अपना वजूद तलाशती होम्योपैथी

By: Sep 5th, 2020 12:18 am

होम्योपैथी चिकित्सा पद्धति की शुरुआत 1796 में डा. सैम्युल हैनिमन द्वारा जर्मनी से हुई। डा. सैम्युल हैनिमन एक एलोपैथिक चिकित्सक थे, जो अपनी चिकित्सा प्रणाली के दुष्प्रभावों की वजह से इस प्रणाली से असंतुष्ट थे। इसी कारण इन दुष्प्रभावों को खत्म करने के लिए उन्होंने कई वर्षों के शोध के बाद होम्योपैथिक चिकित्सा प्रणाली की खोज की और इसका विकास किया। होम्योपैथी अपने आप में एक पूर्ण चिकित्सा प्रणाली है, जो कि सरल, सुरक्षित एवं असरकारक है। इन्हीं गुणों के कारण होम्योपैथी न केवल भविष्य की चिकित्सा प्रणाली है, बल्कि रोगों कि रोकथाम में भी असरकारक है। विश्व स्वस्थ्य संगठन के अनुसार एलोपैथी के बाद होम्योपैथी विश्व की दूसरी सबसे बड़ी चिकित्सा प्रणाली है। आज होम्योपैथी जहां विश्व स्तर पर प्रचलित है, वहीं भारत इसमें भी अग्रणी देश बना हुआ है। भारत में होम्योपैथिक चिकित्सकों एवं होम्योपैथी पर विश्वास करने वाले वर्ग की तादाद में बढ़ोतरी हो रही है। लगभग वर्ष 1977 में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा हैल्थ फॉर ऑल का नारा दिया गया।

इसमें हर देशवासी को समान रूप से स्वास्थ्य संसाधनों के साथ-साथ जरूरी स्वास्थ्य सुरक्षा घर द्वार पर मुहैया करवाने का लक्ष्य था। वर्ष 2005  में भारत में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन शुरू किया गया। इसके तहत ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं के सुदृढ़ीकरण के लिए आधुनिक चिकित्सा प्रणाली (एलोपैथी)के साथ-साथ वैकल्पिक चिकित्सा प्रणालियों को भी सम्मिलित किया गया। इन चिकित्सा प्रणालियों को आयुष का नाम दिया गया। आयुर्वेद, योग, यूनानी, सिद्धा, होम्योपैथी, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में आयुष चिकित्सा प्रणालियों को मुख्य धारा से जोड़ने पर बल दिया गया और सभी प्राथमिक, सामुदायिक एवं जिला अस्पतालों में इन प्रणालियों के चिकित्सकों को एक छत के नीचे बिठाने का प्रावधान है ताकि मरीज को हर तरह की स्वास्थ्य सुविधा मिल सके एवं देश में सभी स्वास्थ्य संसाधनों को सुदृढ़ किया जा सके।

                        – डा. अवनीश कुमार, सोलन


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