लोकतंत्र बनाम तानाशाही: डा. भरत झुनझुनवाला, आर्थिक विश्लेषक

By: डा. भरत झुनझुनवाला, आर्थिक विश्लेषक Sep 15th, 2020 8:08 pm

भरत झुनझुनवाला

आर्थिक विश्लेषक

इस परिप्रेक्ष्य में लोकतंत्र और तानाशाही दोनों में संकट दिखता है। लोकतंत्र में घरेलू खुलापन मिलता है जो कि मानव सभ्यता के लिए लाभप्रद होता है, लेकिन साथ में निश्चित रूप में दूसरे देशों का शोषण होता है। इसके विपरीत तानाशाही दोनों तरह से चलती है ः विकास एवं हृस। तानाशाही में देश का विकास हो सकता है जैसा कि स्टालिन के समय रूस अथवा वर्तमान में चीन में हम देख रहे हैं। चीन लोकतंत्र को कुचल कर आज विश्व की नंबर दो अर्थव्यवस्था बन गया है। निश्चित रूप से आर्थिक विकास हुआ है। इसके विपरीत तानाशाही में हृस के भी तमाम उदाहरण मिलते हैं जैसे शाही रूस में। अतः निष्कर्ष निकलता है कि लोकतंत्र निश्चित रूप से शोषण पर आधारित है, जबकि तानाशाही में दोनों संभावनाएं बनती हैं…

इस समय चीन की तानाशाही के विरुद्ध संपूर्ण विश्व लामबंद होता दिख रहा है। चीन के द्वारा हांगकांग में लोकतंत्र को कुचला जा रहा है। आज से लगभग 30 वर्ष पूर्व चीन  ने त्यानमन स्क्वेयर में भी लोकतांत्रिक आवाज को बेरहमी से कुचला था। इसमें कोई संशय नहीं है कि पश्चिमी देशों द्वारा लोकतंत्र को अपनाए जाने से मानव विकास को भारी गति मिली है। लोकतंत्र में हर नागरिक को खुलापन मिलता है और वह अपनी सृजनात्मक शक्ति का उपयोग कर सकता है, जैसे जेम्स वाट द्वारा स्टीम इंजन को बनाया जाना अथवा बिल गेट्स द्वारा विंडोस साफ्ट वेयर को बनाया जाना। इसी क्रम में हम देखते हैं कि अमरीकी लोकतंत्र ने पिछली शताब्दी में एटम बम, जेट इंजन, इंटरनेट जैसे आविष्कार किए क्योंकि उसने अपने नागरिकों को लोकतांत्रिक खुलापन उपलब्ध कराया। सच है कि रूस और चीन द्वारा भी तमाम आधुनिक उपकरण बनाए गए हैं, लेकिन मूल रूप से नया सृजन तो लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत ही हुआ है। रूस और चीन ने मुख्यतः पश्चिमी देशों द्वारा किए गए आविष्कारों की नकल करने में सफलता मात्र हासिल की है। साथ-साथ यह भी देखा जाता है कि लंबे समय तक लोकतांत्रिक व्यवस्था तभी सफल होती है जब वह दूसरे देशों का शोषण करे। वर्तमान युग में लोकतंत्र की शुरुआत यूनान में आज से लगभग 2500 वर्ष पूर्व हुई थी।

यूनान के लोगों ने लोहे का आविष्कार किया था। उन्होंने लोहे के अस्त्रों के बल पर अपने पड़ोसियों को लूटा और उस लूट से मिली समृद्धि के बल पर वे लोग लंबी-लंबी लोकतांत्रिक चर्चाएं करने का आर्थिक बोझ वहन कर सके थे। उनके लिए लंबे समय तक चर्चा में लगे रहना इसलिए संभव था क्योंकि उनके पास लूट की रकम उपलब्ध थी जिससे भोजन इत्यादि आसानी से मिल जाता था। लेकिन शीघ्र ही लूटने लायक पड़ोसी लोग नहीं बचे, लूट की रकम उपलब्ध नहीं हुई और लंबी लोकतांत्रिक चर्चाएं स्वतः ध्वस्त हो गईं। यूनान का लोकतंत्र समाप्त हो गया। इसके बाद रोम में लोकतंत्र का उदय हुआ। उन लोगों ने घुड़सवार को लोहे के कवच उपलब्ध कराए और इस अस्त्र के बल पर उन्होंने बड़े क्षेत्र में दूसरों को लूटा।

पुनः लूट से लाई रकम से उन लोगों ने अपने देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू की। जैसे ही लूटने के लिए दूसरे देश उपलब्ध नहीं रहे, रोम का लोकतंत्र टुकड़े-टुकड़े हो गया। लोकतंत्र का उदय पुनः मध्य युग में हुआ। यह वही समय है जब इंगलैंड ने भारत जैसे तमाम देशों को अपना उपनिवेश बना लिया था। इंगलैंड में बना महंगा माल उपनिवेशों को बेच कर एवं उपनिवेशों के घरेलू उद्योगों को नष्ट कर इंगलैंड ने भारी समृद्धि हासिल की थी। आज से 200 वर्ष पूर्व विश्व की आय में भारत का हिस्सा लगभग 23 प्रतिशत था जो इंगलैंड के शासन के अंत में यानी 1947 में घटकर मात्र दो प्रतिशत रह गया था। इससे स्पष्ट होता है कि इंगलैंड में जिस समय लोकतंत्र का सूर्योदय हुआ था, उसी समय भारत में गरीबी का भारी विस्तार हुआ था। हमारी गरीबी से जनित इस समृद्धि के बल पर इंगलैंड ने अपने श्रमिकों को राहत पहुंचाई जैसे फैक्टरी एक्ट लागू किया और लोकतंत्र को संभालकर रखा।

इंगलैंड की परिस्थिति का विवरण हमें मार्क्स के सहयोगी एंगल्स के उस वाक्य में मिलता है जो उन्होंने रूसी कम्युनिस्ट कौत्स्की को लिखे एक पत्र में लिखा था। एंगल्स ने लिखा कि ‘इंगलैंड के श्रमिक इंगलैंड के विश्व बाजार पर एकाधिकार के भोज का आनंद उठा रहे हैं।’ यानी इंगलैंड के श्रमिक शोषित नहीं बल्कि अपनी लोकतांत्रिक सरकार द्वारा भारत जैसे दूसरे देशों के शोषण से अर्जित रकम में अपना हिस्सा पाकर प्रसन्न थे। इंगलैंड के नेताओं और श्रमिकों ने आपसी मेलजोल से उपनिवेशों को लूटा और उन उपनिवेशों से मिली रकम के आधार पर अपने लोकतंत्र को पोसा। आधुनिक समय में अमरीका ने अफ्रीका से दासों को लाकर समृद्धि हासिल की और इराक जैसे देशों पर आक्रमण कर उनके संसाधनों को हासिल किया।

विश्व व्यापार संगठन में पेटेंट एक्ट को जोड़कर तमाम गरीब देशों को महंगी तकनीकें बेच कर अपनी समृद्धि बनाई, इत्यादि। इस लूट के बल पर वहां लोकतंत्र चल रहा है। संभवतः भारत में बौद्ध काल में लोकतंत्र के ज्यादा समय तक न टिक पाने का यही कारण था कि हम दूसरे देशों की लूट नहीं करते थे। अतः हम देखते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं 100-200 वर्ष से अधिक नहीं चली हैं। जब तक वे चली हैं, उनका आधार दूसरे देशों का शोषण था। यानी समृद्ध देशों में लोकतंत्र और गरीब देशों की गरीबी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

ऐसे में गरीब देशों द्वारा लोकतंत्र को अपनाना सफल नहीं हो रहा है जैसा कि फिलिपीन्स के फर्डिनान्द मार्कोस, यूगांडा के इदि अमीन और वर्तमान में बेलेरूस में लुशिनको जैसे तमाम शासक हुए हैं जो कि लोकतंत्र के आडंबर तले अपने लोगों का शोषण कर रहे हैं। लेकिन जिस प्रकार इंगलैंड के वायसराय ने कुछ लोगों को राय बहादुर की उपाधि देकर उन्हें अपने पक्ष में किया था, उसी प्रकार अमरीका भारत जैसे देशों के तमाम नेताओं को अपने पक्ष में कर रहा है। इन देशों में लोकतंत्र का वास्तविक चरित्र सिर्फ इतना हो गया है कि अमीर देशों द्वारा किए जा रहे शोषण को लोकतंत्र की चादर के पीछे छुपा दिया जाए। इस परिप्रेक्ष्य में लोकतंत्र और तानाशाही दोनों में संकट दिखता है। लोकतंत्र में घरेलू खुलापन मिलता है जो कि मानव सभ्यता के लिए लाभप्रद होता है, लेकिन साथ में निश्चित रूप में दूसरे देशों का शोषण होता है। इसके विपरीत तानाशाही दोनों तरह से चलती है ः विकास एवं हृस।

तानाशाही में देश का विकास हो सकता है जैसा कि स्टालिन के समय रूस अथवा वर्तमान में चीन में हम देख रहे हैं। चीन लोकतंत्र को कुचल कर आज विश्व की नंबर दो अर्थव्यवस्था बन गया है। निश्चित रूप से आर्थिक विकास हुआ है। इसके विपरीत तानाशाही में हृस के भी तमाम उदाहरण मिलते हैं जैसे शाही रूस में। अतः निष्कर्ष निकलता है कि लोकतंत्र निश्चित रूप से शोषण पर आधारित है, जबकि तानाशाही में दोनों संभावनाएं बनती हैं। दूसरी तरफ  लोकतंत्र के खुलेपन से मानव सभ्यता का विकास होता है, जबकि तानाशाही में ऐसे विकास के प्रमाण अब तक कम ही मिले हैं। हमें चाहिए कि हम इस पर विचार करें कि हम लोकतंत्र के खुलेपन के साथ दूसरे देशों के शोषण से विरत कैसे हों? यदि हम यह फार्मूला नहीं निकाल सकते हैं तो हम लोकतंत्र को अपना कर सफल नहीं होंगे।

ई-मेलः bharatjj@gmail.com


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