धर्मवीर भारती का हिंदी साहित्य को योगदान

By: Dec 20th, 2020 12:04 am

जयंती विशेष

डा. धर्मवीर भारती आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रमुख लेखक, कवि, नाटककार और सामाजिक विचारक थे। वह साप्ताहिक पत्रिका ‘धर्मयुग’ के प्रधान संपादक भी रहे। डा. धर्मवीर भारती को 1972 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। उनका उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ हिंदी साहित्य के इतिहास में सदाबहार माना जाता है। धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसंबर 1926 को इलाहाबाद के अतरसुइया नामक मोहल्ले में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री चिरंजीवलाल वर्मा और माता का नाम श्रीमती चंदादेवी था।

भारती के पूर्वज पश्चिमी उत्तर प्रदेश में शाहजहांपुर जिले के खुदागंज नामक कस्बे के जमींदार थे। पेड़, पौधों, फूलों और जानवरों तथा पक्षियों से प्रेम बचपन से लेकर जीवन पर्यन्त रहा। संस्कार देते हुए बड़े लाड़-प्यार से माता-पिता अपने दोनों बच्चों धर्मवीर और उनकी छोटी बहन वीरबाला का पालन कर रहे थे कि अचानक उनकी मां सख्त बीमार पड़ गईं। दो साल तक बीमारी चलती रही। बहुत खर्च हुआ और पिता पर कर्ज चढ़ गया। मां की बीमारी और कर्ज से वे मन से टूट से गए और स्वयं भी बीमार पड़ गए। 1939 में उनकी मृत्यु हो गई ।

इन्हीं दिनों पाठ्य पुस्तकों के अलावा कविता पुस्तकें तथा अंग्रेजी उपन्यास पढ़ने का बेहद शौक जागा। स्कूल खत्म होते ही घर में बस्ता पटक कर वाचनालय में भाग जाते, वहां देर शाम तक किताबें पढ़ते रहते। इंटरमीडिएट में पढ़ रहे थे कि गांधी जी के आह्वान पर पढ़ाई छोड़ दी और आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। सुभाष चंद्र बोस के प्रशंसक थे, बचपन से ही शस्त्रों के प्रति आकर्षण भी जाग उठा था। इसलिए हर समय हथियार साथ में लेकर चलने लगे और सशस्त्र क्रांतिकारी दल में शामिल होने के सपने मन में संजोने लगे, पर अंततः मामा जी के समझाने-बुझाने के बाद एक वर्ष का नुकसान करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय में स्नातक की पढ़ाई के लिए दाखिला लिया। स्नातक, स्नातकोत्तर की पढ़ाई ट्यूशनों के सहारे चल रही थी। उन्हीं दिनों कुछ समय श्री पद्मकांत मालवीय के साथ ‘अभ्युदय’ में काम किया। इलाचंद्र जोशी के साथ ‘संगम’ में काम किया। इन्हीं दोनों से उन्होंने पत्रकारिता के गुर सीखे थे। कुछ समय तक हिंदुस्तानी एकेडेमी में भी काम किया। उन्हीं दिनों खूब कहानियां भी लिखीं। ‘मुर्दों का गांव’ और ‘स्वर्ग और पृथ्वी’ नामक दो कहानी संग्रह छपे। छात्र जीवन में भारती पर शरत चंद्र चट्टोपाध्याय, जयशंकर प्रसाद और ऑस्कर वाइल्ड का बहुत प्रभाव था। उन्हीं दिनों वह माखन लाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए और उन्हें पिता तुल्य मानने लगे।

दादा माखनलाल चतुर्वेदी ने भारती को बहुत प्रोत्साहित किया। स्नातक में हिंदी में सर्वाधिक अंक मिलने पर प्रख्यात चिंतामणि गोल्ड मैडल मिला। स्नातकोत्तर अंग्रेजी में करना चाहते थे, पर इस मैडल के कारण डा. धीरेंद्र वर्मा के कहने पर उन्होंने हिंदी में नाम लिखा लिया। स्नातकोत्तर की पढ़ाई करते समय मार्क्सवाद का उन्होंने धुंआधार अध्ययन किया। प्रगतिशील लेखक संघ के स्थानीय मंत्री भी रहे, लेकिन कुछ ही समय बाद साम्यवादियों की कट्टरता तथा देशद्रोही नीतियों से उनका मोहभंग हुआ। तभी उन्होंने छहों भारतीय दर्शन, वेदांत तथा बड़े विस्तार से वैष्णव और संत साहित्य पढ़ा और भारतीय चिंतन की मानववादी परंपरा उनके चिंतन का मूल आधार बन गई। उन्होंने शोध कार्य भी किया तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी प्राध्यापक भी रहे। चार सितंबर 1997 को हिंदी साहित्य को अनेक रचनाएं सौंपने के बाद उनका निधन हो गया। वह आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन साहित्य में जरूर जिंदा हैं।


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