लोकतंत्र की असलियत: पी. के. खुराना, राजनीतिक रणनीतिकार

By: पी. के. खुराना, राजनीतिक रणनीतिकार Oct 15th, 2020 12:08 am

पीके खुराना

राजनीतिक रणनीतिकार

हमारे देश में प्रधानमंत्री असल में लोकतांत्रिक ढंग से चुना गया तानाशाह है। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने अकेले ही निर्णय ले लिया कि इस देश को योजना आयोग की जरूरत नहीं है और योजना आयोग समाप्त हो गया। उन्होंने एक ही रात में 1000 और 500 के नोट रद्दी कर दिए। अकेला प्रधानमंत्री इतना शक्ति संपन्न है कि वह पूरे देश को किसी भी दिशा में हांक सकता है और यह उसका संवैधानिक अधिकार है…

छब्बीस जनवरी 1950 को हमारे देश में संविधान लागू हुआ और हम गणतंत्र हो गए। उसके बाद इसमें अब तक 124 संशोधन हो चुके हैं। नवंबर 1971 में हमारे संविधान में 24वां संविधान संशोधन लागू हुआ जिससे ‘संसद की सर्वोच्चता’ स्थापित की गई। एक प्रावधान यह भी था कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार काम करेंगे। बाद में 42वें संशोधन से यह कानून बन गया कि राष्ट्रपति संसद द्वारा पारित बिलों को स्वीकृति देने के लिए बाध्य हैं। संविधान के 38वें संशोधन से राष्ट्रपति और राज्यपालों को अध्यादेश जारी करने का अधिकार मिला, परिणामस्वरूप संसद और विधानसभाओं की छुट्टी के दिनों में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को कोई भी अध्यादेश लाने की छूट मिल गई। बयालीसवें संविधान संशोधन के माध्यम से भारतवर्ष में निर्देशक सिद्धांत अस्तित्व में आए और उन्हें मौलिक अधिकारों के मुकाबले वरीयता दे दी गई और मौलिक अधिकार ‘मौलिक’ नहीं रह गए। संसद और विधानसभाओं की अवधि पांच वर्ष से बढ़ा कर छह वर्ष कर दी गई, संसद में कोरम की आवश्यकता समाप्त कर दी गई, सर्वोच्च न्यायालय से राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित बिलों की सुनवाई का अधिकार छीन लिया गया, उच्च न्यायालयों से संसद द्वारा पारित बिलों की सुनवाई का अधिकार वापस ले लिया गया और सर्वोच्च न्यायालय से चुनाव संबंधी याचिकाओं की सुनवाई का अधिकार भी छिन गया। यह कानून लागू हो गया कि संसद जो भी बिल पास करेगी, राष्ट्रपति को उस पर सहमित देनी ही होगी।

 संयोग यह रहा कि उसके बाद सरकार बदल गई और नई सरकार ने 42वें संविधान संशोधन की बहुत सी धाराओं को निरस्त कर दिया तथा राष्ट्रपति को इतनी सी छूट दे दी कि वे संसद द्वारा पारित किसी बिल को संसद के विचारार्थ वापस भेज सकते हैं, लेकिन यदि संसद उसे फिर से पास कर दे तो राष्ट्रपति को उस पर सहमति देनी ही होगी। इसके अलावा सर्वोच्च न्यायालय को संविधान के मूल स्वरूप को बरकरार रखने की स्वतंत्रता भी वापस दे दी गई। बयालीसवां संविधान संशोधन इतना व्यापक था कि उसने वस्तुतः संविधान का कत्ल कर डाला था। स्पष्ट है कि संविधान खुद अपनी रक्षा नहीं कर पाया। मीडिया पर सेंसर था, न्यायालय चुप थे, नौकरशाही डरी हुई थी। उन दिनों श्री संजय गांधी के पास कोई संवैधानिक पद नहीं था, लेकिन सरकार की सारी शक्तियां उनके हाथ में थीं। उनका शब्द ही कानून था। भारतवर्ष वह स्थिति भुगत चुका है। वह इंदिरा गांधी और संजय गांधी की तानाशाही का जमाना था। यह हम सबका सौभाग्य है कि न जाने कैसे श्रीमती इंदिरा गांधी को यह सूझा कि यदि चुनाव हो जाएं और वे दोबारा चुन ली जाएं तो ताकत तो सारी उनके हाथ में रहेगी ही, वे एक लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई प्रधानमंत्री का तगमा भी बरकरार रख पाएंगी। श्रीमती इंदिरा गांधी और श्री संजय गांधी के खौफ  से थर्राए सीबीआई के तत्कालीन अधिकारियों ने उन्हें रिपोर्ट दी कि यदि चुनाव होते हैं तो वे बहुत बड़े बहुमत से जीतेंगी। इस रिपोर्ट के भुलावे में आकर उन्होंने समय से पूर्व ही मध्यावधि चुनाव की घोषणा कर दी और उनकी तानाशाही से तंग जनता ने उन्हें गद्दी से उतार फेंका। नई जनता सरकार ने 42वें संविधान संशोधन के अधिकांश प्रावधानों को निरस्त कर दिया। सच यह है कि हमारा संविधान देश को तानाशाही से नहीं बचा पाया, हमारा संविधान खुद को ही नहीं बचा पाया। जनता ने श्रीमती इंदिरा गांधी को गद्दी से उतारा, तो जितना-सा संविधान बचा है उसका श्रेय संविधान को नहीं, जनता को है। इसके बाद सन् 1985 में लागू दलबदल विरोधी कानून यानी 52वें संविधान संशोधन ने राजनीतिक दलों के मुखिया को अपने दल के अंदर सर्वशक्तिमान बना डाला जिसने पार्टी सुप्रीमो की अवधारणा को जन्म दिया।

अब यदि 24वें, 38वें, 42वें और 52वें संविधान संशोधनों को मिलाकर इनके समग्र प्रभाव को देखें तो भारतीय जनतंत्र की एक अलग ही तस्वीर नजर आती है। चौबीसवें संविधान संशोधन ने संसद को असीम शक्तियां दे दीं, यहां तक कि संसद के पास यह शक्ति आ गई है कि वह चुनाव आयोग या न्यायालय जैसी किसी भी संवैधानिक संस्था को समाप्त कर दे या खुद संविधान को ही निरस्त कर दे। संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार संसद सर्वोच्च है, लेकिन यह समझना रुचिकर होगा कि क्या संसद सचमुच सर्वोच्च है? 52वें संविधान संशोधन ने राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के लिए पार्टी आलाकमान के निर्देश मानना अनिवार्य कर दिया। पार्टी का अध्यक्ष ही सर्वेसर्वा हो गया और उनके आदेश मानना पार्टी के सदस्यों की विवशता हो गई। पार्टी अध्यक्ष के अलावा हर दूसरा व्यक्ति अध्यक्ष का गुलाम हो गया। संसद में बिल पर वोटिंग के समय पार्टी ह्विप के कारण पार्टी के आदेशानुसार वोट देना सांसदों की मजबूरी हो गई। इसका असर यह हुआ कि वोट की प्रासंगिकता ही समाप्त हो गई क्योंकि वोटिंग से पहले ही पता होता था कि संसद में पेश किए बिलों पर पक्ष और विपक्ष में कितने-कितने वोट पड़ेंगे। सत्तासीन दल के पास चूंकि बहुमत होता है, इसलिए सरकार द्वारा पेश हर बिल का कानून बन जाना भी एक औपचारिकता हो गई। इससे विपक्ष की प्रासंगिकता समाप्त हो गई क्योंकि विपक्ष न तो कोई बिल पास करवा सकता है, न संशोधित करवा सकता है और न रुकवा सकता है।

 विपक्ष की बात तो छोडि़ए, सत्तासीन दल का भी कोई ऐसा सदस्य जो मंत्री न हो, अगर सदन में कोई बिल पेश करे तो उसे निजी बिल माना जाता है और संसद का रिकार्ड बताता है कि पिछले 50 वर्षों में एक भी निजी बिल पास नहीं हुआ है। प्रधानमंत्री और उसके दो-तीन विश्वस्त साथी ही निर्णय लेते हैं कि संसद में कौन सा बिल पेश किया जाए, यानी संसद बेमानी है, पार्टी बेमानी है, मंत्रिपरिषद बेमानी है, संविधान बेमानी है। भारतीय शासन व्यवस्था का सांगोपांग विश्लेषण करने वाले भानु धमीजा की अत्यंत लोकप्रिय पुस्तक ‘ह्वाई इंडिया नीड्स दि प्रेजिडेंशियल सिस्टम’ का दूसरा संस्करण भी शीघ्र आने वाला है। इसी तरह एमेजॉन पर उपलब्ध मेरी पुस्तक ‘भारतीय लोकतंत्र ः समस्याएं और समाधान’ में संविधान के इन संशोधनों की विस्तृत समीक्षा है जिनके कारण हमारा संविधान अप्रासंगिक और अर्थहीन हो गया है। हम दोनों का उद्देश्य यही है कि हमारे देश के नागरिक जागरूक हों और शासन-प्रशासन में उनकी भागीदारी सुनिश्चित हो। हमारे देश में प्रधानमंत्री असल में लोकतांत्रिक ढंग से चुना गया तानाशाह है। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने अकेले ही निर्णय ले लिया कि इस देश को योजना आयोग की जरूरत नहीं है और योजना आयोग समाप्त हो गया। उन्होंने एक ही रात में 1000 और 500 के नोट रद्दी कर दिए। अकेला प्रधानमंत्री इतना शक्ति संपन्न है कि वह पूरे देश को किसी भी दिशा में हांक सकता है और यह उसका संवैधानिक अधिकार है। इस प्रकार हमारा अपना संविधान ही संविधान को नष्ट कर रहा है। हमारा संविधान इतना कमजोर है कि यह किसी प्रधानमंत्री को तानाशाह बनने से रोकने में पूर्णतः असमर्थ है। समय आ गया है कि हम इस सच को स्वीकार करें और इस स्थिति को बदलने के लिए आवश्यक कदम उठाएं।

ईमेलः indiatotal.features@gmail.com


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