अहा कुर्सी! आह कुर्सी!
अशोक गौतम
ashokgautam001@Ugmail.com
कुर्सी घर में ही रहे, इसलिए उन्होंने कुर्सी महिला को आरक्षित होने के चलते अपनी जगह अपनी बीवी खड़ी कर दी। पहले तो वे सोचे कि कुर्सी को लेकर बीवी को क्यों घसीटें, क्यों न खुद लिंग ही बदलवा लें। कम से कम बरसों के कुर्सी पर बैठ खाने का उनका अनुभव तो बना रहेगा। पर कुछ और सोचे तो लगा घर में दो-दो औरतें एक साथ। और उन्होंने लिंग बदलवाने वाला आइडिया बदल अपनी बीवी को कुर्सी के मैदान में जैसे-तैसे मना उतार दिया। तब उनकी बीवी ने उनको कहा भी, ‘देखो जी, माना मेरी लड़ने में मास्टरी है। पर मैं घर में ही लड़ सकती हूं। ज्यादा हुआ तो अपने पड़ोसियों से लड़ ली। बाहर की लड़ाई का मुझे कुछ भी पता नहीं। ये कुर्सी के लिए लड़ना मेरे बस से बाहर है।’ तो उन्होंने उसे समझाते कहा, ‘तुम घर में ही लड़ती ठीक लगती हो।
भले ही बीवी घर में ही लड़ती शोभा देती हो, पर क्या करूं? जो यहां की कुर्सी महिला के लिए रिजर्व न होती तो तुम्हें मैं लड़ने को कतई मजबूर न करता। मरते-मरते भी मैं ही लड़ता। पर अब सवाल कुर्सी का है। और तुम तो जानती ही हो कि जो गधा भी कुर्सी पर हो, उसे भगवान भी सलाम ठोकते हैं।’ ‘पर क्या कुर्सी के लिए मैं फिट हूं?’ ‘अरी बावली! अगर फिटनेस देखी जाए तो कुर्सी के लिए यहं कोई भी फिट नहीं। पर जनत को तो फिर भी चलाना है कि नहीं!’ ‘चलो, मान जाती हूं, मैं कुर्सी पर बैठ गई तो कुर्सी चलाएगा कौन?’ उनकी बीवी ने रीझते हुए उनसे पूछा तो वे उसकी शंका का समाधान करते बोले, ‘मैं हूं न! तुम्हारे होते मुझे दूसरों की चिंता की जरूरत हो तो हो, पर मेरे होते तुम्हें कुर्सी की चिंता की क्या जरूरत!’…आखिर बीवी मान गई। उसे कुर्सी के लिए खड़ा कर दिया गया।
पंडित के पास शुभ मुहूर्त निकलवा बीवी के गले में पहली बार उन्होंने फूलों की मालाएं अपने पैसे से खरीद अपने समर्थकों से डलवाईं और ढोल-नगाड़ों की थाप पर बीवी का कुर्सी का पर्चा भरा। बीवी से कुर्सी का पर्चा भरवा वे कल मेरे पास आए। आते ही भड़भड़ाए, ‘कुछ मनभावन बिल्कुल ताजे नारे लिखने हैं, कितने लगेंगे?’ ‘किसके लिए?’ ‘बीवी कुर्सी के लिए लड़ रही है।’ ‘किसकी?’ ‘मेरी! सरकार की तरह महिलाओं के लिए नारों के रेट में छूट का प्रावधान है क्या?’ ‘देखिए बंधु! नारों और नाड़ों में छूट का कोई प्रावधान नहीं। वैसे अब मेरे पास नारे बचे भी नहीं हैं।
अब तुम ही कहो, इतने नारे लिखने के बाद भी…सच कहूं तो दीवारों पर नारे चिपका चिपका कर तुम्हारा गोंद खत्म हुआ हो या नए पर नारे लिख लिख कर अब मेरा भेजा खाली क्या, बिल्कुल खाली हो गया है।’ ‘देखो, जहां से भी हो, जैसे भी हो, मुझे अपनी बीवी के लिए दो-चार दिल दहला देने वाले नारे चाहिए। रेट जो तुम कहो!’ ‘पर उन्हें लगाओगे कहां? अब दीवारों में नारे चिपकाने को जगह ही कहां बची है?’ ‘दिल में चिपकाऊंगा नारे अबके दिल में।’ उन्होंने जिस जोश से कहा तो मैंने उनके लिए नारा गड़ा, ‘युवा दिलों की धड़कन, हर दिल की महारानी! हर देवर की भाभी, हर पति की…मेरी बीवी को वोट देकर सफल बनाएं!’ तो वे मेरे मुंह से एक-एक नारा टपकते हरेक को चाटते बोले, ‘तुम धन्य हो हे नारानवीस! वाह! क्या नारे गड़े! भगवान तुम्हें हर जन्म में नारा लिखने की ऐसी ही शक्ति दें। अब मुझे फिर कुर्सी पर बैठने से कोई नहीं रोक सकता। तुम्हारे चरण कहां हैं हे नारानवीस?’ ‘नारों की फटी रजाई में।’ उन्होंने आधा पौना नारा लपेटा और हर दिल में चिपकाने हो लिए।
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