पुलिस में राजनीतिक हस्तक्षेप : प्रो. एनके सिंह, अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन सलाहकार

By: प्रो. एनके सिंह, अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन सलाहकार Oct 16th, 2020 12:08 am

प्रो. एनके सिंह

अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन सलाहकार

ये सभी केस दिखाते हैं कि बड़े स्तर पर पुलिस कार्य में राजनीतिक हस्तक्षेप हो रहा है तथा व्यावसायिक मोर्चे पर पुलिस विफल हो रही है। आपराधिक कानून में सुधार की बड़ी जरूरत है तथा राजनीतिक हस्तक्षेप से पुलिस का संरक्षण होना चाहिए। पहली बड़ी समस्या है पुलिस कर्मियों की कमी। भारत में एक लाख जनसंख्या पर 192 पुलिस कर्मी हैं, जबकि संयुक्त राष्ट्र का मापदंड है कि प्रति एक लाख जनसंख्या पर 222 पुलिस कर्मी होने चाहिए। हमें और पुलिस कर्मियों की जरूरत है तथा नवीनतम प्रौद्योगिकी के साथ आधुनिकीकरण होना चाहिए। दूसरा निर्णायक विचारणीय पहलू है सीनियर कैडर में नियुक्ति। अगर राजनेता इसी तरह कार्य करते रहे तो पुलिस के कार्यों में राजनीतिक हस्तक्षेप होता रहेगा। सबसे बड़ा मसला एक स्वतंत्र चयन प्रणाली के लिए रास्ते व साधन खोजना है…

वर्तमान में कानून और व्यवस्था पुलिस के कार्यों में राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण प्रभावशाली ढंग से दूषित है। इसके कारण अब पुलिस सेवा प्रभावकारी नहीं रह गई है। इस समय इस बात की सख्त जरूरत है कि विविध निहित स्वार्थों वाले राजनेताओं के हस्तक्षेप से पुलिस को संरक्षण मिले। न केवल नेता, बल्कि अन्य अभिप्रेरित समूह भी कानून और व्यवस्था वातावरण में हस्तक्षेप कर रहे हैं। यह पुलिस और राजनीतिक हस्तक्षेप सरकार की कार्यशैली में अवश्यंभावी है क्योंकि राज्य की नींव कानून के कार्यान्वयन पर टिकी है।

भारत के संविधान ने कानून और व्यवस्था को जांच के केंद्रीय क्षेत्र और राष्ट्रीय हित को छोड़ते हुए राज्य का विषय बनाया है। पुलिस की कार्यशैली में सुधार तथा कानून और व्यवस्था के विषय को समवर्ती सूची में रखने के लिए अभियान चलते रहे हैं। हाल के कई मामलों ने राज्य पुलिस तथा केंद्रीय एजेंसियों की कार्यशैली पर सवाल उठाए हैं। फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की संदिग्ध मौत के कारण कई सवाल उठ खड़े हुए हैं। सुशांत फांसी पर लटक कर मर गए अथवा किसी अन्य तरीके से मरे, इस मामले में अभी भी विवाद है। मुंबई के पुलिस कमिश्नर इस मामले को व्यक्तिगत रूप से ले रहे हैं तथा टेलीविजन चैनल के मालिक अर्नब गोस्वामी से लड़ाई लड़ रहे हैं। यह केस ‘क्लासिकल’ है क्योंकि यह संवैधानिक महत्त्व के सवाल उठाता है। साथ ही यह भी कि ऐसे मसले जो स्वरूप में एकात्मक या संघीय सरकार के मामले में चार्टर के मूल चरित्र से उठते हैं।

यहां पर महाराष्ट्र और बिहार के बीच मतभेद हैं क्योंकि केस को बिहार में दर्ज किया गया तथा मृत्यु मुंबई में हुई। सुशांत सिंह राजपूत के पिता द्वारा पटना में दायर की गई प्राथमिकी के कारण यह संभव हो पाया कि बिहार पुलिस इसकी जांच में जुट गई। मुंबई पुलिस ने स्पष्ट रूप से इसका विरोध किया क्योंकि उसने बिहार पुलिस द्वारा भेजे गए अधिकारी को क्वारंटाइन के नाम पर हिरासत में ले लिया। इसके अलावा दोनों निकायों के मध्य अंतर्विरोध भी था। शिव सेना द्वारा शासित सरकार ने पहले सीबीआई को केस सौंपने का विरोध किया। बाद में बिहार सरकार ने जब इस मामले को सीबीआई को सौंपने की सिफारिश की तो यह केस केंद्र के राडार पर आ गया।

अब कई सवाल इस बात पर उठ रहे हैं कि राज्य सरकार केंद्रीय एजेंसी को केस सौंपने के खिलाफ आरपार की लड़ाई क्यों लड़ रही थी? राज्य को भय किस बात का था तथा इसने अपराध के खुलासे का विरोध क्यों किया? इस मामले में इतने ‘लूपहोल्स’ हैं कि तीन माह का समय बीत जाने के बाद तथा सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय और नारकोटिक्स ब्यूरो जैसी तीन संस्थाओं द्वारा जांच किए जाने के बावजूद मूल प्रश्न का जवाब कोई नहीं जानता है। सुशांत को किसने मारा, यह कोई नहीं जानता है। अगर उसने ही आत्महत्या की तो उसने ऐसा क्यों किया? आत्महत्या की थ्यूरी में इतनी असंगति क्यों है, जबकि गर्दन पर घाव के निशान हैं या लटकने के लिए पोजीशन हाइट प्रश्नयोग्य क्यों बन रही है।

सवाल यह भी है कि सुशांत की सहयोगी दिशा को किसने मारा? साथ ही अगर यह मान लिया जाए कि उसने भी आत्महत्या ही की, तो इसके पीछे क्या कारण रहे? उसका पुरुष मित्र तीन महीने से कहां गायब है, जबकि वह इस बात का गवाह है कि दिशा को कैसे मारा गया? एम्स ने विसरा जांच पर अभी तक कोई स्पष्ट प्रकाश नहीं डाला है तथा डा. गुप्ता की रिपोर्ट सवाल योग्य है।

यह स्पष्ट है कि केस से जुड़े तीन राजनीतिक दल हैं जिनमें शिव सेवा, भाजपा तथा जनता दल यूनाइटेड शामिल हैं। पुलिस पर निरंतर दबाव है तथा उसके प्रमुखों का राजनीतिकरण हो गया है, क्योंकि एक ने अपने पद से इस्तीफा देकर बिहार, जहां चुनाव होने वाले हैं, में जेडीयू को ज्वाइन कर लिया है। उधर मुंबई के पुलिस प्रमुख टीवी स्टार हैं क्योंकि वह स्क्रीन पर चैनलों से लड़ाई लड़ रहे हैं। अर्नब गोस्वामी तथा कंगना रणौत पुलिस यंत्रणा के खिलाफ बहादुरी से लड़ रहे हैं, नहीं तो इनके बिना संदिग्ध मौतों के ये दोनों मामले आत्महत्याएं मानकर भुला दिए गए होते। इसी के कारण यह बात सामने आ पाई कि नशे का खूब व्यापार हो रहा है। मैं केवल एक केस ले रहा हूं, जबकि अब कई केस हैं। इनमें राजस्थान के पुजारी का केस भी है जिसे जिंदा जला दिया गया।

ये सभी केस दिखाते हैं कि बड़े स्तर पर पुलिस कार्य में राजनीतिक हस्तक्षेप हो रहा है तथा व्यावसायिक मोर्चे पर पुलिस विफल हो रही है। आपराधिक कानून में सुधार की बड़ी जरूरत है तथा राजनीतिक हस्तक्षेप से पुलिस का संरक्षण होना चाहिए। पहली बड़ी समस्या है पुलिस कर्मियों की कमी। भारत में एक लाख जनसंख्या पर 192 पुलिस कर्मी हैं, जबकि संयुक्त राष्ट्र का मापदंड है कि प्रति एक लाख जनसंख्या पर 222 पुलिस कर्मी होने चाहिए। हमें और पुलिस कर्मियों की जरूरत है तथा नवीनतम प्रौद्योगिकी के साथ आधुनिकीकरण होना चाहिए। दूसरा निर्णायक विचारणीय पहलू है सीनियर कैडर में नियुक्ति। अगर राजनेता इसी तरह कार्य करते रहे तो पुलिस के कार्यों में राजनीतिक हस्तक्षेप होता रहेगा। सबसे बड़ा मसला एक स्वतंत्र चयन प्रणाली के लिए रास्ते व साधन खोजना है।

यह सुखद बात है कि सरकार सुधारों पर विचार कर रही है तथा यह समय की पहली जरूरत भी है। सुशांत की मौत के मामले में जनता चाहती है कि इस मामले में सच्चाई क्या है। उसकी मौत की गुत्थियां जल्द से जल्द खोली जानी चाहिए। आशा की जानी चाहिए कि इस मामले में सभी सवालों के जवाब देश के सामने खुलकर सामने आएंगे तथा सुशांत के परिजनों को न्याय मिलेगा। इस केस के संबंध में सुशांत के पिता के वकील के जो आक्षेप हैं, उन पर गौर करने की जरूरत है। वकील का मानना है कि सुशांत सिंह राजपूत जैसा युवक आत्महत्या कर ही नहीं सकता। यह हत्या है या आत्महत्या, इसे जनता के सामने जरूर लाया जाना चाहिए।

ई-मेलः singhnk7@gmail.com


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