बिहार जनादेश के निहितार्थ: कुलदीप चंद अग्निहोत्री, वरिष्ठ स्तंभकार

By: कुलदीप चंद अग्निहोत्री, वरिष्ठ स्तंभकार Nov 14th, 2020 12:08 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

नरेंद्र मोदी की सरकार ने पहली बार इन मुसलमानों को हिंदुओं के काल्पनिक डर से बाहर निकालने का प्रयास किया। सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास। उसमें कुछ सीमा तक सफलता भी मिली क्योंकि सरकार की मंशा और नीयत साफ थी। इससे भारतीय मुसलमान तो प्रसन्न हुए। लेकिन एसटीएम मूल के मुसलमानों को चिंता हुई। ओवैसी का काफिला उसी चिंता में से निकला है और उसने सीमांचल में पांच सीटें जीत कर इतिहास के रथ चक्र को पीछे घुमाने का प्रयास किया है…

बिहार के विधानसभा चुनाव कई कारणों से महत्त्वपूर्ण हो गए थे। सबसे पहला कारण तो यही था कि कोरोना के फैलने और उसे रोकने के प्रयासों के बाद होने वाले ये पहले चुनाव थे। कोरोना दुनिया भर में फैला और सरकारों ने अपने-अपने तरीके से उसे फैलने से रोकने के प्रयास किए। इन प्रयासों के तौर-तरीकों पर भारत में भी अनेक राजनीतिक दलों ने सवाल खड़े किए। कामकाज ठप हो जाने के कारण लाखों मजदूरों को अपने घरों को वापस जाना पड़ा। ये सब बातें इन चुनावों में मुख्य मुद्दा बन गई थीं। इसलिए कहा जा सकता है कि यह चुनाव चाहे बिहार की विधानसभा के लिए हो रहा था, लेकिन यह भी कहा जाने लगा था कि यह प्रकारांतर से केंद्र की भाजपा सरकार के कामकाज पर भी जनादेश माना जाएगा। हालात इतने आसान भी नहीं थे। बिहार जैसे पिछड़े राज्य में कोरोना ने, जो किसी भी सरकार के बस में नहीं था, लोगों की रोजी-रोटी छीन कर क्या कहर बरपाया होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। लेकिन सवाल सरकार की नीयत और मंशा का भी था। क्या मोदी सरकार की नीयत और मंशा में खोट था, यह इस चुनाव में सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न था। यदि जनता को विश्वास हो जाए कि सरकार की नीयत और मंशा में कोई खोट नहीं है तो वह विपरीत परिस्थितियों में भी सरकार का साथ देती है। बिहार चुनाव परिणामों ने इसी पर मोहर लगाई है। बाकी सारे आंकड़ों के विश्लेषण हैं। नीतीश बाबू को पासवान परिवार सबक सिखाना चाहता था।

असमय राम विलास पासवान के गुजर जाने के कारण यह जिम्मेदारी अकेले चिराग पासवान के कंधों पर आ गई थी। चिराग ने यह जिम्मेदारी बखूबी निभा दी। यह ठीक है कि चिराग की इस रणनीति से कुछ स्थानों पर भाजपा को भी नुकसान हुआ, लेकिन जद-यू को चोट गहरी लगी। पूछा जा सकता है कि इससे चिराग को क्या मिला? आत्मसंतोष ही कहा जा सकता है। लेकिन भाजपा ने नीतीश बाबू को फिर से मुख्यमंत्री घोषित कर यह आत्मसंतोष भी छीन लिया है। बिहार के एनडीए में नीतीश बाबू लोगों के गुस्से का शिकार हुए। भाजपा का चेहरा नरेंद्र मोदी के रूप में था। इन परिणामों से यह भी लगता है कि जनता का भाजपा पर भरोसा बरकरार रहा और उस भरोसे का कुछ लाभ जद-यू को भी मिला। लालू परिवार अभी भी बिहार की राजनीति को प्रभावित करता है। जंगलराज की यादें अपनी जगह, लेकिन लालू परिवार का करिश्मा बरकरार है। कुछ राजनीतिक विश्लेषण राजद की सफलता का श्रेय तेजस्वी यादव को देना चाहते हैं, लेकिन इसका श्रेय बहुत बड़ी सीमा तक लालू को ही जाता है। कहा जा रहा है कि तेजस्वी ने पोस्टरों में लालू की तस्वीर भी नहीं लगाई थी, यह उस बड़ी रणनीति का हिस्सा हो सकता है जिसके चलते लालू स्वयं ही बेटे को भविष्य का नेता स्थापित करना चाहते हैं।

 लालू जानते हैं कि यदि यह प्रचारित किया जाए कि राजद लालू के कारण आगे बढ़ रहा है तो इसका भविष्य में परिवार को क्या लाभ हो सकता है? इसी रणनीति के कारण इन चुनावों में तेजस्वी आगे-आगे थे, लेकिन लालू की छत्रछाया सब जगह थी। पर लालू यादव पूरी रणनीति में एक गच्चा खा ही गए। वे बिहार में न तो सोनिया कांग्रेस की शक्ति का आकलन कर सके और न ही उसके भीतर उग आई बीमारियों के लक्षण देख पाए। लगता है वे कांग्रेस के बड़े नाम के चक्कर में धोखा खा गए। उन्होंने लड़ी जाने वाली 243 सीटों में से 70 सीटें कांग्रेस के हवाले करके अपने परिवार के लिए शुरुआती अपशकुन कर लिया। सभी जानते हैं कि लालू यादव तो शकुन-अपशकुन का बहुत विचार करते हैं। फिर वे अपशकुन को पहचान क्यों नहीं पाए? पहले ग्रास में ही मक्खी? सोनिया कांग्रेस ने सही अर्थों में लालू परिवार को कुर्सी से नीचे खींच लिया। लालू परिवार का तो जो होगा, सो होगा, लेकिन इन चुनावों ने सोनिया कांग्रेस को बेपर्दा कर दिया। कुछ समय बाद ही पश्चिम बंगाल के चुनाव आने वाले हैं। सोनिया कांग्रेस को वहां भी साथियों की जरूरत है। सुना जा रहा था कि भारतीय मतदाताओं के लगातार हो रहे प्रहारों से घायल वामपंथी समूह इस बार सोनिया कांग्रेस के साथ मिल कर चुनाव लड़ने का मन बना चुका था। लेकिन बिहार के चुनाव परिणामों से जहां कांग्रेस बेपर्दा हो गई, वहीं सोलह सीटें जीतने के कारण वामपंथी समूह के मुंह को खून लग गया है, जिसके चलते बंगाल में सीटों के तालमेल में ही कांग्रेस फिसड्डी हो सकती है। अब बचा हैदराबाद वाले ओवैसी का मामला। उनकी पार्टी ने सीमांचल बिहार में पांच सीटें जीत कर लालू समेत सभी को चौंका दिया है। बिहार में मुसलमानों की दो श्रेणियां हैं। पहली श्रेणी के मुसलमान खांटी भारतीय हैं यानी वे कभी अरसा पहले मतांतरित हो गए थे। दूसरी श्रेणी में एसटीएम मूल के मुसलमान आते हैं। यानी सैयद, तुर्क व मुगल मंगोल। एसटीएम मूल के ये मुसलमान या तो विदेशी हमलावरों के साथ हिंदुस्तान में आए थे या फिर विदेशी अरबों, तुर्कों और मुगल मंगोलों का हिंदुस्तान में राज स्थापित हो जाने के बाद उनके दरबारों में शामिल होने के लिए अपने-अपने मुल्कों से यहां आ गए थे।

मौलाना अबुल कलाम आजाद एसटीएम मूल के मुसलमानों की संख्या पांच प्रतिशत बताते हैं। सीमांचल बिहार दरअसल मुस्लिम बहुल इलाका है। इन मुसलमान वोटों को पहले कांग्रेस हड़प लेती थी। वह इन्हें डराती थी कि हमारी सुरक्षा में रहो, नहीं तो हिंदू आपको खा जाएंगे। उसके बाद इनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी लालू ने लेनी शुरू कर दी। बाद में तो और भी कई पार्टियां सुरक्षा की गारंटी देकर इन मुसलमानों के वोट झपटने लगीं। लेकिन तरीका सभी का एक ही रहा। इन मुसलमानों को हिंदुओं का काल्पनिक डर दिखाओ। नरेंद्र मोदी की सरकार ने पहली बार इन मुसलमानों को हिंदुओं के काल्पनिक डर से बाहर निकालने का प्रयास किया। सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास। उसमें कुछ सीमा तक सफलता भी मिली क्योंकि सरकार की मंशा और नीयत साफ थी। इससे भारतीय मुसलमान तो प्रसन्न हुए। लेकिन एसटीएम मूल के मुसलमानों को चिंता हुई। ओवैसी का काफिला उसी चिंता में से निकला है और उसने सीमांचल में पांच सीटें जीत कर इतिहास के रथ चक्र को पीछे घुमाने का प्रयास किया है। इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे, यह तो भविष्य ही बताएगा। लेकिन एक प्रश्न अवश्य खड़ा हो गया है कि क्या भारतीय मुसलमानों का नेतृत्व उनके अपने हाथों में रहेगा या फिर एसटीएम मूल के पास जाएगा? इसका अगला दृश्य बंगाल में दिखाई देगा। बिहार से बंगाल तक की यात्रा की प्रतीक्षा करनी होगी।

ईमेलः kuldeepagnihotri@gmail.com


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