संघर्ष में तपकर साहित्य राजनीति का उद्धार किया

By: जयदीप रिहान, पालमपुर Sep 6th, 2020 12:05 am

राजनेता के साथ-साथ शांता कुमार हिंदी के प्रतिष्ठित लेखक भी हैं। राजनीतिक व्यस्तता व संघर्षशील जीवन रहते हुए भी उन्होंने हिंदी साहित्य को विभिन्न विषयों पर अब तक एक दर्जन से अधिक पुस्तकें दी हैं। उनकी पहली पुस्तक 1962 में प्रकाशित हुई थी। शांता कुमार ने क्रांति इतिहास पर ‘धरती है बलिदान की’, चीनी आक्रमण की पृष्ठभूमि में भारत की सुरक्षा पर ‘हिमालय की लाल छाया’, स्वामी विवेकानंद के जीवनचरित्र पर ‘विश्व विजेता विवेकानंद’, जेल यात्राओं के विवरण पर ‘दीवार के उस पार’, मुख्यमंत्री काल के संस्मरण ‘राजनीति की शतरंज’, वैचारिक साहित्य पर ‘बदलता युग बदलते चिंतन’ व निबंध ‘क्रांति अभी अधूरी है’ पुस्तकें लिखी हैं।

इसके साथ ही शांता कुमार के ‘लाजो’, ‘मन के मीत’ और ‘कैदी’ उपन्यास प्रकाशित हुए हैं। वहीं कविता संग्रह ‘ओ प्रवासी मीत मेरे’ तथा कहानी संग्रह ‘ज्योतिर्मयी’ भी प्रकाशित हो चुके हैं। शांता कुमार की सभी रचनाओं का एक संयुक्त संग्रह ‘समग्र साहित्य’ के नाम से तीन खंडों में प्रकाशित हुआ है। देश को अंत्योदय अन्न योजना देने वाले और प्रदेश में पानी वाले मुख्यमंत्री के नाम से पहचाने जाने वाले भाजपा के दिग्गज नेता शांता कुमार ने पांच दशक से अधिक की राजनीतिक पारी खेली है। उनका जन्म 12 सितंबर 1934 को हुआ था। 1964 में 30 साल की उम्र में अपनी पैतृक पंचायत गढ़ के पंच पद से सफर शुरू करने वाले शांता कुमार देश के इतिहास के एकमात्र राजनेता हैं जो एक ही समय में लोकसभा के सदस्य भी थे और दो विधानसभा क्षेत्रों से विधायक भी निर्वाचित हुए थे। शांता कुमार 1989 के चुनावों में कांगड़ा संसदीय क्षेत्र से सांसद चुने गए थे और 1990 में हुए प्रदेश के चुनावों में पालमपुर और सुलह विस क्षेत्र से विजयी हुए थे। प्रदेश में भाजपा के सूत्रधार शांता कुमार 1990 में दूसरी बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और उनके नेतृत्व में हिमाचल देश का पहला राज्य बना जिसने पनबिजली को निजी क्षेत्र में लाने का साहसिक काम किया। दो बार प्रदेश के मुख्यमंत्री और एक बार केंद्रीय मंत्री का दायित्व निभा चुके शांता कुमार ने पंच से लेकर सर्वोच्च सदन तक का सफर तय किया है। पंचायत के पंच बनने के बाद शांता कुमार कांगड़ा जिला परिषद के उपाध्यक्ष और अध्यक्ष भी रहे। इसके बाद विधायक, दो बार प्रदेश के मुख्यमंत्री, लोकसभा के सांसद, केंद्रीय मंत्री और राज्यसभा के सांसद चुने गए। प्रदेश के पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री बनने का गौरव प्राप्त करने वाले शांता कुमार एक प्रख्यात लेखक भी हैं। शांता कुमार पहले ऐसे राजनेता हैं जिनके जीवन पर हिमाचल की एक महिला सुषमा विज ने शोध किया है। उनके शोध ग्रंथ ‘शांता कुमार-व्यक्तित्व और कृतित्व’ पर विज को गढ़वाल विवि से पीएचडी की डिग्री प्राप्त हुई है। भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता व साहित्यकार शांता कुमार के विभिन्न समाचारपत्रों में प्रकाशित लेखों का संग्रह ‘अलविदा चुनावी राजनीति’ भी है। छह दशक की सक्रिय  राजनीति के बाद चुनावी राजनीति को सम्मानजनक ढंग से अलविदा कह कर शांता कुमार ने राजनीति में स्वस्थ  परंपरा का आगाज किया है। संग्रह के पहले लेख ‘अलविदा चुनावी राजनीति’ के शीर्षक के आधार पर ही पुस्तक का शीर्षक रखा गया है। इस लेख में लेखक ने चुनावी राजनीति से विदाई के एहसास को पाठकों से साझा किया है। शांता कुमार कहते हैं कि उनके लिए चुनावी राजनीति की विदाई एक उत्सव है। बकौल शांता कुमार अपने राजनीतिक जीवन में देश की विकट समस्याओं को करीब से महसूस कर उनके निदान के लिए समय-समय पर राह सुझाई है। शांता कुमार वर्षों से बढ़ती आबादी के प्रकोप से अपने लेखों के माध्यम से पाठकों को सचेत करते रहे हैं। संग्रह के संकलित 32 लेखों में से तीन लेख बढ़ती हुई जनसंख्या पर ही आधारित हैं जिनमें शांता कुमार ने इस समस्या से निपटने के लिए महत्त्वपूर्ण सुझाव भी दिए हैं। शांता कुमार कहते हैं कि अपने जीवन में स्वामी विवेकानंद के दर्शन से प्रभावित होकर अंत्योदय को जीवन का मूल-मंत्र बनाया है। अधिकांश योजनाओं में अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति तक कल्याण योजनाओं को पहुंचाने की सदैव वकालत की है। पुस्तक में संकलित एक लेख में उन्होंने प्रधानमंत्री से देश में अलग से अंत्योदय मंत्रालय बनाने का अनुरोध किया है।

जी भर जिया, मन से मरूं : शांता कुमार

दिहि : आप अपनी फितरत के मुरीद रहे या जो आसपास घटित हुआ, उसने आपके भीतर का अलगाव पैदा किया?

शांता कुमार : सौभाग्य से जीवन के प्रारंभ से ही कुछ आदर्शों के प्रति  समर्पित हो गया।  आस-पास की घटनाओं ने प्रभावित किया, उनसे बहुत कुछ सीखा, परंतु मुख्य प्रेरणा मेरे अंतर्मन के आदर्शों की ही रही।

दिहि : आप कहते हैं कि लेखकीय क्षमता में आपके सरोकार निरूपित हुए, तो जो सार्वजनिक जीवन जीया, उसमें क्या पाया?

शांता कुमार : स्वभाव से भावुक हूं। भावुकता अभिव्यक्ति के लिए लेखक की क्षमता को साधन बनाती रही। सार्वजनिक जीवन से बहुत कुछ पाया भी और वहां अपने आदर्शों के अनुसार बहुत कुछ बनाया भी।

दिहि : आपके लिए देशभक्ति की पराकाष्ठा राष्ट्रवाद रही या अपने धर्म की पराकाष्ठा में आप भारतीय हुए? हिंदू को राष्ट्र की उपमा में कैसे देखते हैं?

शांता कुमार : हिंदुत्व कोई पूजा पद्धति नहीं है। हिंदुत्व पूजा पद्धतियों की नदियों का महा समुद्र है।  मेरी दृष्टि से धर्म केवल पूजा पद्धति नहीं है। हिंदू और भारतीय में कोई अंतर नहीं है। मेरी दृष्टि में भारत का राष्ट्रवाद सदा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद रहा। विष्णु पुराण के अनुसार हिमालय से लेकर समुद्र तक जो इस भारत को अपनी मातृभूमि व पितृभूमि समझता है, वही हिंदू है। ध्यान रहे मंदिर जाने वाला ही हिंदू नहीं है। भारत को उस दृष्टि से भारत राष्ट्र भी कहा जा सकता है। हिंदू राष्ट्र भी कहा जा सकता है।

दिहि : शांता कुमार की पसंद का साहित्य कहां से आता है?

शांता कुमार : सभी साहित्यकारों की अच्छी रचनाओं को पसंद करता हूं। विशेष रूप से आध्यात्मिक राष्ट्रवाद, सामाजिक न्याय और अंत्योदय विषय पसंद हैं।

दिहि : आपकी पसंदीदा रचनाएं और रचयिता?

शांता कुमार : अधिकतर साहित्यकारों की अच्छी रचनाएं पढ़ी हैं। परंतु विशेष रूप से रामधारी सिंह दिनकर, कन्हैया लाल, माणिक लाल मुंशी व नीरज पसंद हैं।

दिहि : क्या आपकी किसी नायक से मुलाकात हुई या भीतरी नायक खोजते-खोजते आप किन संदर्भों के आसपास होते हैं?

शांता कुमार : जीवन यात्रा के आसपास समाज में ही मुझे अपनी रचनाओं के नायक मिलते रहे।  खोजने की आवश्यकता नहीं पड़ी।  मानवीय संवेदना व सामाजिक न्याय विशेष रूप से आकर्षित करते रहे।

दिहि : आम भारतीय की संवेदना के नजदीक सबसे अधिक कौन खड़ा होता है। लेखक-साहित्यकार, पत्रकार, कलाकार या सियासी नेता?

शांता कुमार : आम भारतीय की संवदेना के निकट किसी एक वर्ग को नहीं कहा जा सकता। किसी भी क्षेत्र से कोई व्यक्ति संवेदनशील हो सकता है। भारत की रूखी-सूखी राजनीति में भी कुछ नेता संवेदनशील रहे हैं और हैं भी।

दिहि : भारत के प्रति आपकी आशा। क्या भारतीय लोकतंत्र उज्ज्वल हाथों में है या वर्तमान संसदीय प्रणाली बिखर चुकी है। क्या विकल्प के रूप में अमरीकी राष्ट्रपति प्रणाली को अंगीकार किया जा सकता है?

शांता कुमार : लंबे अनुभव के बाद यह विश्वास बना है कि वर्तमान संसदीय प्रणाली भारत के लिए उपयुक्त नहीं है। भारतीय समाज की परिस्थितियां भी उसके अनुकूल नहीं। इस प्रणाली में सुशासन का अभाव तथा भ्रष्टाचार निहित है। अमरीकी राष्ट्रपति प्रणाली भी पूरी तरह से उपयुक्त नहीं। भारत के विद्वानों की एक समिति विचार-विमर्श के बाद तय करे। पूरे देश के चुनाव पांच वर्ष में केवल एक बार हों। चुनाव कानून बदले जाएं। चुनाव में धन बल और बाहुबल को पूरी तरह समाप्त किया जाए। चुनाव में काले धन के प्रयोग को पूरी तरह से समाप्त किया जाए। वोट की राजनीति और दलबदल के कलंक भी समाप्त हों। प्रदेश और देश का शासक सीधा जनता द्वारा चुना जाए। दोनों पद्धतियों से भारत की परिस्थिति के अनुसार एक नई शासन प्रणाली बनाई जाए।

दिहि : कुछ  साहित्यकारों की सोच व संवेदना यह है कि आपने हिमाचल को हिंदी राज्यों की जमात में बैठा कर हिमाचली भाषा के उदय को ही पंगु बना दिया?

शांता कुमार : छोटे से हिमाचल में लगभग 27 बोलियां हैं। कांगड़ी बोली कुल्लू से भिन्न है और लाहुल की बोली से बिलकुल भिन्न है। मैं ही कुछ अन्य बोलियां बिलकुल नहीं समझ पाता। भाषा बनाई नहीं जाती। लंबे समय से स्वयं विकसित होती है। कुछ लेखकों ने पहाड़ी भाषा की दृष्टि से कुछ काम किया है। मुझे संदेह है कि वह पूरे हिमाचल की भाषा बन सके। आज भी हिमाचल में संपर्क की भाषा केवल हिंदी ही है। यह सब सोचकर मैं हिंदी के प्रति समर्पित हूं।

दिहि : क्या गिरिराज व बाकी सरकारी प्रकाशनों के मौजूदा आधार को आप हिमाचली सृजन, संस्कृति, भाषा व समाज विज्ञान में रूपांतरित देखते हैं?

शांता कुमार : एक सीमा तक सफल हुए हैं, परंतु अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है। केवल सरकारी प्रकाशनों से ही यह आशा नहीं की जा सकती।

दिहि : सच्ची व अच्छी रचना को गढ़ना आसान है या सुशासन की परिकल्पना में श्रम साधना करना?

शांता कुमार : आसान कुछ भी नहीं, परंतु सब कुछ आसान है।  यदि कुछ करने की इच्छा शक्ति हो और उसके प्रति समर्पण हो तो सब संभव है। मैंने अति व्यस्त राजनीतिक जीवन में रहते हुए भी अपने जीवन की व्यस्तताओं से समय निकाल कर पांच उपन्यास सहित कुल 20 रचनाएं हिंदी जगत को दी और प्रशासन में ‘काम नहीं तो वेतन नही’ जैसा अत्यंत असंभव लगने वाला निर्णय भी कर दिखाया। आज सोच कर स्वयं हैरान होता हूं कि पूरा जीवन कभी आर्थिक संघर्षों में, कभी रेल में, कभी जेल में, कभी चुनाव की धक्कमपेल में बीता, फिर भी इतनी रचनाएं कर डाली।

दिहि : क्या आधुनिक समाज की परिपक्वता में परंपराओं का स्थान सुनिश्चित करना या देश की वोट राजनीति के सामने चारित्रिक उत्थान को संभव कर पाना, अब बीती बातें हो गई हैं?

शांता कुमार : आज के जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि जिस राजनीति को जीवन का एक हिस्सा होना चाहिए, वहां जीवन ही राजनीति का हिस्सा हो गया है।  राजनीति ने पूरे जीवन को लील लिया। जीवन का राजनीतिकरण हो गया और राजनीति का पूरी तरह से अवमूल्यन और कहीं-कहीं भ्रष्टीकरण भी हो गया।  वर्तमान संसदीय प्रणाली की सबसे बुरी देन है वोट की राजनीति।  इस पूरी व्यवस्था को बदलना होगा।

दिहि : सामाजिक-सांस्कृतिक स्वीकृतियों के बीच भ्रष्टाचार उन्मूलन के राष्ट्रीय दबाव क्या हैं? क्या धर्म या भारतीय चिंतन की नई परिभाषा में देश अब राष्ट्र धर्म पर विवेचन करने लायक भी नहीं बचा?

शांता कुमार : बहुत कुछ बिगड़ चुका है। भ्रष्टाचार अब एक स्वाभाविक आचार बनता जा रहा है, परंतु यह भी सच है कि प्रत्येक क्षेत्र के बुद्धिजीवी चिंतित हैं। दुर्भाग्य यह है कि आज के नेताओं से यह आशा नहीं की जा सकती, क्योंकि अब राष्ट्र धर्म से पहले ‘जैसे तैसे सरकार’ धर्म बन गया। समग्र जीवन के राजनीतिकरण का एक अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण प्रभाव यह हुआ कि समग्र जीवन में चिंताजनक अवमूल्यन हो गया। परंतु मैं विश्वास से कह सकता हूं कि नरेंद्र मोदी जी ही कर सकते हैं। एक सीमा तक किया भी है।  परंतु उसके मूल को उखाड़ने के लिए उन्होंने भी अभी निर्णय नहीं किया। परंतु आशा उन्हीं से है। पूरी तरह से निराश होने की आवश्यकता नहीं।  इसी अंधकार में प्रकाश भी चमकेगा।

दिहि : राष्ट्रीय अस्मिता में आज के साहित्य का योगदान। मीडिया व सोशल मीडिया के वर्तमान दौर में सूचना की विकृतियों और भ्रांतियों के बीच इस युग की अभिव्यक्ति में मनुष्य के भावनात्मक तथा व्यावहारिक पक्ष का संतुलन रहेगा या सिर्फ  परिवेश के कसूरवार होकर ही जिंदगी की बेचारगी रहेगी?

शांता कुमार : नई सोच, नया चिंतन और नई तकनीक बहुत कुछ बदल रही है।  सोशल मीडिया भी बहुत कुछ अस्त-व्यस्त कर रहा है।  विवेक के बिना विज्ञान वैचारिक क्षेत्र में भी कहीं-कहीं विनाश का कारण बन रहा है। यह संतोष की बात है कि इस दृष्टि से साहित्य जागरूक है। विचार मंथन हो रहा है।  इस नएपन ने एक उथल-पुथल पैदा की है, प्रयत्न करना चाहिए कि इस मंथन में से अमृत निकल सके।

दिहि : आपके लिए भारतीय चिंतन या भारतीय दर्शन की भूमिका क्या रही और जीवन के गूढ़ रहस्यों का आपके आदर्श सार कहां तक निकाल पाए? अंत में जो पाया या जो चाह कर खोया। जिनके करीब रहे या जिनसे दूर रहकर पाया?

शांता कुमार : भारतीय चिंतन मुख्य रूप से आध्यात्मिक और मानवतावादी रहा है। पूर्व और पश्चिमी चिंतन में प्रारंभ से एक मुख्य भेद रहा। पश्चिम ने ब्रह्माण्ड को ज्ञात और अज्ञात के रूप में देखा।  अज्ञात की खोज प्रारंभ की और विज्ञान के बहुत आगे पहुंच गया।  पूर्व में ब्रह्माण्ड को ज्ञात-अज्ञात और अज्ञेय में विभाजित किया। कुछ प्रश्नों को अज्ञेय समझकर छोड़ दिया। इसीलिए पूर्व आध्यात्मिक क्षेत्र में आगे बढ़ा और उस दृष्टि से प्रसिद्ध विद्वान डा. मैक्समूलर के शब्दों में अध्यात्म के सबसे ऊंचे शिखर तक पहुंचा। मेरे जीवन का सिद्धांत यह रहा कि मैं केवल कर्म कर सकता हूं, फल मेरे हाथ में नहीं, इसलिए जो भी मिला उसे स्वीकार कर लिया। स्वीकार ही नहीं किया, प्रभु का प्रसाद समझ कर खुशी से स्वीकार किया। गीता से सबसे बड़ी यही सीख ली थी। फिर जेल पहुंचा तो सहर्ष स्वीकार किया और 19 महीने की जेल मेरे लिए आनंद और साधना का स्थान बन गई। वेदांत पढ़ा, विवेकानंद साहित्य पढ़ा और चार पुस्तकें लिखी। जेल से निकल कर मुख्यमंत्री बना। सहर्ष स्वीकार किया। जी भर कर काम किया और पद छोड़ना पड़ा तो छोड़ कर तुरंत हंसते-मुस्कराते सिनेमा देखने पहुंच गया। जेल की कोठड़ी और मुख्यमंत्री की कुर्सी लगभग बराबर थी मेरे लिए। गीता-विवेकानंद पढ़े ही नहीं, बल्कि उन्हें जीवन में जीने का प्रयत्न भी किया। मैंने कभी किसी से कुछ नहीं मांगा। न प्रभु से, न पार्टी से। जब प्रभु सब कुछ जानते हैं तो मैं कौन होता हूं उन्हें बताने वाला कि मुझे क्या और कब बनना चाहिए। बस प्रभु के पास गया तो केवल आभार व्यक्त करने के लिए, इतना कुछ दिया मुझे, जेल में भी प्रभु का धन्यवाद ही करता रहा। मैं अपने प्रभु के पास आभारी बनकर गया, भिखारी बन कर नहीं। इसलिए जेल में या रेल में या मुख्यमंत्री पद पर या आज अपने एकांत घर पर, सदा आनंद में रहा। स्थितप्रज्ञ रहने का प्रयत्न किया। गीता और विवेकानंद मेरे जीवन के आदर्श रहे। इसलिए कभी कुछ खोया नहीं, जो भी मिला उसे स्वीकार किया और उसे जी भर कर जिया। इसीलिए जब दुनिया से जाऊंगा तो हंसता-मुस्कराता श्री अटल जी की कविता की ये पंक्तियां गुनगुनाता हुआ जाऊंगा : ‘जी भर जिया मन से मरूं, लौट के आऊंगा कूच से क्यों डरूं?’

जयदीप रिहान, पालमपुर

 किस्त : 31 : किताब के संदर्भ में लेखक

साहित्य में शब्द की संभावना शाश्वत है और इसी संवेग में बहते कई लेखक मनीषी हो जाते हैं, तो कुछ अलंकृत होकर मानव चित्रण  का बोध कराते हैं। लेखक महज रचना नहीं हो सकता और न ही यथार्थ के पहियों पर दौड़ते जीवन का मुसाफिर, बल्कि युगों-युगों की शब्दाबली में तैरती सृजन की नाव पर अगर कोई विचारधारा अग्रसर है, तो उसका नाविक बनने का अवसर ही साहित्यिक जीवन की परिभाषा है, जो बनते-संवरते, टूटते-बिखरते और एकत्रित होते ज्वारभाटों के बीच सृजन की पहचान का मार्ग प्रशस्त करता है। यह शृांखला किसी ज्ञान या साहित्य की शर्तों से हटकर, केवल सृजन की अनवरत धाराओं में बहते लेखक समुदाय को छूने भर की कोशिश है। इस क्रम में जब हमने शांता कुमार की पुस्तक ‘हिमालय पर लाल छाया’ की पड़ताल की तो कई पहलू सामने आए…

शांता के सृजन को सलाम करते हैं साहित्यकार

शांता कुमार के साहित्य को लेकर प्रदेश के साहित्यकार क्या राय रखते हैं, हमने यह जानने की कोशिश भी की। प्रदेश के कई साहित्यकार शांता के साहित्य को उसकी पूर्णता में देखते हैं। यहां प्रस्तुत है विभिन्न साहित्यकारों की राय :

आसान नहीं है शांता कुमार होना

डा. हेमराज कौशिक

शांता कुमार ने राजनीति और साहित्य के क्षेत्र में तपश्चार्य और साधना का जीवन जिया है। एक संवेदनशील साहित्य सर्जक और गंभीर, निर्भीक,  सत्यनिष्ठ,  मानवतावादी, निष्कलुष, निष्कलंक राजनेता के रूप में उनके व्यक्तित्व की छवि अन्यतम है। वह ऐसे कर्मयोगी हैं जिनका अनुकरण और अनुसरण करना  नितांत दुष्कर है। बाल्यकाल से लेकर अब तक की इस जीवन यात्रा में उन्होंने  जिन उतार-चढ़ाव को अनुभव किया, जिन दुर्गम घाटियों को पार किया और उस यात्रा में शांत पथिक की भांति  विभिन्न क्षेत्रों में चुनौतियों का सामना किया और घोर संकटमयी परिस्थितियों में भी  जीवन के महान आदर्शों और सिद्धांतों से अपने कदमों को विचलित नहीं होने दिया, वह अपने आप में विलक्षण और अन्यतम है। शांता कुमार जैसे  धीर,  निर्भीक, मानवतावादी और अभावग्रस्त जन की चिंता करने वाला मसीहा होना आसान नहीं है। उनकी सृजनात्मक और चिंतनपरक कृतियों और उनकी जेल डायरी तथा संस्मरणात्मक कृतियों का अनुशीलन करते हुए तथा राजनीतिक जीवन के  समूचे सफर को देखते हुए बराबर यह एहसास होता रहा है कि ‘आसान नहीं है शांता कुमार होना’।

यथार्थ और आदर्श के लेखक हैं शांता कुमार

डा. गौतम शर्मा व्यथित

शांता कुमार जी यथार्थ एवं आदर्शवादी लेखक हैं। जीवन की दार्शनिकता और आदर्श राजनीतिक चिंतन से प्रभावित है इनका संपूर्ण साहित्य। अपनी राजनीतिक समकालीनता का रहस्योद्घाटन करता है इनका साहित्य, जो स्थितियों से आक्रोश नहीं, संतोष और सहज जीवन जीने को प्रेरित करता है। जीवन में हार को भी जीत के रूप में स्वीकार कर, जीवन के यथार्थ को सच, सच कहने-समझने और जीने का सनातन संदेश साझा किया है। यही इनके साहित्य की विशेषता एवं उपादेयता है। इनका हर पात्र समकालीन और साथ जिया महसूस होता है। शायद इसीलिए पाठक को इनके कथानकों में कहीं अपने होने की संभावना रहती है। स्थितियों का संवेदनशील चित्रण पाठक को संवेदित करता, उसमें नई चेतना व ऊर्जा लाने का प्रयास करता है, यही इनके लेखन की सार्थकता है।

शांता जी का व्यक्तित्व उनके सृजन का प्रतिबिंब है

राजेंद्र राजन

शांता कुमार जी से मेरी पहली भेंट 1984 में पालमपुर में हुई थी। तब ‘पांचजन्य’ के लिए मैंने उनका साक्षात्कार किया था। फिर उनकी कुछ किताबें पढ़ीं। लाजो भी। आपातकाल में नाहन जेल में लिखे उनके संस्मरण खूब लोकप्रिय हुए थे। उनके उपन्यासों व अन्य रचनाओं की सरल व सपाट और बांध लेने वाली भाषा का मैं शुरू से ही मुरीद रहा। वह सामाजिक सरोकारों के लेखक हैं। अपने समय और समाज पर उनकी गरही पकड़ रही है। खास बात यह है कि रचनाधर्मिता में जिस ईमानदारी, बेबाकी व खुलकर स्वयं को व्यक्त करने की अपेक्षा रहती है, उसमें वह सौ फीसदी खरे उतरते हैं। उनका समस्त सृजन संसार उनके उस अनुशासित व्यक्तित्व का प्रतिबिंब है जिसके निर्माण के लिए वह मानवीय मूल्यों व सिद्धांतों से कभी भी अडिग नहीं हुए। भले ही बतौर राजनेता उन्हें उसकी बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ी। इसीलिए वह समाज के बड़े वर्ग के लिए अनुकरणीय रहे हैं। हिंदी साहित्य को शांता जी ने समृद्ध किया है, पर मुख्यधारा के लेखन में उनका अपेक्षित मूल्यांकन नहीं हो पाया है। शायद उनकी विचारधारा इसमें बाधक रही हो। वामपंथी विचारधारा के लेखक दीगर विचारधारा के लेखन को खारिज करने के लिए तत्पर रहते हैं।

शांता के साहित्य पर हावी रहा कद्दावर सियासी किरदार

मुरारी शर्मा

शांता कुमार की पहचान ईमानदार व मूल्यों की राजनीति करने वाले कद्दावर नेता की रही है। वह प्रखर वक्ता, कुशल प्रशासक होने के साथ-साथ राष्ट्रवादी चिंतक भी हैं। शांता कुमार की वाणी का लोहा विधानसभा व संसद के अलावा कई मंचों पर माना गया है। वहीं पर बतौर साहित्यकार भी शांता कुमार सक्रिय रहे हैं। शांता कुमार हिमाचल प्रदेश में पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री रहे हैं। वह जहां अंत्योदय पुरुष और पानी वाले मुख्यमंत्री के रूप में आम जनमानस में लोकप्रिय हुए, वहीं पर ‘काम नहीं तो वेतन नहीं’ का फार्मूला लागू कर उन्होंने प्रदेश के कर्मचारी वर्ग से पंगा ले लिया। मगर उनके बाद आज भी वही योजनाएं लागू हो रही हैं। उसी प्रकार बतौर केंद्रीय मंत्री रहते हुए उन्होंने कई दीर्घकालीन योजनाएं लागू की हैं।  राजनीतिक व्यस्तताओं के चलते अपने साहित्यकार को पर्याप्त समय न दे पाने से बहुत कुछ छूट गया लगता है, जो अन्यथा और प्रखरता से सामने आता। इसके बावजूद उन्होंने जितना कुछ लिखा, उसका भी सही ढंग से मूल्यांकन होना अभी बाकी है। मेरा यह मानना है कि साहित्यकार शांता कुमार पर उनका सियासी कद हावी रहा। लोग उन्हें साहित्यकार कम, राजनेता के रूप में अधिक जानते हैं।

वेदना और संवेदना के कथाकार हैं शांता कुमार

सुदर्शन वशिष्ठ

राजनीति और साहित्य दो अलग-अलग विपरीत धाराएं हैं। इन दोनों को साथ लेकर चलना कठिन ही नहीं, दुष्कर भी है। भारतीय राजनीति में ऐसे दो व्यक्तित्व उदाहरण के रूप में प्रस्तुत हुए हैं जो इन्हें साथ लेकर चले; एक पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी और दूसरे पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार। दोनों ही ऐसे नेता जिनका सभी आदर करते हैं। शांता कुमार राजनीति में जिस स्पष्टवादिता, निर्भीकता के लिए जाने जाते हैं, वैसे नेता विरले ही होते हैं। भाजपा के एक कद्दावर नेता होने के साथ इन्होंने राजनीति में एक स्वस्थ परंपरा की नींव रखी जिसे अपने पूरे राजनीतिक जीवन में निभाया। इनकी छवि एक साफ -सुथरे नेता की रही है। यह साहित्यिक संवेदनाओं का ही प्रतिफल रहा होगा कि इन्होंने बड़े से बड़ा खतरा मोल लेते हुए भी सत्य और सन्मार्ग का पक्ष नहीं छोड़ा। सत्य की तलाश करना और उसके पक्ष में खड़े रहना एक साहित्यकार का ही प्रण होता है। अपने साहित्य के माध्यम से सामाजिक विसंगतियों, कुरीतियों पर चोट करने के साथ नारी की व्यथाकथा को भी उजागर किया।


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