विभाजन के बाहुपाश से आजाद होती राहें: डा. चंद्र त्रिखा, वरिष्ठ साहित्यकार-पत्रकार

By: डा. चंद्र त्रिखावरिष्ठ साहित्यकार-पत्रकार Aug 15th, 2020 12:06 am

डा. चंद्र त्रिखा

वरिष्ठ साहित्यकार-पत्रकार

अब इतिहासज्ञ व विशेषज्ञ इस बात को स्वीकारते हैं कि यदि थोड़ी सावधानी और सजगता से काम लिया जाता तो विभाजन की अकल्पनीय विभीषिका से बचा जा सकता था। ऐसे अनेक मंज़र सामने आए जबकि किसी एक गांव को बीच में से बांटना पड़ा। एक गांव का कुछ भाग पाकिस्तान को मिला, शेष हिंदुस्तान को। रैडक्लिफ घनी आबादी वाले क्षेत्रों के बीच विभाजक रेखा के हक में था। मगर इससे कई ऐसे घर भी बंटे जिनके कुछ कमरे भारत में गए, कुछ पाकिस्तान में। रैडक्लिफ बार-बार एक ही दलील देते ‘हम कुछ भी कर लें लोग बर्बादी तो झेलेंगे ही।’ रैडक्लिफ ने ऐसा क्यों कहा, यह शायद स्पष्ट नहीं हो पाएगा, क्योंकि भारत छोड़ने से पहले उसने सारे नोट्स (अंतिम रपट के अलावा) नष्ट कर दिए थे ताकि बाद में विवादों के मुद्दे न उठें…

ये हादसों के दिन थे। पूरे घटनाक्रम की कमोबेश हर घटना हादसों की मानिंद घट रही थी। चारों तरफ विसंगतियां, विरोधाभास भरे पड़े थे। यह एक ऐतिहासिक विरोधाभास था कि जिस तारीख को पाकिस्तान अस्तित्व में आया, इस दिन तक उस देश की सीमाएं तय नहीं हो पाई थीं। लगभग साढे़ चार लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को लगभग आठ करोड़ लोेगों के लिए आबंटित किया जाना था। स्वतंत्र पाकिस्तान 14 अगस्त को अस्तित्व में आ गया था। 15 अगस्त को लाल किले पर तिरंगा ़फहरा। मगर दोनों देशों के बीच सीमा रेखा एक दिन बाद 16 अगस्त को ही खींची जा सकी। यानी आज़ादी पहले मिल गई, सीमाएं बाद में तय हुईं। इन सीमा रेखाओं की निशानदेही जिस सीमा आयोग ने की, उसके अध्यक्ष एक आर्किटैक्ट सर सिरिल रैडक्लिफ थे। यह भी शायद उस काल की सबसे बड़ी विसंगति थी कि एक ऐसे शख्स को इस ऐतिहासिक निशानदेही का काम सौंपा गया जो इससे पहले एक पर्यटक के रूप में भी कभी भारत नहीं आया था। उसने यहां की संस्कृति, भूगोल, धर्म, जातियों के बारे में जो कुछ भी जाना, यहां आकर जाना।

नए भारत का गठन विशाल हिंदू बहुमत के बावजूद एक धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में ही हुआ था, जबकि पाकिस्तान एक ‘मुस्लिम होमलैंड’ के रूप में अस्तित्व में आया था। सिंध प्रांत में 72.7 प्रतिशत आबादी मुस्लिम समुदाय से थी। बलूचिस्तान में 91.8 प्रतिशत लोग इसी समुदाय से थे। इन दोनों को सीधे रूप में पाकिस्तान को देने में कोई कठिनाई नहीं आई। दूसरी ओर उत्तर-पूर्व में बंगाल का संकट था, जहां मुस्लिम समुदाय का प्रतिशत 54.4 था और उत्तर पश्चिमी भाग में पंजाब का संकट था, जहां मुस्लिम आबादी 55.7 प्रतिशत थी। आखिर रेखाएं खींच दी गई। पंजाब के पश्चिमी भाग को पश्चिमी पंजाब का नाम दे दिया गया और पूर्वी भाग पर पूर्वी पंजाब के नाम की पर्ची चस्पां कर दी गई। पश्चिमी पंजाब पाकिस्तान को मिला, पूर्वी पंजाब भारत को। यही बंगाल में हुआ। पूर्वी बंगाल पाकिस्तान को दे दिया गया, जबकि पश्चिमी बंगाल भारत के खाते में दर्ज कर दिया गया। ‘नार्थ वैस्ट फ्रंटियर प्राविंस’ जिसे पख्तूनिस्तान भी कहा जाता था, ने एक विवादास्पद जनमत संग्रह के ज़रिए पाकिस्तान में मिलने की इच्छा जताई। इस जनमत संग्रह में पख्तून आंदोलन से जुड़े कबीलों व लोगों ने कोई शिरकत नहीं की थी। वैसे जनमत संग्रह में भी पाक-समर्थकों को स्पष्ट या भारी बहुमत नहीं मिल पाया।

पंजाब में मसला बेहद पेचीदा था। जनसंख्या का अनुपात लगभग हर जगह मिला-जुला था। कहीं भी सीधी विभाजक रेखा खींचना मुश्किल था। कोई भी रेखा, सड़क तंत्र, रेल तंत्र, संचार तंत्र, सिंचाई तंत्र और बिजली तंत्र को तहस-नहस किए बिना, मुमकिन नहीं था। खेतों की स्थिति भी यही थी। मगर दलीलों, सामान्य बुद्धि और तकनीकी एवं ऐतिहासिक व भौगोलिक मजबूरियों को एक तऱफ हाशिए पर सरका दिया गया। बस विभाजन रेखाएं खींच दी गईं। इस सारी कवायद के लिए दो सीमा आयोग गठित हुए थे। एक बंगाल के लिए और दूसरा पंजाब के लिए। दोनों का ही अध्यक्ष सर सिरिल रैडक्लि़फ को बनाया गया। रैडक्लिफ 8 जुलाई, 1947 को पहली बार भारत पहुंचे थे। उन्हें अपने समूचे कार्य के लिए 5 सप्ताह का नपा तुला समय दिया गया। दोनों आयोगों में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के दो-दो प्रतिनिधि शामिल थे। लेकिन किसी नुक्ते पर दोनों पक्षों के बीच मतभेद की स्थिति में अंतिम फैसला रैडक्लिफ का होता था।

 रैडक्लिफ को समय बेहद नाका़फी लग रहा था। मगर इस बारे में वायसराय, कांग्रेस व मुस्लिम लीग के नेता अडिग थे। वे समय सीमा को बढ़ाने के कतई पक्ष में नहीं थे। इस आयोग में रैडक्लिफ के अलावा शेष सभी सदस्य पेशे से वकील थे। जिन्नाह व नेहरू का संबंध भी वकालत से ही था। किसी भी सदस्य के पास ऐसा कोई अनुभव नहीं था। कोई भी नहीं जानता था कि विभाजन सीमा कैसे तैयार होती है। रैडक्लिफ को सिर्फ इस बात की संतुष्टि थी कि उनका प्राइवेट सेक्रेटरी क्रिस्टोफर ब्यूमैंट पंजाब की हर स्थिति से पूरी तरह वाकि़फ था। पंजाब की प्रशासनिक व्यवस्था व वहां की ज़िंदगी के बारे में लगभग पूरी जानकारी उसे थी। एक सुझाव यह भी आया कि इसमें यूएनओ से कुछ विशेषज्ञ ले लिए जाएं। मगर यह सुझाव इसलिए नहीं माना गया क्योंकि विशेषज्ञों द्वारा मीनमेख निकालने, भाषा-संस्कृति, भू-संपत्ति, जनसंख्या, संसाधन आदि के पूरे अध्ययन के पचड़े में पड़ने की आशंका थी। वायसराय व आयोग के अन्य सदस्य ऐसी किसी भी कवायद के खिलाफ थे जिसमें देरी की आशंका हो।सिख आबादी का भी मसला संवेदनशील था। आयोग के एक सदस्य लार्ड इसले की राय थी कि सिखों ने ब्रिटिश फौज़ में बेहद महत्त्वपूर्ण सेवाएं दी हैं, इसलिए यथासंभव उनकी आबादी में विभाजन की नौबत न आए। सिख-प्रतिनिधियों व नेताओं ने भी स्पष्ट कर दिया था कि उन्हें मुस्लिम आधिपत्य वाले इलाके से किसी भी सूरत में न जोड़ा जाए। उनमें से कुछ स्वतंत्र सिख होमलैंड की बात भी उठा रहे थे।

उधर, बंगाल सीमा आयोग के सामने यह भी सवाल उठा था कि कलकत्ता किसे मिले, भारत को या पाकिस्तान को? बंगाल में ही चिटागांग पहाडि़यों के बौद्ध कबीले कुछ भी फैसला नहीं ले पा रहे थे। अब इतिहासज्ञ व विशेषज्ञ इस बात को स्वीकारते हैं कि यदि थोड़ी सावधानी और सजगता से काम लिया जाता तो विभाजन की अकल्पनीय विभीषिका से बचा जा सकता था। ऐसे अनेक मंज़र सामने आए जबकि किसी एक गांव को बीच में से बांटना पड़ा। एक गांव का कुछ भाग पाकिस्तान को मिला, शेष हिंदुस्तान को। रैडक्लिफ घनी आबादी वाले क्षेत्रों के बीच विभाजक रेखा के हक में था। मगर इससे कई ऐसे घर भी बंटे जिनके कुछ कमरे भारत में गए, कुछ पाकिस्तान में। रैडक्लिफ बार-बार एक ही दलील देते ‘हम कुछ भी कर लें लोग बर्बादी तो झेलेंगे ही।’ रैडक्लिफ ने ऐसा क्यों कहा, यह शायद स्पष्ट नहीं हो पाएगा, क्योंकि भारत छोड़ने से पहले उसने सारे नोट्स (अंतिम रपट के अलावा) नष्ट कर दिए थे ताकि बाद में विवादों के मुद्दे न उठें। वैसे भी उसे भारत की आबोहवा रास नहीं आ रही थी। वह जल्दी से जल्दी स्वदेश लौटना चाहता था। समूची विभाजक कार्यवाही यथासंभव गुप्त रखी गई। अंतिम रपट (अवार्ड) 9 अगस्त, 1947 को तैयार हो गई थी, मगर उसे विभाजन से दो दिन बाद ही सार्वजनिक किया गया।

वैसे अब इस बात के प्रमाण मिले हैं कि रिपोर्ट के कुछ महत्त्वपूर्ण अंश नेहरू व पटेल को 9 अगस्त को ही बता दिए गए। कुछ सूचनाएं स्वयं लार्ड माउंटबेटन ने दी थी। कुछ उन्हें रैडक्लिफ के एक भारतीय सह सचिव ने दी थी। एक बात बाद में बदली गई। सतलुज नहर का पूर्वी भाग पाकिस्तान के बजाय भारत को दिया गया, हालांकि उस क्षेत्र में दो तहसीलें मुस्लिम बहुल जनसंख्या वाली थीं। चर्चित लेखिका आयशा जलाल ने अपनी एक पुस्तक ‘दी सोल स्पोक्समैन ः जिन्नाह’ में इस बात का खुलासा भी किया है कि जिन्नाह ने ‘मुस्लिम फैक्टर’ का प्रयोग मज़हबी कारणों से कम और सियासी कारणों से ज़्यादा किया था। दरअसल मुस्लिम लीग, कभी कट्टर धार्मिक पार्टी थी ही नहीं। ‘मिल्लत’ के लोग वैसे भी जिन्नाह व लियाकत में ज़्यादा भरोसा नहीं रखते थे। इसलिए बंटवारे से जुड़ी बातों पर उनकी पैनी व कड़ी नजर बराबर बनी हुई थी। रैडक्लिफ की उम्र उस समय सिर्फ 48 वर्ष थी। 8 जुलाई, 1947 से लेकर 9 अगस्त तक उसने किसी भी सामाजिक समारोह या गतिविधि में शिरकत नहीं की। वह सिर्फ अपने काम में ही व्यस्त रहता। थोड़ी सी अवधि में बहुत बड़े काम को अंजाम देना आसान नहीं था। यह काम कितना टेढ़ा था, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि शुरुआती दौर में माउंटबेटन ने यह काम यूएनओ को सौंपने का मन बना लिया था। मगर बाद में पंजाब व बंगाल के लिए दो सीमा आयोगों को बेहतर विकल्प माना गया।

ज्यादातर मुसलमान तब भी यही मानते थे कि पाकिस्तान बनने के बाद भी हिंदुस्तान में आने-जाने की सहूलियत कायम रहेगी। अनेक समृद्ध मुसलमानों ने अपनी कई संपत्तियां बंबई व दिल्ली में बदस्तूर बनाए रखीं। जिन्नाह ने मालाबार हिल बंबई (अब मुंबई) स्थित अपनी कोठी बेची नहीं थी, हालांकि दिल्ली वाली कोठी उन्होंने बेच दी थी। बंबई से जिन्नाह अनेक मामलों में जुड़े हुए थे। इनमें से एक कारण, रत्ती की स्मृतियां भी थीं। रैडक्लिफ व्यावहारिक मामलों में कोरा था। अपनी नियुक्ति से पहले उसने वेतन-भत्तों, परिवार-खर्च, निःशुल्क यात्रा, निःशुल्क रहन-सहन जैसी छोटी-छोटी शर्तें भी अपनी सरकार से लिखित में मनवाईं। ज़ाहिर है वह न तो राजनीतिज्ञ था, न ब्यूरोक्रेट। उसकी नियुक्ति उसकी पेशेवराना योग्यताओं के मद्देनज़र ही हुई थी। मगर उसके महत्त्व का अंदाज़ा सबको तब लगा जब कांग्रेस व मुस्लिम लीग के शिखर नेताओं को अपना-अपना मांग पत्र उसे देने के लिए स्वयं जाना पड़ा। उसे एक पंजाबी अंगरक्षक दिया गया जो सदा कमर में दो पिस्तौलें रखता था। उसके एक हाथ में बंदूक होती थी मगर वह पुलिस यूनि़फार्म में नहीं होता था। वह छाया की तरह रैडक्लिफ के साथ चिपका रहता।

रैडक्लिफ को अपने काम के लिए दो बातों से मदद मिली। फरवरी 1946 में तत्कालीन वायसराय लार्ड वेवल एक ऐसी ही कवायद कर चुके थे। इस कवायद में वेवल उन दिनों भी सक्रिय रहे ‘रिफार्म्स-कमिश्नर’ वीपी मेनन और एक अन्य संविधान विशेषज्ञ सर बेनेगल राऊ पर आश्रित थे। कमोबेश रैडक्लिफ ने वेवल के दस्तावेज़ों को ही आधार बनाया। मोटे तौर पर सिर्फ गुरदासपुर के बारे में बदलाव आया। वह ज़िला पहले पाकिस्तान के हिस्से में दर्ज किया गया था। रैडक्लिफ का दूसरा मुख्य आधार था ‘कांटिन्युटी’ अर्थात् निरंतरता। यथासंभव इस बात का ध्यान रखा गया कि गांव या कस्बे दूसरे क्षेत्रों में मज़हबी आधार पर बिल्कुल अलग न हों। मगर यह मुमकिन न हो सका। बाद में निरंतरता बनाए रखने के लिए कुछ गांवों व कस्बों को बीच में से बांटना पड़ा। रैडक्लि़फ 17 अगस्त को ही वापस लौट गया। वह जानता था, बहुत सी दुखद घटनाओं के लिए उसे ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा। स्वदेश वापसी पर उसे ‘लॉ-लार्ड’ का पद दिया गया। रैडक्लिफ के करीबी लोगों के अनुसार विभाजन के रक्तपात की खबरों से वह बेहद तनाव में से गुज़रता रहा। मगर उसे सरकारी एवं राजकीय सम्मान मिलते रहे। 1977 में एक ‘विस्काउंट’ के रूप में उसने आखिरी सांस ली। उसे शायद जीते जी इस बात का एहसास नहीं था कि सिर्फ छह सप्ताहों की नौकरी उसे भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण पृष्ठ दे डालेगी।


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