दत्तोपंत ठेंगड़ी का जीवन-दर्शन: कुलदीप चंद अग्निहोत्री, वरिष्ठ स्तंभकार

By: कुलदीप चंद अग्निहोत्री, वरिष्ठ स्तंभकार Oct 31st, 2020 12:08 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

यही कारण था जब दत्तोपंत ठेंगड़ी ने भारतीय मजदूर संघ की स्थापना करते समय सूत्र दिया कि श्रम को भी पूंजी मानो तो साम्यवाद के प्रशंसक और पूंजीवाद के हिमायती दोनों एक साथ होकर इसका विरोध करने लगे। लेकिन आज विश्व भर में इस विकल्प की चर्चा शुरू हो गई है। ठेंगड़ी ने एकात्म मानव दर्शन के मूल तत्त्व की व्याख्या की। उपाध्याय ने भारतीय चिंतन के पुरुषार्थ चतुष्टय को जीवन विकास यात्रा का मूलाधार माना है। ये चार पुरुषार्थ हैं : धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। साम्यवाद और पूंजीवाद केवल अर्थ पर ही रुका हुआ है। भारतीय जीवन दर्शन का आधार अर्थ और काम दोनों हैं। इन दोनों की साधना से मानव दर्शन विकसित होता है। दशगुरु परंपरा के प्रथम गुरु श्री नानक देव जी जब गृहस्थ आश्रम की साधना की बात करते हैं तो कहीं न कहीं इसी चतुष्टय की बात होती है। लेकिन अर्थ और काम की साधना पर धर्म की सीमा रेखा होना लाजिमी है अन्यथा अराजकता फैल सकती है। ठेंगड़ी तो इससे भी एक कदम आगे जाते हैं। उनका मानना है कि आदमी को मानव जीवन का ध्येय क्या है, इस पर भी ध्यान देना चाहिए…

आधुनिक युग में ऋषि परंपरा के चिंतक दत्तोपंत ठेंगड़ी का जयंती वर्ष लगभग समाप्ति पर है। देश भर में चिंतन क्षेत्र में उनकी देन को लेकर चर्चाएं होती रहीं। आधुनिक युग की विचारक प्रणालियों में साम्यवाद व पूंजीवाद के बाद जिस विचार प्रणाली का सर्वाधिक जिक्र होता है, वह दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानव दर्शन  है। दीनदयाल उपाध्याय से पहले माना जाता था कि साम्यवाद एवं पूंजीवाद विचारधाराएं परस्पर विरोधी हैं। लेकिन उपाध्याय ने कहा कि ऊपर से ये विचारधाराएं विरोधी लगती हैं, पर भीतर से ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

दोनों विचारधाराएं भौतिकवादी हैं, झगड़ा केवल पूंजी के स्वामित्व का है। वह स्वामित्व राज्य का होना चाहिए या व्यक्ति का? लेकिन दीनदयाल उपाध्याय एकात्म मानव दर्शन की गहरी व्याख्या कर पाते, उससे पहले ही उनकी रहस्यमयी परिस्थितियों में हत्या हो गई। उनकी इस विचार यात्रा को आगे बढ़ाया दत्तोपंत ठेंगड़ी ने। ठेंगड़ी उपाध्याय के एकात्म मानवदर्शन के श्रेष्ठ व्याख्याता कहे जा सकते हैं। साम्यवाद और पूंजीवाद की भीतरी एकता और बाहरी विरोध का उल्लेख करते हुए ठेंगड़ी ने कहा कि साम्यवाद भी मानता है कि यदि व्यक्ति की प्राथमिक भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर दी जाए तो वह प्रसन्न हो जाता है। पूंजीवाद भी यह मान कर चलता है कि भौतिक जरूरतों के पूरा हो जाने से व्यक्ति सुखी हो जाता है। दोनों में अंतर केवल इतना ही है कि साम्यवादी व्यवस्था में आदमी की भौतिक जरूरतों की पूर्ति करने का दायित्व राज्य ले लेता है और पूंजीवादी व्यवस्था में यह दायित्व व्यक्तिगत संस्थान लेते हैं। कुछ लोगों के पास पूंजी होती है, लेकिन केवल पूंजी से तो उत्पादन नहीं हो सकता। इसलिए पूंजी रखने वाला व्यक्ति श्रम को कुछ पैसे देकर खरीद लेता है। श्रम एवं पूंजी के सहयोग से जो उत्पादन होता है, उसका अधिकांश लाभ वही हड़प लेता है जिसकी पूंजी है। दत्तोपंत ठेंगड़ी ने इस चिंतन की एक भीतरी कमजोरी को पकड़ा। उन्होंने कहा कि व्यक्ति का असली जीवन तो भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद ही शुरू होता है। चिंतन, कला, संगीत, साहित्य, ललित कलाएं जीवन का अगला पड़ाव  हैं।

पहले पड़ाव पर तो आदमी और पशु दोनों एक समान ही होते हैं। दोनों की भौतिक जरूरतें एक समान होती हैं। अंतर केवल इतना ही है कि पशुओं की जीवन यात्रा इसी पड़ाव पर रुकी रहती है और मानव की मानव बनने की यात्रा इस पड़ाव के बाद ही शुरू होती है। लेकिन इस अगले पड़ाव की अनुमति  न साम्यवाद देता है और न ही पूंजीवाद देता है। इतना ही नहीं, साम्यवाद मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वर्ग संघर्ष के नाम पर करोड़ों लोगों की हत्या की वकालत करता है। रूस और चीन ने ऐसा किया भी। उधर पूंजीवाद भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उन लोगों का शोषण करता है जिनके श्रम को वह खरीदता है। एकात्म मानव दर्शन की व्याख्या करते हुए ठेंगड़ी ने कहा कि साम्यवाद व पूंजीवाद का एक ही विकल्प है। श्रम को भी पूंजी माना जाना चाहिए।

श्रम को खरीदा न जा सके, बल्कि उसको पूंजी का दर्जा दिया जाए तो किसी भी उत्पादन में पूंजी का निवेश करने वाला और श्रम का निवेश करने वाला बराबर का हिस्सेदार होना चाहिए। किसी व्यक्ति के दो हाथ, जिनसे वह श्रम करता है, उसकी पूंजी ही तो है। एक के पास जमीन है, दूसरे के पास हाथ हैं। तो दोनों के मिलने से अन्न का उत्पादन होता है। पूंजीवादी व्यवस्था में श्रम को खरीदने की परंपरा है जबकि श्रम को पूंजी मान लिए जाने से श्रम करने वाला उत्पादन में बराबर का हिस्सेदार होगा।

यही कारण था जब दत्तोपंत ठेंगड़ी ने भारतीय मजदूर संघ की स्थापना करते समय सूत्र दिया कि श्रम को भी पूंजी मानो तो साम्यवाद के प्रशंसक और पूंजीवाद के हिमायती दोनों एक साथ होकर इसका विरोध करने लगे। लेकिन आज विश्व भर में इस विकल्प की चर्चा शुरू हो गई है। ठेंगड़ी ने एकात्म मानव दर्शन के मूल तत्त्व की व्याख्या की। उपाध्याय ने भारतीय चिंतन के पुरुषार्थ चतुष्टय को जीवन विकास यात्रा का मूलाधार माना है। ये चार पुरुषार्थ हैं ः धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। साम्यवाद और पूंजीवाद केवल अर्थ पर ही रुका हुआ है। भारतीय जीवन दर्शन का आधार अर्थ और काम दोनों हैं। इन दोनों की साधना से मानव दर्शन विकसित होता है। दशगुरु परंपरा के प्रथम गुरु श्री नानक देव जी जब गृहस्थ आश्रम की साधना की बात करते हैं तो कहीं न कहीं इसी चतुष्टय की बात होती है। लेकिन अर्थ और काम की साधना पर धर्म की सीमा रेखा होना लाजिमी है अन्यथा अराजकता फैल सकती है।

ठेंगड़ी तो इससे भी एक कदम आगे जाते हैं। उनका मानना है कि आदमी को मानव जीवन का ध्येय क्या है, इस पर भी ध्यान देना चाहिए। यह ध्येय मोक्ष है। मोक्ष ध्येय का अभिप्राय आध्यात्मिक साधना से भी लिया जा सकता है। अर्थ, काम साधना और आध्यात्मिक साधना मिल कर ही मानव को सुखी बनाता है। दत्तोपंत ठेंगड़ी के इस चिंतन के व्यावहारिक पक्ष पर कार्य करने की आज अत्यंत आवश्यकता है। इस तरह जो समस्याएं साम्यवाद और पूंजीवाद हल नहीं कर पाए, वे समस्याएं एकात्म मानव दर्शन पर चलकर कौशल के साथ हल की जा सकती हैं। साम्यवाद व पूंजीवाद दर्शन की जहां अपनी-अपनी सीमाएं हैं, वहीं एकात्म मानव दर्शन अपने गुणों के कारण सीमा से परे माना  जाता है। आज हम कई समस्याओं को एकात्मक मानव दर्शन का अनुसरण करके बखूबी हल कर सकते हैं।

ईमेलः kuldeepagnihotri@gmail.com


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