सियासी निवेश का वित्तीय घाटा

By: Sep 16th, 2020 12:06 am

हिमाचल विधानसभा में पेश कैग रिपोर्ट ने प्रदेश की माली हालत का सांगोपांग वर्णन करते हुए यह साबित कर दिया कि राजनीतिक दरियादिली ने कहां पहुंचा दिया है। बजट के विपरीत खड़ी परिस्थितियों के निर्देशों को झुठलाते हुए कमोबेश हर सरकार, राजस्व आय व व्यय के बीच खाई को चौड़ा कर रही है। उधारी की बढ़ती मांग पर टिके सत्ता के आश्वासन कितने बेखबर हैं कि प्रदेश अपनी ख्वाहिशों और पैमाइशों में ही 9.6 प्रतिशत की दर पर कर्ज बढ़ा रहा है। कर्ज पर कर्ज उठाते हिमाचल का दस्तूर देखिए कि कुल बजटीय खर्च में अपनी आय के स्रोत मात्र 33 फीसदी आपूर्ति कर पाते हैं, जबकि बाकी वित्तीय व्यवस्था में केंद्रीय राजस्व प्राप्तियों की ओर मुखातिब रहना पड़ता है। कैग ने वित्तीय संकट की तरफ इशारा करते हुए 2018-19 के बजट में दर्ज आय व व्यय के आंकड़ों में खोट पाया है, तो इसका यह अर्थ भी है कि प्रदेश का अर्थशास्त्र अप्रासंगिक हो चुका है। इसकी एक वजह उन राजनीतिक प्रश्नों के बीच खड़ी है, जो आर्थिक विवेचना को तिरस्कृत कर रही है। बजट के सामने लाभार्थियों की भीड़ और मुकाबला भी ऐसा कि जहां पक्ष और प्रतिपक्ष राज्य की वित्तीय मिट्टी को ही खुर्द बुर्द कर चुके हैं। दुखद पहलू यह भी कि प्रदेश की प्रमुख पार्टियों ने अपने भीतर राजनीतिक अर्थशास्त्री पैदा नहीं किए।

यह असंभव है कि मुख्यमंत्री ही वित्तमंत्री बन कर प्रदेश की आर्थिक खुशहाली ला दें, लेकिन हिमाचल में यही परंपरा चल रही है। ऐसे में वित्तमंत्री की संवेदना के विपरीत मुख्यमंत्री पद की छवि पर प्रदेश का बजट हलाल हो रहा है। शांता कुमार अंतिम ऐसे मुख्यमंत्री थे जिन्होंने विद्युत उत्पादन के बदले मुफ्त में 12 प्रतिशत बिजली हासिल करके प्रदेश के खजाने को संबल दिया। पिछले वित्तीय वर्ष इसी बीस फीसदी मुफ्त बिजली ने राज्य को 1180 करोड़ दिए हैं, तो यह एक यादगार उपलब्धि है। इससे पहले स्व. वाईएस परमार ने बागबानी में हिमाचल की आर्थिकी की दिशा निर्धारित की और पांवटा साहिब-कालाअंब से कांगड़ा के मैदानी इलाके संसारपुर टैरस तक औद्योगिक संभावनाओं को नया आयाम दिया। परवाणू जैसा औद्योगिक शहर या फ्रूट प्रोसेसिंग के साथ हिमाचल का नाम जोड़कर आत्मनिर्भरता का पैगाम दिया। वीरभद्र और प्रेम कुमार धूमल ने अधोसंरचना निर्माण का बिगुल बजाया, लेकिन तब तक पांव चादर से बाहर हो चुके थे। हिमाचल की वित्तीय व्यवस्था को राजनीतिक नियुक्तियों के सबसे अधिक दंश लगे हैं। जिन बोर्ड-निगमों को बंद हो जाना चाहिए, उन पर कुंडली मारकर राजनेता ही ओहदेदार बने हुए हैं। हैरानी होती है कि कमोबेश हर परिवहन मंत्री को अपने विधानसभा क्षेत्र में निगम का डिपो चाहिए और  इसीलिए भारी खर्च के दबाव में सार्वजनिक क्षेत्र डूब रहा है। राजनीतिक तौर पर अनावश्यक विभागीय विस्तार ने भी कमर तोड़ी है और गौर करें कि हिमाचल में पंजाब के मुकाबले दो गुना सरकारी कालेजों की खेप, वित्तीय घाटे को कितना फैला रही है। हैरानी यह कि अब हर जिला को मेडिकल कालेज, सरकारी विश्वविद्यालय और विधानसभा क्षेत्र को हर विभाग चाहिए, तो राजनीतिक निवेश से वित्तीय घाटा और बढ़ेगा।

अब जबकि कैग सीधे-सीधे अपव्यय पर अंगुली उठा रहा है, प्रदेश सिमटी जीएसटी के बावजूद अपने खर्चे बढ़ा रहा है। कोविड संकट के बीच प्रदेश के अहम फैसलों में वित्तीय खतरे बढ़ रहे हैं। सरकार कोशिश में है कि एक अदद संस्कृत विश्वविद्यालय, खेल यूनिवर्सिटी तथा चंद नगर निगम बन जाएं ताकि सियासी निवेश की कोई सीमा न रहे। कोविड काल में पर्यटन-परिवहन की डूबती नैया के बावजूद, सरकार के लिए अपने घाटे को कम करने का स्वरूप नहीं है। मंदिर आय का दुरुपयोग ही रुक जाए तो प्रदेश हजार करोड़ के आय स्रोत को जोड़ सकता है। निजी बनाम सार्वजनिक क्षेत्र की उपयोगिता में देखें तो इस काल में निजी अस्पताल ही सहारा बने हुए हैं, जबकि तमाम मेडिकल कालेज अनेक कारणों से कोविडग्रस्त हैं। आश्चर्य यह है कि कैग रिपोर्ट का मर्म नहीं पढ़ा जाएगा और न ही विपक्ष अपने लगातार वाकआउट की वजह से इस विषय पर सीधा मत रख पाएगा। जनता के लिए भी सरकारी नौकरी का जादू चाहिए और ऐसी राजनीति चाहिए जो जी हुजूरी करे, कर्मचारियों के तलबे चाटे और ऐसे कारण न देखे जाएं कि राज्य सरकारें अपना खर्च कम करें।


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