नारी की गरिमा को बढ़ाती हस्तियां डा : शिखा शर्मा, भा.राजस्व सेवा अधिकारी

By: Jan 18th, 2021 12:06 am

मानव सभ्यता के प्रारंभ से ही नारी ने हर क्षेत्र में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और समाज को प्रेरणा देती रही हैं। जरूरत इस बात की है कि इन सभी चरित्रों, ऐतिहासिक तथ्यों और असली किस्सों को देश के स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए। लड़के और लड़कियां बराबर हैं, यह मानसिकता समाज एवं वर्तमान पीढ़ी में विकसित करना वक्त की जरूरत है। ऐसा संभव हो पाया तो समाज में व्याप्त असमानता निश्चित तौर पर खत्म होगी और सामाजिक कुरीतियों के खात्मे में भी मदद मिलेगी। महिलाओं का कार्य सिर्फ घर-गृहस्थी संभालना, बर्तन मांजना और कपड़े धोना नहीं है। अगर उसे स्कूल-कॉलेज जाने दिया जा रहा है तो यह कोई एहसान नहीं बल्कि उसका हक है। एक यही छोटा सा बदलाव हमारे समाज की अनेक खामियों को दूर कर सकता है…

‘बेटी’ एक ऐसा शब्द है जो जिंदगी को खुशियों और उमंग से भर देता है। आज के दौर में बेटियां किसी क्षेत्र में भी लड़कों से कम नहीं हैं। महिलाओं द्वारा समाज के नेतृत्व का यह सिलसिला नया नहीं है, बल्कि वर्षों से महिलाएं समाज का पथ प्रदर्शन करती आ रही हैं। ऐसे वक्त में जब समाज के हर क्षेत्र में महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य कर रही हैं, महिला शक्ति की उन महान विभूतियों का स्मरण बहुत जरूरी है जिन्होंने जीवन के अलग-अलग कार्य क्षेत्रों में उपलब्धियां हासिल की और मिसाल बनीं। अरुणा आसिफ अली एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मी महिला थीं जिन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में अद्भुत योगदान दिया। 1928 में वह कांग्रेस की सक्रिय सदस्य बनीं और 1930 के नमक सत्याग्रह में भाग लेने के कारण एक साल जेल में भी रहीं। इसी तरह पश्चिम बंगाल में जन्मीं मटांगनी हज़ारा जिन्होंने 1942 के आंदोलन में ग्रामीण लोगों को संगठित करने में अहम भूमिका निभाई। 73 वर्ष की उम्र में उन्होंने लगभग 6000 लोगों को इकट्ठा कर  अंग्रेजी शासकों के जुल्मों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया। ओडिशा में जन्मी नंदिनी देवी बारह वर्ष की उम्र में 1942 के आंदोलन की अद्भुत प्रतिभागी बनीं। इसी तरह शशिबाला देवी, तिलेश्वरी महंता और असम की कनकलता बरुआ और कहुलि देवी के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

अंबाला में जन्मी सुचेता कृपलानी स्वतंत्र भारत की पहली मुख्यमंत्री बनीं। 1940 में उन्होंने महिलाओं  को राजनीति  में सक्रिय करने के लिए कांग्रेस में पहला महिला विभाग बनवाया और इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए कई शहरों का भ्रमण किया। न केवल स्वतंत्रता संग्राम, बल्कि ऋग्वेद काल में भी महिलाओं की उपलब्धियां सराहनीय रही हैं। लोपमुद्रा, गार्गी और मैत्रियी जैसी महान महिला मनीषियों को कौन नहीं जानता।

अगस्त्य ऋषि की पत्नी लोपमुद्रा ने वेदों के दो छंद लिखे हैं। ऋग्वेद काल की महिलाओं के सम्मान का प्रचार-प्रसार करना वर्तमान समय में अत्यंत आवश्यक है क्योंकि आज का दौर और पिछले हजारों वर्षों से महिलाओं का योगदान अतुलनीय है। मौजूदा समय में हमारा समाज तेजी से बदलाव के दौर से गुजर रहा है, लेकिन यह परिवर्तन अनोखा और अनसुना नहीं है। समय का चक्र लगातार परिवर्तनशील है। आज जो मेरा है, कल किसी और का होगा। वर्तमान समय में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं और युवतियों की भागीदारी और सहभागिता बढ़ी है। लेकिन सच्चाई यह भी है कि भारत में ऐसी अनेकों वीरांगनाएं और महिलाएं हुई हैं जो कई कीर्तिमान पहले ही स्थापित कर चुकी हैं। भविष्य में भी महिला शक्ति द्वारा समाज को राह दिखाने का यह सिलसिला अनवरत जारी रहेगा।

आज के दौर में जब एक महिला राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री अथवा मुख्यमंत्री के पद पर आसीन होती है तो विश्वव्यापी सामाजिक चर्चा का विषय बनती हैं। ऐसे में इतिहास की महान महिलाओं का स्मरण करना नितांत जरूरी हो जाता है। क्या हम बारहवीं सदी में दिल्ली की शासक रजि़या सुल्तान को भूल गए हैं या मराठा सरदार अहिल्या बाई होलकर की हमें याद नहीं? हम गोंडवाना की अद्भुत शासक रानी दुर्गावती, ककतिया की रूद्रमा देवी और  मराठा क्षत्रप ताराबाई के संघर्षों को अनदेखा नहीं कर सकते। ये सभी महिलाएं अदम्य साहस और वीरता की प्रतीक हैं। मानव सभ्यता के प्रारंभ से ही नारी ने हर क्षेत्र में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और समाज को प्रेरणा देती रही हैं। जरूरत इस बात की है कि इन सभी चरित्रों, ऐतिहासिक तथ्यों और असली किस्सों को देश के स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए। लड़के और लड़कियां बराबर हैं, यह मानसिकता समाज एवं वर्तमान पीढ़ी में विकसित करना वक्त की जरूरत है।

ऐसा संभव हो पाया तो समाज में व्याप्त असमानता निश्चित तौर पर खत्म होगी और सामाजिक कुरीतियों के खात्मे में भी मदद मिलेगी। महिलाओं का कार्य सिर्फ घर-गृहस्थी संभालना, बर्तन मांजना और कपड़े धोना नहीं है। अगर उसे स्कूल-कॉलेज जाने दिया जा रहा है तो यह कोई एहसान नहीं बल्कि उसका हक है। एक यही छोटा सा बदलाव हमारे समाज की अनेक खामियों को दूर कर एक सुदृढ़ राष्ट्र बना सकता है। हर इनसान सामाजिक बदलाव के बारे में जरूर सोचता है, लेकिन पहला परिवर्तन हमें स्वयं से ही शुरू करना पड़ेगा। हमें अपने बच्चों को बचपन से ही उन महिलाओं के योगदान के बारे में बताना होगा जिन्होंने समाज में अपनी मेहनत और कार्यक्षमता के दम पर मुकाम हासिल किया। उन्हें यह सिखाना होगा कि नारियां पुरुषों के मुकाबले न सिर्फ  आज के दौर में प्रतिस्पर्धी हैं, बल्कि हमेशा से ही उन्होंने पुरुषों की बराबरी की है। महिलाओं को वह सम्मान देने का वक्त आ गया है जिसकी वह हकदार हैं। विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी देखते हुए उन्हें माकूल सम्मान व आदर मिलना ही चाहिए।


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