सामाजिक प्रगति

By: स्वामी विवेकानंद Nov 21st, 2020 12:20 am

गतांक से आगे…

विभिन्न शास्त्र केवल पुण्य प्राप्ति के ही साधन बनाते हैं। सामाजिक प्रगति शब्द का उतना ही अर्थ होता है, जितना गर्म बर्फ या अंधेरा प्रकाश। अंततः सामाजिक प्रगति जैसी कोई चीज नहीं। नास्तिक उदार हो सकता है पर धार्मिक मनुष्य को उदार नहीं होना चाहिए। अगर मैं कहता हूं कि मैं दूसरे धर्मों के प्रति सहनशील हूं, तो मैं समझता हूं कि कोई धर्म अन्याय कर रहा है और मैं दयापूर्वक क्षमा कर रहा हूं। कोई भी मनुष्य किसी के साथ दया कर सकता है, यह समझना क्या ईश्वर दोषारोपण करना नहीं है। मैं अतीत के सब धर्मों को स्वीकार करता हूं तथा उनकी पूजा भी करता हूं। मैं ईश्वर की पूजा सभी धर्मों के अनुसार करता हूं, चाहे वह किसी भी रूप में उसकी पूजा करते हों। मैं केवल इतना ही नहीं करूंगा मैं भविष्य में आने वाले सभी धर्मों के लिए भी अपने हृदय को खुला रखूंगा। क्या ईश्वर का ग्रंथ समाप्त हो गया।

 संसार की आध्यात्मिक अनुभूतियां एक अद्भुत ग्रंथ हैं। वेद आदि धर्म ग्रंथ उसके अलग-अलग पन्ने हैं और इस विराट ग्रंथ के अभी और भी पन्ने प्रकाशित होने हैं। अतीत में जो कुछ हुआ है, हम उसे ग्रहण करेंगे, वर्तमान के ज्ञान का उपभोग करेंगे तथा भविष्य में आने वाली बातों को ग्रहण करने के लिए अपने हृदय के सभी द्वारों को खुला रखेंगे। अतीत के ऋषियों को प्रणाम, वर्तमान के महापुरुषों को प्रणाम तथा भविष्य में जो आएंगे, उन सबको प्रणाम। वेदांत का यह पहला कथन है कि संसार दुःखमय है, शोक का आगार है, अनित्य है इत्यादि। वेदांत को पहले-पहले खोलते ही दुःखी लोग सुख सुनकर अस्थिर हो उठते हैं, परंतु उसके अंत में परम सुख की अर्थात यथार्थ सुख हो सकता है। इस कथन को हम लोग स्वीकार नहीं करते और कहते हैं कि इंद्रियातीत वस्तु में ही यथार्थ सुख है और यह सुख, यह आनंद सबके भीतर ही वर्तमान है।

हम लोग जगत में जिस सुखवाद को देख रहे हैं, जो मत कहता है कि यह जगत परम सुख का स्थल है, वह मनुष्य को इंद्रिय परायण बनाकर, सर्वनाश की ओर ले जाएगा। अद्वैतवाद के विरुद्ध जितने तर्क-वितर्क किए जाते हैं। उन सबका मूल है कि उसमें इंद्रिय सुख-भोग का स्थान नहीं है। हम आनंद के साथ इस कथन को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं। मैं वेद का उतना ही अंश मानता हूं, जितना युक्तिसंगत है। वेद के अनेक अंश तो स्पष्ट रूप से स्वविरोधी हैं।  पाश्चात्य देशों में या अनुप्राणित कहने से जो समझा जाता है, हमारे शास्त्र उस अर्थ में वेद अनुप्राणित नहीं करते। तो फिर वह है क्या? वह है भगवान के समदाय ज्ञान समष्टि। यह ज्ञान समष्टि युग के आरंभ में प्रकाशित या व्यक्त होती है और युगों के अंत में सूक्ष्म या अव्यक्त भाव धारण करती है। युग का आरंभ होने पर वह पुनः प्रकाशित होती है।


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