कृषि और स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए नई चुनौती: रोहित पराशर, लेखक शिमला से हैं

By: रोहित पराशर, लेखक शिमला से हैं Oct 5th, 2020 7:05 am

रोहित पराशर

लेखक शिमला से हैं

ऐसा ही एक प्रयास हिमाचल सरकार की ओर से भी किया गया है। हिमाचल प्रदेश ने महाराष्ट्र के कृषि वैज्ञानिक पद्मश्री सुभाष पालेकर के तीस वर्षों के अनुसंधान के बाद ईजाद की गई सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती विधि को प्रदेश में शुरू किया है। इस खेती विधि के तहत अभी तक 80 हजार किसानों ने प्राकृतिक खेती विधि को अपना लिया है। दावा किया जा रहा है कि इस खेती विधि में किसानों की कृषि लागत में कई गुना कमी आई है तथा किसानों के मुनाफे में वृद्धि आंकी गई है…

सदियों से चली आ रहे कृषि क्षेत्र में रसायनों का दिनोंदिन बढ़ता प्रयोग कृषि और स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए नई चुनौतियां ला रहा है। ऐसा माना जाता है कि संगठित रूप से कृषि की शुरुआत लगभग 12 हजार साल पहले हुई। इस दौरान कृषि पूरी तरह से प्रकृति के साथ जुड़ी हुई थी और इसमें न ही तो किसी प्रकार का बाहरी दखल था और न ही इसकी जरूरत थी। लेकिन 20वीं सदी में कृषि में पैदावार को बढ़ाने के लिए बाहरी दखल शुरू हुआ और रसायनों को प्रयोग खेती में किया जाने लगा। द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्त होने के बाद घातक हथियार बनाने वाली कंपनियां जब बेकार हो गईं तो इन कंपनियों ने अपने बड़े-बड़े हथियार बनाने वाले कारखानों में कृषि क्षेत्र में प्रयोग होने वाले रसायनों और कीटनाशकों को तैयार करना शुरू किया। इससे कृषि में अधिक पैदावार पाने के लिए रसायनों के प्रयोग में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई, जबकि इससे पहले कृषि में रसायनों का अधिक प्रयोग नहीं होता था।

 गौर रहे कि 1910 के दशक में विदेशों से आए कृषि वैज्ञानिकों ने भारत के विभिन्न हिस्सों का दौरा कर भारत की कृषि व्यवस्था को दुनिया की सबसे बेहतरीन व्यवस्था कहा था, क्योंकि उस समय तक कृषि प्रकृति, गाय और पशुपालन के साथ जुड़ी हुई थी। लेकिन धीरे-धीरे वैज्ञानिक विकास के साथ यह माना जाने लगा कि रासायनिक खेती विधि ही एकमात्र विकल्प है। इसका परिणाम यह हुआ  कि हमारी जमीन की उर्वरा शक्ति कम होती गई। पानी के साथ भूमि के नीचे का पानी और पर्यावरण सब दूषित हो चुका है। वर्षों से रसायनों का प्रयोग करने से भूमि की उर्वरा क्षमता क्षीण होती जा रही है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आज से 20 साल पहले जितना रसायन हम प्रयोग में करते थे, आज उससे कहीं गुना अधिक प्रयोग कर रहे हैं। लेकिन पैदावार अब निरंतर बढ़ नहीं रही है। एक समय था जब शुरुआती समय में रसायनों के प्रयोग से पैदावार में बढ़ोतरी दर्ज की गई थी, लेकिन समय के साथ रसायनों के प्रयोग को बढ़ाने और लागत में कई गुना की बढ़ोतरी के बावजूद उसी अनुपात में उत्पादन नहीं मिल पा रहा है। या तो उत्पादन स्थिर हो गया या पहले के मुकाबले घट गया है। यह स्थिति केवल हिमाचल या हिंदुस्तान के अन्य राज्यों में नहीं है, बल्कि दुनिया भर के किसानों को इस स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। वर्ष 2015 में संयुक्त राष्ट्र संघ के अभिन्न अंग विश्व खाद्य संघ  ने एक चेतावनी जारी की थी कि अब केवल 60 कृषि वर्ष शेष रह गए हैं। अगर हम इसी तरह से खेतीबाड़ी करते रहेंगे तो दुनिया में केवल 60 वर्षों तक ही खेती की जा सकती है और इसके बाद मिट्टी कृषि करने लायक नहीं बचेगी।

 इतना ही नहीं, पिछले साल जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) ने वैश्विक तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री से अधिक की बढ़ोतरी को खतरे की घंटी के रूप में बताया है। इस रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी के तापमान में यदि 2 डिग्री तक ही बढ़ोतरी होती है तो भारत समेत कई देशों में कई अन्य क्षेत्रों के साथ कृषि क्षेत्र में इसका सबसे अधिक असर देखने को मिलेगा। तापमान में वृद्धि के साथ जहां मैदानी इलाकों में खेती नहीं हो सकेगी, वहीं ऊंचाई वाले क्षेत्रों में नई बीमारियों के साथ कीट-पतंगों की संख्या में बेतहाशा बढ़ोतरी होगी जिससे कृषि को बचाने के लिए अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। कृषि में रसायनों के बढ़ते प्रयोग से मानव शरीर में इनके भयंकर दुष्प्रभाव देखे गए हैं। कई वैज्ञानिक अनुसंधानों में कैंसर के पीछे मुख्य कारण खेती में रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग को माना गया है। गौर रहे कि दुनिया में हर साल कैंसर से 1.15 करोड़ लोगों की जानें जाती हैं। वहीं भारत में इनकी संख्या 7 लाख के करीब है। नेशनल इंस्टीट्यूट आफ  कैंसर प्रिवेंशन एडं रिसर्च के आंकड़ों के अनुसार भारत में वर्तमान में 22 लाख लोग कैंसर से ग्रसित हैं और इनके मामलों में हर साल बढ़ोतरी देखी गई है। भारत में सबसे अधिक अनाज पैदा करने वाले पंजाब राज्य के भटिंडा जिला में रसायनों का सबसे अधिक प्रयोग देखा गया है। इसके चलते इस जिला में कैंसर रोगियों की संख्या में भी बेतहाशा बढ़ोतरी देखी गई है और यहां से राजस्थान को जाने वाली रेलगाड़ी में सबसे अधिक यात्री कैंसर से प्रभावित होते हैं और अब इस रेलगाड़ी को कैंसर रेल के रूप में भी पहचाना जाने लगा है।

 रसायनों का प्रयोग न सिर्फ मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, बल्कि पर्यावरण के लिए भी घातक सिद्ध हो रहा है। एक शोध के अनुसार दुनिया में जो प्रदूषण है, उसके पीछे एक-चौथाई हिस्सेदारी कृषि और कृषि संबद्ध क्षेत्र जिम्मेवार है। रासायनिक खेती विधि जलवायु परिवर्तन में सीधे तौर पर बहुत असर डालती है। इन सभी दर्शनीय तथ्यों को देखते हुए अब देश-विदेश में पर्यावरण हितैषी और स्वास्थ्य के लिए लाभदायक कृषि पद्धतियों के विकास की दिशा में पिछले कुछ दशकों में कई व्यक्तियों और संस्थाओं ने एकल और सामूहिक प्रयास किए हैं। इनके सफल परिणाम अब सामने आने लगे हैं। ऐसा ही एक प्रयास हिमाचल सरकार की ओर से भी किया गया है। हिमाचल प्रदेश ने महाराष्ट्र के कृषि वैज्ञानिक पद्मश्री सुभाष पालेकर के तीस वर्षों के अनुसंधान के बाद ईजाद की गई सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती विधि को प्रदेश में शुरू किया है। इस खेती विधि के तहत अभी तक 80 हजार किसानों ने प्राकृतिक खेती विधि को अपना लिया है। दावा किया जा रहा है कि इस खेती विधि में किसानों की कृषि लागत में कई गुना कमी आई है और किसानों के मुनाफे में वृद्धि आंकी गई है।


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