अर्थशास्त्र और कोरोना: डा. भरत झुनझुनवाला, आर्थिक विश्लेषक

By: डा. भरत झुनझुनवाला, आर्थिक विश्लेषक Dec 15th, 2020 12:06 am

भरत झुनझुनवाला

आर्थिक विश्लेषक

अर्थशास्त्र का एक मौलिक सिद्धांत उपयोगिता का है। बताया जाता है कि मनुष्य जब पहला केला खाता है तो उसे कुछ उपयोगिता यानी यूटिलिटी अथवा सुख मिलता है। जब वह दूसरा केला खाता है तो पहले की तुलना में उससे कुछ कम उपयोगिता मिलती है और जब वह तीसरा केला खाता है तो उसे और कम मिलती है। इसी प्रकार अर्थशास्त्र के अनुसार हर उपभोक्ता उत्तरोत्तर खपत तब तक बढ़ाता जाता है जब तक उस खपत से मिलने वाली उपयोगिता शून्य न हो जाए। यह सिद्धांत मनुष्य को उत्तरोत्तर अधिक खपत करने की ओर धकेलता है। जैसे जब हम कहते हैं कि देश पांच ट्रिलियन डालर की अर्थव्यवस्था बन जाएगा तो इसके पीछे विचारधारा है कि हम पांच ट्रिलियन डालर के माल की खपत अपने देश के नागरिकों को उपलब्ध कराएंगे और वे सुखी हो जाएंगे। लेकिन अर्थशास्त्र इस बात को नजरअंदाज करता है कि मनुष्य की खपत की चाहत तो अनंत है, लेकिन प्रकृति प्रदत्त संसाधन सीमित हैं। इसलिए उपयोगिता का यह सिद्धांत दो प्रकार से संकट पैदा करता है और कोरोना जैसे संकट को लाता है।

 पहला संकट इस प्रकार के वायरस को पैदा करके और दूसरा संकट इस प्रकार के वायरस से हमारी प्रतिशोध करने की क्षमता को कमजोर करके। जैव विविधता पर अंतर्देशीय विज्ञान नीति प्लेटफार्म के अनुसार मनुष्य लगातार नए क्षेत्रों में प्रवेश कर रहा है जहां अभी तक वह नहीं जाता था। जैसा अमाजोन के घने जंगल को अब हम खेती के लिए काट रहे हैं। अपने देश में घने जंगल के बीच से सड़क बनाने को पर्यावरण की स्वीकृति की अनिवार्यता को अब निरस्त कर दिया गया है जिससे जंगल को काट कर सड़क आसानी से बनाई जा सके। जंगलों को काटकर भूमिगत खनन को बढ़ावा दिया जा रहा है अथवा कृषि का विस्तार किया जा रहा है। समुद्र के नीचे के कोरल रीफ  की परवाह न करते हुए जलमार्ग का निर्माण हो रहा है। पहाड़ों के ऊपरी हिस्सों में जहां नदियों का उद्गम है और वे स्वतंत्र बहती हैं, उनके पानी को रोककर सिंचाई के लिए तालाब और जलविद्युत का निर्माण कर उनके प्रवाह को रोका जा रहा है। फसलों में जैव विविधता की अनदेखी करके मुट्ठी भर ऐसी फसलों को बढ़ावा दिया है जिनसे उत्पादन अधिक होता है। ऐसा करने से फसलों की पर्यावरण परिवर्तन को अपने ऊपर सहन कर लेने की जो क्षमता है, वह कमजोर पड़ती जा रही है। प्रकृति के साथ इस प्रकार के हस्तक्षेप करके हम उन क्षेत्रों को खोल रहे हैं जहां आज तक कोरोना जैसे वायरस चुपचाप विश्राम कर रहे थे।

अब ये वायरस वहां से कूदकर मनुष्यों में प्रवेश कर रहे हैं, उसी प्रकार जैसे जंगल काटने पर हाथी रिहायशी क्षेत्रों में प्रवेश करने लगते हैं। इस प्रकार हम अपनी खपत को बढ़ाने के लिए नए क्षेत्रों में प्रवेश कर रहे हैं और पुराने क्षेत्रों में जैव विविधिता को समाप्त कर रहे हैं और उन क्षेत्रों में जो कोरोना जैसे वायरस हैं, उनको बाहर आने का अवसर दे रहे हैं अथवा उन्हें मजबूर कर रहे हैं। दूसरी तरफ हम उसी उपयोगिता के सिद्धांत पर चल कर अपने शरीर को कमजोर बना रहे हैं। हम अपनी बिजली की खपत उत्तरोत्तर बढ़ाते जाते हैं जैसे अनेक घरेलू उपकरणों के लिए यथा वाशिंग मशीन, एयर कंडीशनर, ओवन, टोस्टर, हीटर, गीजर इत्यादि के प्रयोग के लिए अथवा उद्योगों में एल्यूमीनियम जैसे ऊर्जा सघन माल के उत्पादन के लिए। इसके लिए हम बिजली का भी उत्पादन बढ़ाते जाते हैं। बिजली के उत्पादन में हमारे ताप विद्युतघर नाइट्रोजन ऑक्साइड का भारी मात्रा में उत्सर्जन करते हैं। शोध बताते हैं कि इस जहरीली गैस से मनुष्य के फेफड़े कमजोर हो जाते हैं और वे जल्दी से बाहरी संक्रमण के शिकार हो जाते हैं। यह भी पाया गया कि मनुष्य के रक्त में जो लाभकारी सफेद सेल होते हैं, उन पर भी नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। हमने अपनी जीवन शैली को भी प्रकृति से अलग कर लिया है। जैसे एयर कंडीशनर को ही आप ले लें। घर में, कार में और ऑफिस में सभी जगह हम एक कृत्रिम वातावरण में रहते हैं। इस वातावरण की खपत करते हैं। इस प्रकार हमारे शरीर का प्रकृति से संपर्क कम हो गया है और हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता का हृस हो गया है। हम एयर कंडीशनर से मिलने वाली उपयोगिता को निरंतर बढ़ाने पर केंद्रित हैं।

खपत अथवा उपयोगिता को बढ़ाने के लिए एक तरफ हमने कोरोना जैसे वायरस को पैदा किया, तो दूसरी तरफ अपने शरीर की कोरोना जैसे वायरस से मुकाबला करने की क्षमता का हृस किया। उपयोगिता बढ़ने के इन दोनों फलों का परिणाम कोरोना जैसे संकट हैं। इस संबंध में एक विचार यह है कि साफ ऊर्जा और स्वस्थ जीवन शैली को अपनाकर हम इस प्रकार की समस्याओं का मुकाबला कर सकते हैं। लेकिन अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य में ऊंचे माइलेज देने वाली कार को बढ़ावा देने के लिए उपभोक्ताओं को सबसिडी दी गई। विचार था कि एक लीटर पेट्रोल में 15 किलोमीटर के स्थान पर 25 किलोमीटर चलने वाली कार का उपयोग होगा तो पेट्रोल की खपत कम होगी और प्रदूषण कम होगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हुआ यह कि लोगों ने कार से यात्रा बढ़ा दी और प्रदूषण पूर्ववत् बना रहा। ऊर्जा की खपत पूर्ववत् रही। कुशल ऊर्जा से यात्रा में विस्तार हुआ, न कि ईंधन की खपत में कमी आई। अतः साफ ऊर्जा से खपत कम नहीं होती है। हमें उपयोगिता के सिद्धांत पर पुनर्विचार करना होगा। प्रख्यात अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन बताते हैं कि सच्चा साधू न्यून खपत में अधिक आनंद प्राप्त करता है।

इसी क्रम में मनोवैज्ञानिक कार्ल युंग कहते हैं कि मनुष्य यदि अपने चेतन को अपने अचेतन से जोड़ ले तो वह सुख प्राप्त करता है। अर्थ यह हुआ कि मनुष्य यदि अपने अचेतन की इच्छाओं की पूर्ति मात्र तक खपत करे तो वह सुखी होगा। जैसे यदि किसी व्यक्ति के अचेतन मन में केला खाने की इच्छा है तो वह विज्ञापन देखकर पिज्जा खाने को न दौड़े। हम अर्थशास्त्र की सुख की परिभाषा को खपत और उपयोगिता से हटाकर यदि अचेतन से जोड़ दें तो यह अनंत खपत का सिद्धांत समाप्त हो जाएगा। मनुष्य सीमित मात्र में अचेतन की  बताई दिशा में खपत करके सुख हासिल कर सकेगा। तब मनुष्य जंगलों, नदियों और कोरल रीफों को नष्ट नहीं करेगा। कोरोना से उत्पन्न संकट से हमें यह मूल सबक लेना चाहिए। वैक्सीन बनाने से हम अर्थशास्त्र के उपयोगिता के सिद्धांत में बदलाव नहीं करेंगे और पुनः संकट में पड़ेंगे। जरूरत है कि हम नया अर्थशास्त्र लिखें जिसमें सुख को अचेतन से जोड़ें, न कि खपत से।

ई-मेलः bharatjj@gmail.com


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