शीतकालीन सत्र का टलना

By: Dec 2nd, 2020 12:04 am

अंततः हिमाचल विधानसभा का शीतकालीन सत्र टल गया। प्रदेश मंत्रिमंडल ने एक अहम फैसला लेते हुए पहले से तय सत्र को टाल कर सारी बहस को विराम लगा दिया। कोरोना के सियासी संबोधन अपना बचाव कर रहे हैं या इन करवटों में कोई प्रायश्चित उलझा है। हिमाचल में तीव्रता से बदलता कोरोना काल अब ऐसे मुहाने पर टिका है, जहां गंभीरता से आत्मचिंतन व सार्वजनिक जीवन की अहर्ताएं पैदा हो रही हैं। ऐसे में जबकि शादी के मंडप सूक्ष्म औपचारिकताओं में सिमट रहे हैं, विधानसभा का शीतकालीन सत्र शुरू होने से पहले सत्ता और विपक्ष के मंतव्य में जाहिर होता रहा है। नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री ने सत्र की अहमियत को बरकरार रखते हुए इसके आयोजन की हामी भरी, तो पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह इसे विधानसभा के शिमला परिसर में चलाने के पक्षधर रहे। यानी विपक्ष शीतकालीन सत्र में अपनी भूमिका का अहम किरदार तय करता रहा, फिर भी किंतु-परंतु के बीच सत्र को आगे सरकाने के पक्ष में कई हाथ खड़े रहे हैं।

ऐसे में अब तक दो सौ सवालों के आगमन के बावजूद विधानसभा सत्र के आयोजन पर विराम लगा कर सरकार ने कोरोना के एकमात्र प्रश्न को वरीयता दी है। प्रदेश एक तरह से अलर्ट पर है और इसीलिए अब कोई भी सार्वजनिक चूक, बड़े खामियाजे की वजह बन सकती है। कोरोना काल के अत्यंत नाजुक मोड़ पर रिवायतों की कितनी अहमियत समाज, सरकार, राजनीति और व्यापार को चाहिए, यह इस वक्त का सबसे बड़ा प्रश्न है। शीतकालीन सत्र हो या स्थानीय निकायों के चुनाव, फैसले की धुरी पर कोरोना की आशंकाएं जरूर घूमेंगी। अपना वित्तीय आधार खो रहे व्यापारी अगर फैसलों की धूप-छांव में लुटे-पिटे रहकर भी सहमति को अंगीकार कर सकते हैं, तो राजनीति के ऐसे मतैक्य के लिए कम समय लगना चाहिए था। यह दीगर है कि राजनीति तमाम चुनौतियों के बीच अपने स्वार्थ, प्रचार और भविष्य को संवारने की कला दिखा रही है। जम्मू-कश्मीर के डीडीसी या हैदराबाद नगर निगम के चुनाव में राजनीतिक प्राथमिकताएं पढ़ी जाएं, तो यह तय है कि इसी तरह की सियासी खान हिमाचल में भी खोदी जाएगी। स्थानीय निकाय चुनावों की तमाम तैयारियों के संकेत व संदेश अगले चरण के कोविड काल में अपनी विवेचना कर रहे हैं। पहली बार नगर निगम चुनावों की बिसात में चुनिंदा शहर अलग से हिमाचल की सियासत लिखेंगे, तो यह दुर्ग हथियाने का खेल रहेगा। बेशक इसी तरह का अवसर शीतकालीन सत्र की पाजेब पहनकर आया, तो विपक्ष खुद को बुलंद करने का पूर्वाभ्यास करता हुआ दिखाई दिया। आश्चर्य यह रहा कि जिस मास्क के खिसकने पर हजार रुपए का जुर्माना अमल में आ रहा है, वहां जुबान लड़ाने के लिए विधानसभा के सत्र की प्रतीक्षा हो रही थी।

ऐसे में संवैधानिक अनिवार्यता नहीं होने के कारण, विधानसभा का सत्र भी समाज की पाबंदियों का गवाह बन रहा है। बहरहाल वक्त अपनी परिभाषा में रिवायतों पर भी अंकुश लगा रहा है और इसीलिए इस काल को असामान्य परिस्थितियों की नकेल में समझना होगा। पिछले सारे घटनाक्रमों में चिन्हित कोविड अवसाद या भयावह खतरों की मुनादी फिर से हो रही है, तो एक सत्र की ख्वाहिश पालना इतना भी जरूरी नहीं। प्रश्नों और उनके उत्तरों के रिवायती घमासान के बजाय सत्र का टलना, इस वक्त का सबसे अहम संयम है। राजनीति के लिए सत्र का दायरा बड़ा हो सकता है या लोकतांत्रिक आचरण में इसकी अहमियत बड़ी है, फिर भी पहली बार टल रही रिवायत का मौन होना, कहीं ज्यादा कारगर सिद्ध होगा या नहीं, इस पर एक नई बहस शुरू हो सकती है। कम से कम सत्र की खामोशी के बाद राजनीति के लिए कुछ स्पष्ट संदेश रहेंगे। कोरोना काल की बंदिशों में सियासी मंसूबों का सफर अगर इससे कुछ सीखे, तो काफिलों की बजाय सामाजिक चुनौतियों के बीच पहरे और सख्त होंगे।


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