पिछड़े जिलों की विकास संबंधी अपेक्षाएं

सरकार से तो यही अपेक्षा है कि जिला के खाली पदों को प्राथमिकता के आधार पर भरा जाए, विशेषकर शिक्षा, कृषि, बागवानी, चिकित्सा विभागों में…

आकांक्षी जिला चंबा हिमाचल का सबसे पिछड़ा जिला है। हिमाचल में क्षेत्रफल की दृष्टि से दूसरा सबसे बड़ा जिला होने के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर है। रावी, स्यूहल, चक्की, देहर और ब्राहल नदियों द्वारा इस धरा का प्रक्षालन होता है। इन सभी नदियों पर बनी जल विद्युत परियोजनाओं से 1500 मैगावाट विद्युत उत्पादन होता है। जलवायु उपोष्ण कटिबंधीय से शुष्क शीत मरुस्थलीय तक की विविधता लिए है। बिजली उत्पादन से 4 से 5 हजार करोड़ रुपए वार्षिक कमाने वाला जिला अच्छे सड़क नेटवर्क से भी वंचित है। बर्फबारी में जिला के अधिकांश भाग जिला मुख्यालय से कट जाते हैं। जिला के बीचों-बीच गुजरने वाला प्रस्तावित द्रमण-किलाड़ राष्ट्रीय राजमार्ग भी बट्टे खाते में पड़ गया है। चंबा-भरमौर सड़क जो तीन-चार विद्युत परियोजनाओं को जोड़ती है, बहुत ही बुरी हालत में है। आए दिन बंद रहती है और खड्डों से पटी पड़ी है। स्वास्थ्य सुविधाओं की हालत भी खराब ही बनी रहती है, जिसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चंबा मेडिकल कॉलेज में ही 33 पद जूनियर रेजिडेंट डॉक्टर के खाली हैं। कॉलेज के प्रिंसिपल का एक स्टेटमेंट समाचार पत्रों में आया था कि विशेष पैकेज घोषित करने के बावजूद डॉक्टर नहीं आ रहे हैं क्योंकि जिला पर पिछड़ेपन का ठप्पा लगा है। अभी भी यह स्थिति बदली नहीं है। शिक्षा विभाग में शिक्षकों के 5138 पद खाली हैं, बागवानी विभाग में विकास अधिकारियों के 14 में से 13 पद खाली हैं और कृषि विभाग का काम 25 फीसदी स्टाफ  से चलाया जा रहा है। ज्यादातर कर्मचारी चंबा में तैनाती को सज़ा मानते हैं। इस स्थिति से निकालने के लिए ही जिला को आकांक्षी जिला का दर्जा दिया गया था, जिसके बाद काफी उम्मीदें हैं, किंतु विकास की गति में मुख्य बाधक परिवहन और संचार माध्यमों को जब तक सुधारा नहीं जाता तब तक गति ढीली ही बनी रहने वाली है। इंटरनेट की स्पीड की भी बुरी हालत है, जबकि आज बच्चों की पढ़ाई भी ऑनलाइन हो रही है।

 ग्रामीण चिकित्सा व्यवस्था भी पिछड़ी हालत में है। चंबा क्षेत्र से लोग पठानकोट के निजी अस्पतालों में जाने को बाध्य हैं। दूरदराज के क्षेत्रों के लोग तो रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं। भटियात इलाके के लोगों को कांगड़ा के स्वास्थ्य संस्थानों में भागना पड़ता है। छोटी-मोटी सुविधाओं का भी अभाव है। सिहुंता घाटी में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र खोलने की मांग दशकों से लटकी पड़ी है। प्रति व्यक्ति आय नवें पायदान पर 98006 रुपए है। 2011 से 16 के बीच प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि दर 7.31 फीसदी सबसे कम रही। आकार में दूसरे स्थान पर होने के बावजूद सकल जिला घरेलू उत्पाद 6372 करोड़ के साथ जिला सातवें स्थान पर रहा। इसी दौरान प्राथमिक क्षेत्र की वृद्धि दर माईनस 47 फीसदी ग्याहरवें पायदान पर, द्वितीय क्षेत्र की 5.18 फीसदी बारहवें पायदान पर और सेवा क्षेत्र में 15.82 फीसदी पहले पायदान पर रही। अर्थात कृषि, बागवानी, वन उपज आदि और उद्योगों में तो जिला पिछड़ता गया और सेवा क्षेत्र यानी नौकरी-मजदूरी की ओर मुड़ गया। अच्छी नौकरियों में भी जिला का स्थान पिछड़ा ही है, क्योंकि शिक्षा का स्तर ही पिछड़ा है। हां मजदूरी की ओर लोग मजबूरी में मुड़ते जा रहे हैं। कोरोना काल में चंबा के दर्जन से ज्यादा घोड़े वाले अरुणाचल प्रदेश में फंसे हुए पता चले थे। चंबा, हिमाचल निर्माण के समय जब हिमाचल में विलय हुआ था, तब अन्य पहाड़ी रियासतों में अग्रणी था। चंबा में बिजली 1910 में आ गई थी जब कांगड़ा जिला में भी बिजली नहीं थी। 1891 में शाम सिंह हॉस्पिटल का निर्माण हो गया था। 1876 में कुष्ठ रोग चिकित्सालय खुल गया था जो एशिया का पहला था। प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति देकर लाहौर कॉलेज शिक्षा हेतु भेजा जाता था।

 यही कारण रहा कि हिमाचल निर्माण के बाद चंबा के लोगों का राज्य स्तरीय प्रशासन में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। हिमाचल निर्माण के समय पंजाब के राजनेताओं का यह भरसक प्रयास था कि पूर्वी पंजाब की पहाड़ी रियासतों को पंजाब में मिला दिया जाए, किंतु यहां के लोगों ने इसके विरुद्ध जोरदार आवाज उठाई कि पहाड़ी क्षेत्रों का रहन-सहन, संस्कृति, भाषा आदि पंजाब से भिन्न है, अतः अलग पहाड़ी राज्य बनाया जाना चाहिए। भारत सरकार के रियासतों संबंधी मंत्रालय के सचिव वीपी मेनन ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय रियासतों के भारत में विलय की कहानी’ में इसका उल्लेख किया है। जाहिर है कि चंबा यदि पंजाब में चला जाता तो हिमाचल प्रदेश का गठन आर्थिक रूप से व्यावहारिक न माना जाता, जिस तर्क का प्रयोग उस समय पंजाब के नेताओं द्वारा किया जा रहा था और हिमाचल का गठन ही न हो पाता, किंतु चंबा ने हिमाचल गठन के लिए अग्रणी भूमिका निभाई और सोलन में हुई सभा में प्रजामंडल के प्रतिनिधियों ने भाग लेकर हिमाचल गठन में योगदान दिया। हालांकि तीन जिले महासू, सिरमौर और मंडी पूर्वी छोर पर थे और चंबा जिला पश्चिमी छोर पर था और बीच में पंजाब का कांगड़ा जिला पड़ता था। उस समय की राजनीति में चंबा का विशेष महत्त्व राज्य की आर्थिक व्यावहारिकता सिद्ध करने के लिए था। अतः जिला के विकास के लिए तदनुरूप ध्यान भी दिया गया। राज्य का पहला सामुदायिक विकास खंड जिला चंबा का भटियात बना। बिजली की लाइनें बिछाई गईं, द्रमण-चंबा सड़क का निर्माण शुरू हुआ, शिक्षा के प्रसार का कार्य हुआ। यानी प्रदेश के साथ कदम से कदम मिला कर जिला भी आगे बढ़ने लगा।

 1966 में विशाल हिमाचल का सपना जो हिमाचल गठन के समय देखा गया था, वह पूरा हुआ, किंतु जिला का राजनीतिक महत्त्व कम होता गया। ऐसा नेतृत्व जो पूरे जिला के विकास को ध्यान में रख कर बात करे, कम होता गया। स्थानीय जनता की भी भूमिका इसमें नकारात्मक ही रही जिसके अंतर्गत निजी कामों और कर्मचारियों की बदलियों को ही महत्त्व दिया गया। आज भी स्थिति कोई ज्यादा बदली नहीं है। जिला के पांच प्रतिनिधि एक आवाज में जिला की बात कम ही करते देखे जाते हैं। भौगोलिक रूप में भी जिला के भाग आपस में कटे हैं। आपस में भाषा की भी भिन्नताएं हैं, इसलिए एक आवाज के लिए विशेष राजनीतिक प्रयास होने चाहिए। हालांकि जिला में काफी विकास भी हुआ है, किंतु अन्य जिलों के मुकाबले हम पिछड़ते गए हैं। इस बात को समझा जाना चाहिए और मिलकर प्रयास करने चाहिए। सरकार से तो यही अपेक्षा है कि जिला के खाली पदों को प्राथमिकता के आधार पर भरा जाए, विशेषकर शिक्षा, कृषि, बागवानी, चिकित्सा विभागों में। साथ ही जीवन रेखा सड़कों की स्थिति सुधार कर आवागमन को सुविधाजनक बनाया जाए और संचार व्यवस्था को सुधारा जाए। इसी से विकास का पहिया स्थानीय संसाधनों जल, जंगल, जमीन के समुचित विकास और आमजन की भागीदारी वाले औद्योगीकरण की दिशा में घूम सकेगा। आशा है प्रदेश सरकार पिछली स्थितियों को बदलने की पहल करेगी।


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