गीता रहस्य

By: Nov 7th, 2020 12:10 am

स्वामी रामस्वरूप

हम सदा वेद विद्या की सुनने की क्रिया से जुड़े रहें। इससे कभी पृथक न हों। यही हमारा दुर्भाग्य है कि हम वेदों की वाणी को आचार्य के मुख से लगभग महाभारत काल अर्थात पांच हजार तीन सौ वर्ष से सुनना त्याग चुके हैं। फलस्वरूप वेदों में ईश्वर का दिया ज्ञान समाप्त प्रायः होता चला गया और अधिकतर वेद विरुद्ध मनगढंत भक्ति का उदय होता गया…

गतांक से आगे…

भाव यहां भी श्रीकृष्ण महाराज जो कि पूर्ण योगेश्वर है वह ब्रह्म में लीन हुए स्वयं को ब्रह्म के समान अनुभव करते हुए बोल रहे हैं। श्लोक 10/1 में भी ‘अहम’ पद परमात्मा के लिए प्रयोग किया गया है।

भाव यह है कि श्रीकृष्ण महाराज स्वयं ब्रह्म में लीन हुए स्वयं को ब्रह्म की स्थिति में स्थित करके कह रहे हैं। अतः अर्थ यह होगा कि परमात्मा में स्थित हुए श्रीकृष्ण महाराज कह रहे हैं कि हे अर्जुन मेरे परम कल्याणकारी वचन सुन। क्योंकि तू मुझमें प्रेम रखने वाला है। वेदों में ‘श्रुधि’ अथवा ‘श्रणु’ आदि पद विशेषकर तीन स्थान पर प्रयोग किए गए हैं। प्रथम परमेश्वर वेदों में कह रहा है कि मेरे वेद के वचनों को सुनो। जैसे सामवेद मंत्र 50 में परमेश्वर कह रहा है‘श्रुत्कर्ण’ हे सुनने में समर्थ प्राणी ‘श्रुधि’ सुन।

दूसरा वेदों के विद्वानों से यज्ञ में वेद मंत्रों के उदाहरण, अर्थ, भावार्थ आदि सुनें और विद्वान बनें। जैसा कि ऋग्वेद मंत्र 8/85/4 में कहा (कृष्णस्य) संश्यो को नष्ट करने वाले विद्वान के ( हवम) वचनों (श्रुतम) सुनो। तीसरा ब्रह्म का जिज्ञासु/शिष्य अपने आचार्य से वेद विद्या सुनने की इच्छा करता है जैसा कि अथर्ववेद मंत्र 1/1/2 में शिष्य कहता है (वाचस्पते) वेद वाणी के स्वामी आचार्य (पुनःऐहि) कृप्या बार-बार मुझे प्राप्त हो। अर्थात हम विद्वानों का दर्शन सत्संग नित्य प्रति अथवा अधिक से अधिक करें।

मंत्र में आगे कहा कि ये सत्संग और दर्शन क्यों करें। तो (श्रुतम) आचार्य से सुना हुआ ज्ञान (मयि) मेरे में और (यथि एव) मेरे में ही प्राप्त हो। ऋग्वेद मंत्र 1/1/4 में कहा (श्रुति संगमेमहि) हम सदा वेद विद्या की सुनने की क्रिया से जुड़े रहें। इससे कभी पृथक न हों। यही हमारा दुर्भाग्य है कि हम वेदों की वाणी को आचार्य के मुख से लगभग महाभारत काल अर्थात पांच हजार तीन सौ वर्ष से सुनना त्याग चुके हैं।

फलस्वरूप वेदों में ईश्वर का दिया ज्ञान समाप्त प्रायः होता चला गया और अधिकतर वेद विरुद्ध मनगढंत भक्ति का उदय होता गया। फलस्वरूप वेदों में ईश्वर का दिया हुआ ज्ञान समाप्त प्रायः होता चला गया।                              – क्रमशः


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