ति होते हुए भी ‘उसे’ अपनी गहराई में रहना है। कहानी को उपन्यास बनने से रोकने का गुनाह लेखक क्यों करता है या कहानी का कैनवास कोरोना काल की मजबूरी की मजदूरी तक कैसे पहुंच जाता है, इसे समझने के लिए पाठक को बांध के बीच से नदी होकर गुजरना पड़ेगा।

विस्थापन केवल इनसानी जज्बातों का तंबू नहीं, बल्कि विकास के आगे गिड़गिड़ाते पहाड़, पिघलते ग्लेशियर और रोती-बिलखती नदियों का कं्रदन भी है। कहानी अपने भीतर के संघर्ष में पर्वतीय जीवन की अमानत की रक्षा करना चाहती है, मगर परिवेश के आगोश में बैठे खंजर उसका पीछा करते हैं, ठीक उसी तरह जैसे सुनमा अपनी देह और घराट के बीच घूमते अरमानों को करीने से संवारना चाहती है। सुनमा के नजदीक हमेशा मुकदस लहरें उठती हैं, भले ही उसके भीतर की नदी को डुबोने के लिए समाज ने बांध खड़े कर दिए। बहरहाल कहानी भी नदी की तरह विश्राम नहीं करती और जीवन के रेगिस्तान को सींच देती है। विस्थापन भले ही मानवता के क्रूर कंधों पर सवार होकर विकास की हांक लगाता रहे, मगर इसके शाब्दिक अर्थ का विकास हर बार नई कहानी को जन्म देगा और फिर कहीं कोई हरनोट सरीखा लेखक तड़पती नदी को अपनी कहानी की अंजुरी में भर लेगा।

-निर्मल असो

पुस्तक समीक्षा: प्रदूषण मुक्त सांसों की उम्मीद

नजफगढ़, नई दिल्ली से संबंधित वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक योगेश कुमार गोयल की नई पुस्तक ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ उम्मीद जगाती है कि प्रदूषण से बुरी तरह प्रभावित हमारा देश एक दिन इससे मुक्त हो सकता है, अगर सभी सुधी नागरिक अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन पूरी निष्ठा से करें। राजनीतिक, समसामयिक, सामाजिक, पर्यावरण तथा अन्य महत्त्वपूर्ण विषयों पर विश्लेषणात्मक एवं सृजनात्मक लेख लिखने वाले योगेश अपनी नई पुस्तक में प्रदूषण से मुक्ति के लिए कुछ बहुमूल्य सुझाव लेकर आए हैं। विश्वभर में मंडरा रहे पर्यावरणीय खतरों को देखते हुए ही इस पुस्तक में वायु, जल एवं ध्वनि प्रदूषण, प्लास्टिक के बढ़ते खतरे, जल संकट, पेड़-पौधों की महत्ता, पतली पड़ती ओजोन परत, पिघलते ग्लेशियर, तबाही मचाती बाढ़, जंगलों में लगती भयानक आग, जैव विविधता पर मंडराते खतरे, माउंट एवरेस्ट जैसी दुर्गम बर्फीली चोटियों पर प्रदूषण के बढ़ते स्तर जैसे विषयों पर मंथन करते हुए पर्यावरण संरक्षण पर विस्तृत चर्चा करने और इन समस्याओं से निपटने के लिए कुछ उपाय सुझाने का प्रयास किया गया है। लेखक का सुझाव है कि पर्यावरण हितैषी ऊर्जा स्रोतों की ओर बढ़ने की जरूरत है। मीडिया केयर नेटवर्क, नजफगढ़ से प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य 260 रुपए है। आशा है कि इसे पढ़कर पाठक सचेत हो जाएंगे।

हिमाचल के बाल साहित्यकार और उनका लेखन

पवन चौहान

मो.-9418582242

-गतांक से आगे…

हिमाचल में ऐसे बहुत से वरिष्ठ साहित्यकार हैं जिन्होंने बालोपयोगी साहित्य को किसी न किसी विधा में रचा है। चाहे वे फिर बाद में बड़ों के साहित्य की ओर क्यों न मुड़ गए हों! वरिष्ठ साहित्यकार रामप्रसाद शर्मा ‘प्रसाद’ जी ने बाल साहित्य बहुतायत में लिखा है। इनकी मुख्य रुचि बाल कविता व कहानी लेखन में है। इनकी प्रकाशित बाल पुस्तकों में ‘अमृत कलश’ (काव्य संग्रह), ‘स्मृति कलश’ (लघु व प्रेरक कथाएं), ‘लंबी कविताए’ (बाल बावनी, बाल चालीसा, बाल पच्चीसी, बाल बत्तीसी की तर्ज पर) और ‘बोध कलश’ (बोध कथाएं) आदि प्रमुख हैं। नंदन की कहानी लेखन प्रतियोगिता में इनकी कहानी ‘जैसा अन्न वैसा मन’ पुरस्कृत हुई है। महर्षि गिरीधर योगेश्वर हिमाचल के एक जाने-माने साहित्यकार हैं। इनका बाल साहित्य में बाल कहानी में विशेष योगदान है। इनकी कई बाल रचनाएं इनके लेखन के शुरुआती दौर की पत्र-पत्रिकाओं में काफी मात्रा में प्रकाशित होती रही हैं। बाल साहित्य में इनकी केवल एक पुस्तक ‘आदर्श कथाएं’ ही प्रकाशित है जिसमें 29 कहानियां शामिल की गई हैं। यह कहानियां रोचकता और मनोरंजन के साथ पाठक को मानवता का पाठ पढ़ाती हैं। बाल साहित्य रचने वालों में एक अन्य नाम है डा. आर. वासुदेव प्रशांत। तीन बाल कथा संग्रह (शिला बोली, हार-जीत, सरदार की बेटी) प्रकाशित हैं। बाल साहित्य में इन्हें नागरी बाल साहित्य सम्मान, पंडित भूपनारायण दीक्षित बाल साहित्य सम्मान, हरदोई प्राप्त हो चुके हैं।

डा. सुशील कुमार फुल्ल प्रौढ़ साहित्य में विशेषकर कहानी विधा में एक चर्चित नाम हैं। वहीं बाल साहित्य में भी इन्होंने बाल उपन्यास, बाल कहानी और कविता में शानदार लेखन किया है। डा. फुल्ल के पांच बाल उपन्यास (टकराती लहरें, वापसी, ललकार, लाल मिट्टी की करामात, खुल जा सिमसिम), एक कहानी संग्रह (पुडि़या भी और गुडि़या भी) और एक कविता संग्रह (भारत के सेनानी) का प्रकाशन हुआ है तथा देश की चर्चित बाल पत्र-पत्रिकाओं में इनकी बाल रचनाओं का प्रकाशन होता रहा है। फुल्ल जी एक पत्रिका ‘रचना’ का संपादन भी करते हैं। हिमाचल से बाल साहित्य में एक अन्य नाम सैन्नी अशेष बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। सैन्नी जी ने कई नामों से लेखन किया है।

1975 से 2010 तक अशेष जी ने चंपक पत्रिका के लिए 2500 से ज्यादा कहानियां लिखीं जो हिंदी व अंग्रेजी सहित आठ भाषाओं में प्रकाशित हुईं। इसके अलावा पराग, नंदन, बालभारती, नन्हे तारे, लोटपोट, मेला, किलकारी आदि बाल पत्रिकाओं में सैकड़ों बाल कथाएं प्रकाशित हुई हैं। सैन्नी जी को सर्वश्रेष्ठ बाल साहित्य सम्मान दिल्ली में प्रसिद्ध साहित्यकार विष्णु प्रभाकर जी के हाथों से प्राप्त हुआ है। इनकी अन्य पुस्तकों के अलावा ‘अशेष बाल कथाएं’ और ‘हाथी दादा की कहानियां’ बाल कहानियों की चर्चित पुस्तकें हैं। सैन्नी जी वर्तमान में मनाली व लद्दाख के एक मिस्टिक संस्थान में मुफ्त वालंटियर हैं और जीवन संवाद शिविरों का आयोजन करते हैं जिनमें कवि, लेखक, यायावर, फिल्मकार व कलाकार पहुंचते हैं। जिला कांगड़ा के डा. प्रत्यूष गुलेरी जी वर्ष 1966 से बाल साहित्य लेखन मुख्यतः बाल कविता में निरंतर सक्रिय हैं। इनकी प्रकाशित पुस्तकों में ‘मेरी 57 बाल कविताएं’, नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित ‘आधी पूंछ वाला राक्षस’, ‘दादी की दिलेरी’ तथा ‘बाल गीत’ प्रमुख हैं। हिमाचली लोककथाओं में भी इनका विशेष कार्य है। बाल कहानियां भी प्रत्यूष जी लिखते हैं तथा कुछ पुस्तकों का संपादन भी इन्होंने किया है। बाल साहित्य में इनकी निरंतरता बाल साहित्य लेखन के प्रति सबको ऊर्जा देती है।

वरिष्ठ साहित्यकार डा. गौतम शर्मा ‘व्यथित’ जी का लोक साहित्य में विशेष कार्य है। प्रौढ़ साहित्य के साथ बाल साहित्य में व्यथित जी लिखते रहे हैं। उनकी अब तक की प्रकाशित 50 पुस्तकों में से बाल साहित्य की पुस्तकों में कविता संग्रह ‘शिक्षाप्रद बाल कविताएं’ और ‘चिडि़या कहां खो गई तू’ तथा ‘कागज का हंस’ (लोक कथा संग्रह), एक कहानी को संजोए पुस्तकें ‘राजकुमारी और तोता’, ‘जादू का तालाब’, ‘काठ का घोड़ा’ तथा नेशनल बुक ट्रस्ट से ‘तीन ठग’ प्रमुख हैं। डा. पीयूष गुलेरी जी ने जहां प्रौढ़ साहित्य की खूब रचना की, वहीं बाल साहित्य में भी इनकी कलम चली है। इनकी मृत्यु उपरांत वर्ष 2019 में एक कविता संग्रह ‘हमें बुलाती छुक-छुक रेल’ का प्रकाशन भी हुआ है। इन्होंने बाल साहित्य आदि अन्य विषयों की गद्य-पद्य विधा में भरपूर लेखन कार्य किया है।

हिमाचल के हमीरपुर से संबंध रखने वाले रतन चंद ‘रत्नेश’ जी की रुचि प्रौढ़ साहित्य (लघुकथा, कहानी, अनुवाद) के साथ बाल साहित्य में बाल गीत और बाल कहानी को लेकर है। बाल साहित्य लेखन में इनकी बराबर रुचि बनी हुई है। इनकी रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। इनका एक बाल गीत संग्रह ‘बचपन’ के नाम से है जो ई-बुक के रूप में उपलब्ध है। जिला मंडी के साहित्यकार मोतीलाल घई जी एक शिक्षार्थी रहे हैं।

इन्होंने साहित्य की हर विधा में लिखा है जिसमें बाल साहित्य भी प्रमुख रूप से शामिल रहा है। बाल साहित्य में कविता, कहानी बराबर लिखी जो देशभर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। किन्ही कारणों से इनकी किसी भी विधा में कोई किताब नहीं आ सकी है। यह बात बहुत दुःख देती है। डा. मनोहर लाल जी ने प्रौढ़ साहित्य में मौलिक लेखन के साथ शोध एवं आलोचना के साथ संपादन भी खूब किया। इन्होंने बाल साहित्य में भी अपनी कलम चलाई है जिसमें पुनर्कथन के रूप में उनकी पुस्तकें राजा भोज की कहानियां, खलील जिब्रान की कहानियां, शेख सादी की कहानियां, स्वामी दयानंद की कहानियां, महात्मा गांधी की कहानियां प्रमुख हैं। ‘जीने के सही ढंग’ इनकी प्रेरक बोध कथाओं की किताब है।


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