सोया हुआ देश

By: Aug 6th, 2020 12:05 am

सुरेश सेठ

sethsuresh25U@gmail.com

हमने सुना था एक दिन ऐसा भी आएगा जब हम जश्न मनाएंगे। आजकल पौराणिक ग्रंथों में से सब शब्दों के अर्थ ढूंढने का प्रयास होता है। जश्न का अर्थ बताओ, एक मसनद के साथ बड़े अमीर बैठे हैं। उनके पास छोटे अमीर उमरा बैठे हैं। तश्तरी पर पान की बीड़े, हुक्के की नेच एक मुंह से दूसरे मुंह में। सामने एक दो शीना सुंदर नर्तकी नाच रही है। मय के प्याले छलक रहे हैं। उधर मियां सोना पत्थरों की सेज पर और ऐसे सपने? सपने तो ऐसी सेजों पर ही देखे जाते हैं बंधु, मखमली गद्दों पर उन्हें नींद कहां आती है? वह कहानी नहीं सुनी क्या? कौन सी? एक राजकुमारी को मखमली गद्दों पर नींद नहीं आती थी। राजवैद्य ने सुझाया, उनके नीचे एक नहीं, दो नहीं, आठ मखमली गद्दे बिछा दो।

नींद दौड़ी चली आएगी। दूसरा बोला, इन पर नींद की दवा का इत्र छिड़क दो, नींद दौड़ी चली आएगी। लीजिए जनाब, गद्दे आ गए। नींद की दवा भी छिड़क दी गई। राजकुमारी को नींद फिर भी नहीं आई। क्या कारण है, क्या रोग है? अमीर उमरा एक-दूसरे से पूछने लगे, तभी एक सियाना सामने आया। कहने लगा ऐसे इस कोमल कली को नींद नहीं आएगी। आओ, इसका रहस्य तलाश करें। गद्दे उठवाए गए। एक दूसरे के बाद तीसरा गद्दा। आठों गद्दे उठ गए। सबसे निचले गद्दे के नीचे एक मटर का दाना पड़ा हुआ था। राजकुमारी को भला कैसे नींद आ जाती। आखिर ऐश्वर्य का आदी कोमल बदन। मटर की चुभन सह न सका।

सारी रात करवटें बदलते ही बीत गई। दूसरी ओर देश के फुटपाथों, झुग्गी-झोपडि़यों की टूटी छतों के आर-पार निकल जाते हैं। कहीं भी एक जागता हुआ बशर नहीं मिलता। सब घुक सोए हैं। नीचे पत्थरों की सेज चुभ रही है, कोई परवाह नहीं। ऊपर टूटी छत है तो उसमें से धारसार पानी बरस रहे हैं, कोई परवाह नहीं। बरसों पहले किसी ने आधी रात के गज़र के साथ स्वाधीनता की घोषणा करते हुए कहा था, ‘लो सुबह हो गई। अब तुम्हारी जि़ंदगी से सब अंधेरे छंट गए। प्रभात की रोशनी तुम्हें नहला देगी।’ वे इंतज़ार कर रहे हैं। इस बीच 33 करोड़ से एक सौ तीस करोड़ हो गए। रात की रानी उनसे रूप बदल-बदल कर आंख-मिचौली खेलती रही। कभी कहती धन और धरती बंट के रहेगी। समाजवाद आएगा, सबके लिए रोटी लाएगा। कभी किसी सदाबहार शायर की लय में कह जाती, ‘जिस खेत से दहकां के मयस्सर न हों रोटी, उस खेत के हर गोशाये गंदम को जला दो।’

लीजिये रोटी भरपेट तो मयस्सर नहीं हुई। बारह माह हाड़ तोड़ने के बाद अब किसान मजदूर गलबहियां डाल कर पत्थरों  की सेज बनाए हैं। आज गहरी नींद सो रहे हैं। किसी क्रांतिनाद पर नहीं जागते। परंतु साहब ऐसी मौतों को कौन गिनता है। सब बदहज़मी से मरे खाते में जाएगी। उधर राजकुमारी को नींद नहीं आई, क्या उसके गद्दों के नीचे वे मटरों के दाने से मजदूर अवसाद ग्रस्त हो कर सो रहे थे, कि अब मरेंगे तभी उठेंगे। और वह राजकुमारी व्यर्थ डर रही थी कि कहीं यह मजदूर उठ गए तो उसका क्या होगा? राजकुमारी का डर लगाना। उधर मजदूरों की नींद को और गहरा करने के लिए महासामंतों ने मजदूरों को बता दिया कि नई रौशनी तुम्हारे अंधेरे दरीचों से झांकेगी, हम इन बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं वालों का काला धन नामंजर कर रहे हैं।


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