महात्मा गांधी का नव मूल्यांकन: कुलदीप चंद अग्निहोत्री, वरिष्ठ स्तंभकार

By: कुलदीप चंद अग्निहोत्री, वरिष्ठ स्तंभकार Oct 3rd, 2020 8:00 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

गांधी के लिए गीता हर प्रकार की परिस्थिति में कर्त्तव्य बोध कराने वाला वैश्विक  ग्रंथ था, लेकिन नेहरू की दृष्टि में एक मजहबी किताब से ज्यादा उसकी कोई कीमत नहीं थी। गांधी हजार साल की गुलामी के बाद आजाद हुए भारत का नया ताना-बाना भारतीय रास्ते में से ही बुनना चाहते थे, लेकिन नेहरू के लिए यह पूरी विरासत म्यूजियम में तो सजाई जा सकती थी, लेकिन नए भारत के लिए उसकी कोई उपयोगिता नहीं थी। गांधी जी भारतीय भाषाओं के पक्षधर थे, लेकिन नेहरू पश्चिम की भाषाओं को ज्यादा समृद्ध मानते थे। इसलिए आजाद भारत में भी अंग्रेजी के वर्चस्व को बनाए रखने के पक्षधर थे। गांधी जी मतांतरण के बहुत ही खिलाफ थे, लेकिन नेहरू ने पूरा पूर्वोत्तर भारत ईसाई मिशनरियों के हवाले कर दिया था। जिन दिनों गांधी जी ने बड़ी-बड़ी मशीनों से उत्पादन का विरोध किया था, उन दिनों सभी लोग गांधी को दकियानूसी कहने लगे थे…

महात्मा गांधी की एक सौ पचासवीं जयंती विश्व भर में मनाई गई। जैसे-जैसे विश्व नए-नए संकटों में घिरता जाता है, वैसे-वैसे वह महात्मा गांधी की ओर भागता है। केवल हिंदुस्तान की बात नहीं, अन्य देशों में भी यह सत्य है। जिन देशों ने विदेशी या उपनिवेशवादी मानसिकता के खिलाफ संघर्ष किया, वे यह मानते हैं कि गांधी से उन्हें बहुत प्रेरणा मिली। लेकिन गांधी से प्रेरणा सभी लेते हैं, गांधी के दिखाए रास्ते पर चलने के लिए कोई तैयार नहीं है। गांधी जी तो महान थे, लेकिन उनका रास्ता और चिंतन यथार्थवादी नहीं है। इसलिए उसका अनुसरण नहीं किया जा सकता। ऐसा प्रायः उनके शिष्य भी कहते हैं। गांधी जी को स्वीकार कर उनके रास्ते को नकारने वालों में से सबसे पहले पंडित जवाहर लाल नेहरू ही थे। गांधी चिंतन का मूलाधार उनका हिंद स्वराज कहा जाता है। गांधी हिंद स्वराज के आधार पर देश का विकास करना चाहते थे। गांधी मानते थे कि किसी भी देश का विकास मॉडल और उसकी अर्थ नीति उस देश के लोगों के स्वभाव, संस्कृति और प्रकृति के अनुसार होनी  चाहिए। हिंद स्वराज को उन्होंने इसी आधार पर लिखा था। लेकिन नेहरू ने गांधी को सख्ती से कहा था कि जिस समय आपने हिंद स्वराज लिखा था, वह उस समय भी अप्रासंगिक था और आज 1947 में तो यह बेकार ही कहा जाएगा। गांधी ने तब भी उत्तर दिया था कि हिंद स्वराज आज भी उतना ही प्रासंगिक है और भविष्य में भी रहेगा। गांधी आदर्श राज्य के रूप में राम राज्य का मॉडल प्रस्तुत करते थे। लेकिन नेहरू को रामराज्य शब्द में से ही सांप्रदायिकता की बू आती थी।

गांधी के लिए गीता हर प्रकार की परिस्थिति में कर्त्तव्य बोध कराने वाला वैश्विक  ग्रंथ था, लेकिन नेहरू की दृष्टि में एक मजहबी किताब से ज्यादा उसकी कोई कीमत नहीं थी। गांधी हजार साल की गुलामी के बाद आजाद हुए भारत का नया ताना-बाना भारतीय रास्ते में से ही बुनना चाहते थे, लेकिन नेहरू के लिए यह पूरी विरासत म्यूजियम में तो सजाई जा सकती थी, लेकिन नए भारत के लिए उसकी कोई उपयोगिता नहीं थी। गांधी जी भारतीय भाषाओं के पक्षधर थे, लेकिन नेहरू पश्चिम की भाषाओं को ज्यादा समृद्ध मानते थे। इसलिए आजाद भारत में भी अंग्रेजी के वर्चस्व को बनाए रखने के पक्षधर थे। गांधी जी मतांतरण के बहुत ही खिलाफ थे, लेकिन नेहरू ने पूरा पूर्वोत्तर भारत ईसाई मिशनरियों के हवाले कर दिया था। जिन दिनों गांधी जी ने बड़ी-बड़ी मशीनों से विशाल स्तर पर उत्पादन का विरोध किया था, उन दिनों सभी लोग गांधी को दकियानूसी कहने लगे थे। लेकिन गांधी अपनी बात पर डटे रहे। उन्होंने कहा कि मशीन और नगरीकरण आदमी को अंततः एक यांत्रिक पुर्जे में तबदील करके रख देगा। उसकी मानवीयता समाप्त हो जाएगी। आज जब कोरोना महामारी से सारी दुनिया जूझ रही है, तब बहुत से विद्वान फिरते कहने लगे हैं कि गांधी को एक बार फिर से पढ़ना चाहिए। वे सच में ही उन दिनों भविष्य में देख रहे थे। एक बार फिर से चर्चा होने लगी है कि गांव की ओर लौटना होगा।

बहुत सी सरकारें कह रही हैं जो शहर से भाग कर किसी तरह अपने गांव में आ गए हैं, उनके रोजगार का बंदोबस्त गांव में ही करना होगा। गांधी ने ये बातें कई दशक पहले कही थीं। तब उनका मजाक उड़ाया गया था। गांधी अखंड भारत के समर्थक थे। वे पाकिस्तान बनाए जाने के पक्ष में नहीं थे। वे मजहब को राष्ट्रीयता का आधार नहीं मानते थे। उनका कहना था कि मजहब बदल लेने भर से विरासत और पुर्जे नहीं बदल जाते। उनका अपना एक बेटा मजहब बदल कर इस्लाम पंथ में चला गया था। गांधी जी का कहना था कि इससे उसके पुर्जे थोड़ा बदल गए हैं। उनका मानना था कि भारत के अधिकांश मुसलमान उनके अपने बेटे की तरह किन्हीं कारणों से मुगलों व तुर्कों के राज्यकाल में पूजा का तरीका बदलने के लिए विवश हो गए थे, लेकिन वे हैं तो भारत माता के पुत्र ही। इसलिए मजहब के आधार पर भारत को बांटने की ब्रिटिश साजिश को स्वीकार नहीं किया जा सकता था।

इतना ही नहीं, उनको जम्मू-कश्मीर की चिंता हो रही थी जिसके लिए लार्ड माऊंटबेटन जी-जान से लगे हुए थे कि वह पाकिस्तान के साथ मिल जाए। वे स्वयं श्रीनगर पहुंचे । वहां तीन दिन रहे। महाराजा हरि सिंह से भी मिले। गांधी को चिंता थी कि शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने 1846 की अमृतसर संधि को निरस्त कराने के लिए जो आंदोलन चला रखा था, उसके परिणामस्वरूप कश्मीर घाटी ब्रिटिश सरकार के पास चली जाएगी। लेकिन नेहरू इस संकट की घड़ी में गांधी का साथ छोड़ कर लार्ड माऊंटबेटन के साथ मिल गए थे। इसका मार्मिक वर्णन गांधी जी के पटु शिष्य राम मनोहर लोहिया ने किया है। यही कारण था कि जब दिल्ली में अंग्रेजों के भारत से चले जाने का जश्न मनाया जा रहा था तो महात्मा गांधी इस राजनीतिक निर्णय से पूर्वी बंगाल में पीडि़त लोगों के जख्मों पर मरहम लगा रहे थे।

गांधी जी ने सरकारों को अपनी नीतियों को परखने के लिए एक ताबीज दिया था। जब कोई नीति बने तो देख लेना चाहिए कि पायदान के सबसे नीचे के डंडे पर बैठे आदमी को इसका लाभ होगा या नहीं। यदि लाभ होता है तो नीति ठीक है। जब पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने अंत्योदय की अवधारणा दी तो बहुत से लोगों ने कहा कि संघ गांधी को अपने पाले में फिट करना चाह रहा है। लेकिन असल बात यह थी कि गांधी और दीनदयाल दोनों के चिंतन की जड़ें भारतीय विरासत में थीं। इसलिए समाधान और निष्कर्ष भी दोनों के एक जैसे निकल रहे थे। आज महात्मा गांधी के मूल विचारों पर चलने की सख्त जरूरत है। यह चिंता की बात है कि हम उन्हें महान तो मानते हैं, लेकिन उनके विचारों को प्रासंगिक नहीं मानते हैं। अपने गांवों की ओर लौट रहे लोग आज जिस बात का संकेत दे रहे हैं, वह बात महात्मा गांधी ने बहुत पहले ही समझ ली थी। इसीलिए आज कोरोना काल के दौर में पूरा विश्व ही महात्मा गांधी को याद कर रहा है।

 ईमेलःkuldeepagnihotri@gmail.com


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