जैविक-प्राकृतिक कृषि का योगदान

कर्म सिंह ठाकुर, लेखक सुंदरनगर से हैं

इस समस्या से बचने का एकमात्र तरीका है कि प्रदेश के किसानों को जैविक खेती की तरफ  ले जाकर खेतीबाड़ी की बुझती लौ को पुनः जगाया जाए। जैविक खेती स्वास्थ्यवर्द्धक, खेती की उपजाऊ क्षमता व संरक्षण में सहायक है, वहीं रोजगार के नए दरवाजे खोलने में भी सहायक हो सकती है…

हिमाचल प्रदेश 15 अप्रैल 1948 को महज चार जिलों के साथ भारत का एक प्रांत बना। 25 जनवरी 1971 को हिमाचल प्रदेश को पूर्ण राज्य की प्राप्ति हुई और उसके बाद इस छोटे से प्रदेश ने भारत के पहाड़ी राज्यों की श्रेणी में अव्वल स्थान प्राप्त किया है। 25 जनवरी 2021 को इस प्रदेश के राज्यत्व का 50वां दिवस मनाया जाएगा। इस पावन अवसर पर इस प्रदेश की अधिकतर आबादी के मुख्य व्यवसाय कृषि व्यवस्था का विश्लेषण करना अनिवार्य हो गया है। हिमाचल प्रदेश के निवासियों का मुख्य व्यवसाय आज भी कृषि तथा बागबानी है। प्रदेश की 90 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है। अधिकतर ग्रामीण परिवारों का व्यवसाय खेतीबाड़ी ही है। हिमाचल में कुल भौगोलिक क्षेत्र 55673 लाख हेक्टेयर में से नौ लाख 59 हजार 223 हेक्टेयर भूमि के स्वामी 9.14 लाख किसान हैं। मंझोले और छोटे किसानों के पास कुल भूमि का 86.4 प्रतिशत भाग है। राज्य में कृषि भूमि केवल 10.4 प्रतिशत है। लगभग 80 प्रतिशत क्षेत्र वर्षा-सिंचित है और बाकी भूमि वर्षा पर ही निर्भर है। फिर भी हिमाचल वासी अपनी कड़ी मेहनत के दम पर हर वर्ष लाखों टन अनाज का उत्पादन करते हैं।

हिमाचल प्रदेश के भूतपूर्व राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने हिमाचल प्रदेश में प्राकृतिक कृषि के क्षेत्र में एक नई क्रांति का आगाज किया, जिसके फलस्वरूप प्रदेश के 96 हजार किसान प्राकृतिक खेती के साथ जुड़े हुए हैं। इसमें किसान व बागबान दोनों वर्गों के किसान शामिल हैं। प्राकृतिक खेती करने वाले 96 हजार किसानों में से 92316 किसानों को ट्रेनिंग भी दी गई है। विभाग के आंकड़ों के अनुसार हिमाचल में 520812 हेक्टेयर भूमि में प्राकृतिक रूप से फल, सब्जियां व अन्य खाद्य वस्तुएं उगाई जा रही हैं। हिमाचल प्रदेश भारत तथा वैश्विक पटल पर अपनी ईमानदारी तथा कड़ी मेहनत व स्वास्थ्यवर्धक मौसम के लिए जाना जाता है। ऐसे में प्रदेश में उत्पादित होने वाली प्राकृतिक वस्तुओं की मांग भी दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। प्रदेश सरकार भी सिक्किम राज्य की तर्ज पर हिमाचल प्रदेश को जैविक राज्य बनाने के लिए भरसक प्रयास कर रही है। किसानों को ट्रेनिंग, उपकरण तथा जैविक खाद की नवीनतम तकनीकें सिखाई जा रही हैं। वर्ष 2020 में पूरी मानव जाति को कोरोना वायरस ने संकट में डाल दिया था, लेकिन इस मुश्किल घड़ी में भी किसी व्यवस्था ने मानव का हर पल साथ दिया। हिमाचल प्रदेश में कोरोना काल के दौरान आम, सेब, अमरूद, लीची, अनार, गेहूं, मक्की, धान व अदरक इत्यादि की बंपर फसल देखने को मिली।

 लेकिन पिछले कुछ वर्षों की कृषि व्यवस्था का विश्लेषण किया जाए तो खेती-बाड़ी पर अनेक संकट भी देखने को मिले हैं। समय पर बारिश का न होना, आवारा पशुओं व बंदरों का आतंक कुछ ही पलों में किसान की वर्ष भर की कड़ी मेहनत को उजाड़ देता है। ग्रामीण परिवार, विशेषकर जिनका आजीविका का मुख्य साधन खेतीबाड़ी है, आज उनकी आजीविका गर्त में चली गई है। दो दशक पूर्व खेती शान-ओ-शौकत का व्यवसाय माना जाता था। समय बदला और आज वही गरिमामय कृषि व्यवसाय बोझ लगना शुरू हो गया है। कृषि व्यवस्था प्रदेश की आर्थिकी की रीढ़ मानी जाती है। यदि कृषि व्यवस्था में असंतुलन पैदा हो गया, तो अनाज की कमी पैदा होगी और साथ ही बेरोजगारी भी बढ़ेगी। विकास दर प्रभावित होगी तथा सामाजिक अशांति व अपराधीकरण में बढ़ोतरी होगी। वर्तमान समय में कृषि के गिरते उत्पादन को रोकने के लिए किसान अंधाधुंध कीटनाशक स्प्रे, खाद, इंजेक्शन व अन्य रसायनों का उपयोग कर रहे हैं, जिसका प्रभाव उपभोक्ता वर्ग पर पड़ रहा है। उल्टी-दस्त, सिर चकराना, बेकाबू बुखार इत्यादि घातक बीमारियां दिन-प्रतिदिन आम जनता को अपनी चपेट में ले रही हैं। गर्मी के मौसम में फलों की खपत में बढ़ोतरी होती है, लेकिन बाजार में उपलब्ध फलों को पकाने में कृत्रिम प्रणालियों का सहारा लिया जाता है, जो कि जहर के समान है। आजकल लगभग सभी फलों को पकाने के लिए एथिलीन गैस का उपयोग आम बात हो गई है। बच्चों व गर्भवती महिलाओं के लिए इन फलों का सेवन अत्यंत हानिकारक होता है। बाजार में इन जहरीले फलों की बिक्री सरेआम होती है। किसी भी प्रकार का डर विक्रेताओं को नहीं होता। पैसे देकर जहर खरीदना तथा स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कितना उचित है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आज हर परिवार जहां महंगाई, बेरोजगारी की मार झेल रहा है, वहीं दूसरी तरफ  मिलावटखोरी, हेराफेरी, विषैली वस्तुओं को खरीदने पर मजबूर है।

जिस प्रदेश को फलोत्पादन में शीर्ष स्थान प्राप्त है, आज वही प्रदेश विषैले फलों, अंधाधुंध व अनियंत्रित कीटनाशकों के उपयोग का अड्डा बन गया है। इस समस्या से बचने का एकमात्र तरीका है कि प्रदेश के किसानों को जैविक खेती की तरफ  ले जाकर खेतीबाड़ी की बुझती लौ को पुनः जगाया जाए। जैविक खेती स्वास्थ्यवर्द्धक, खेती की उपजाऊ क्षमता व संरक्षण में सहायक है, वहीं खेती व्यवस्था में रोजगार के नए दरवाजे खोलने में भी सहायक सिद्ध हो सकती है। प्रदेश की आर्थिकी कर्ज में डूबी हुई है। इसको उभारने में जैविक कृषि नई इबारत लिख सकती है। सिक्किम राज्य ने जैविक खेती के उत्पादन में देश में ऐसी मिसाल पेश की है, जो कि डूबती कृषि परंपरा को पुनः पटरी पर ला सकती है। प्रदेश के कर्णधारों को भी देवभूमि के किसानों को जैविक खेती में रंगना होगा। कृषि पर बढ़ती लागत, संसाधनों के अभाव एवं उर्वरकों व कीटनाशकों से पर्यावरण पर बढ़ते दुष्प्रभाव को रोकने के लिए निःसंदेह जैविक कृषि एक वरदान साबित हो सकती है। जैविक खेती से स्वच्छ पर्यावरण व संतुलित प्रकृति के स्तर को बनाए रखा जा सकता है। वहीं भूमि, वायु, जल को प्रदूषित किए बिना दीर्घकालीन एवं गुणवत्तापूर्ण उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। जैविक खेती में जमीन की उर्वरा शक्ति को लंबे समय तक बरकरार रखा जा सकता है।


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