लोकसाहित्य की सनातन संवाहक लोक कथाएं

By: Jan 17th, 2021 12:08 am

लोकसाहित्य की दृष्टि से हिमाचल कितना संपन्न है, यह हमारी इस नई शृंखला का विषय है। यह शृांखला हिमाचली लोकसाहित्य के विविध आयामों से परिचित करवाती है। प्रस्तुत है इसकी 15वीं किस्त…

कृष्ण चंद्र महादेविया

मो.-8219272342

लोक कथाएं लोकसाहित्य की सनातन संवाहक हैं। मंडी जनपद में वाचिक लोक कथाएं गद्य और गीति रूप में मिलती हैं। गीति कथा को लोकगाथा भी कहा जाता है। लोक कथा साहित्य में लोक कथाएं और लोक लघुकथाएं बराबर मिलती हैं। वस्तुतः इन दोनों रूपों को लोक कथाओं के अंतर्गत परिगणित करते हैं। मंडी जनपद में लोकसाहित्य का विशाल भंडार है। लोक कथाएं इस विशाल भंडार की चमक में चार चांद लगाती हैं। तरह-तरह की लोक कथाओं में देव-दानव, भूत-प्रेत, संन्यासी-राक्षस, पशु-पक्षी, आमजन, किसान-कृषि, प्रेमी-प्रेमिका, वीर-वीरता, हाट-घराट, यक्ष-परियों पर लोक कथाएं हैं। लोकसाहित्य की सनातन विधा लोक कथा शिक्षा एवं ज्ञान की अमूल्य निधि है। मंडी जनपद में दादी-नानी, बड़े बुजुर्गों द्वारा समय-समय पर लोक कथाएं सुनाई जाती रहीं। विशेषतः शिशु, बालक, किशोर और युवाओं के साथ बड़े भी बालकपन से ही लोक कथाओं का आनंद लेते रहे हैं। खेल के दौरान, शादी भोज के अवसर पर, लोहड़ी के दिन अलाव के पास, मक्की आदि के दाने निकालते समय, पकी मक्की को ढेरों से निकालते समय लोकसाहित्य की प्रहेलिकाओं, लोकोक्तियों-बुझारथों के साथ लोक कथाओं को सभी खुशी-खुशी सुनते और सुनाते रहे हैं। अब भी यदा-कदा लोक कथाएं प्रचलन में आ जाती हैं।

लोक कथाओं में छिपे ज्ञान, शिक्षा, मनोरंजन और सरलता-निश्चलता के चलते सभी आयु वर्ग के लोग इन्हें बहुत पसंद करते हैं। इसी कारण मंडी जनपद में लोक कथाएं आज भी जीवित हैं और समय-समय पर सुनी और सुनाई जाती हैं। हिमाचल के अन्य जनपदों की भांति मंडी जनपद में  लोक कथाओं के अक्षुण बने रहने का कारण इसमें निहित वे समस्त तत्त्व हैं जिनकी मानव जीवन के लिए अत्यंत अपरिहार्यता है। विलक्षण मनोरंजन के साथ साहस, उत्साह, सदमार्ग पर चलने की प्रेरणा, कृषि कर्म, अन्न की महत्ता, प्रकृति रक्षण, कर्त्तव्य निर्वहन, शौर्य, पराक्रम, युद्ध कौशल, संघर्ष और शक्ति, जागरूकता, दया, करुणा, प्यार-ममता, घृणा, देश प्रेम, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक विसंगतियों पर चोट, परोपकार, चारित्रिक विशेषताओं का उद्घाटन, स्वच्छ-सुंदर जीवन जीने की प्रेरणा से ओत-प्रोत लोककथाएं रहती हैं। ये लोक कथाएं विशेषतः बालकों में विनम्रता, सरलता, स्वतंत्रता, एकता, प्रसन्नता, सहयोग, शांति, सहिष्णुता, प्रेम, ईमानदारी, उत्तरदायित्व भरती जाती हैं। बालकों को भरपूर खुशी और मनोरंजन प्राप्त होता है। मंडी जनपद की विरासत बनी ये लोक कथाएं तत्कालीन संस्कृति, सभ्यता, सत्य और न्याय, असत्य और शोषण, प्रेम और ममता, परिश्रम, नीति-अनीति, शोषण के खिलाफ  संघर्ष, जन चेतना और विरोध, माननीय संदर्भों को सहज, सरल और स्पष्टता से प्रदर्शित करती हैं। ऐतिहासिक, पौराणिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक, प्रशासनिक संदर्भों को अनुरंजन के साथ उद्घाटित करती हैं। शायद तभी जनपदीय लोक कथाएं राज्य और विशाल क्षेत्र में अपनी पहचान बना पाई हैं।

 अलग-अलग विषय अथवा कथानकों के अंतर्गत इन्हें वर्गीकृत किया जा सकता है। तथापि रसास्वादन और अवदान के अंतर्गत मंडी जनपद की लोक कथाएं धरोहर और अमूल्य निधि के रूप में पहचान बना चुकी हैं। सनातन सत्य और सेवाभाव को लेकर सुप्रसिद्ध लोक कथा ‘किलटा’ पूरे प्रदेश की धरोहर बन चुकी है। प्रस्तुत है लोक कथा किलटा, जिसे लोक लघुकथा भी अविहित कर सकते हैं ः किलटे में बूढ़े पिता को तीर्थ कराने के बहाने ढोलू डैहर दरिया के किनारे ले जाकर खड़ा हो गया। जैसे ही किलटे सहित बूढ़े पिता को दरिया में फैंकने को हुआ तो साथ आया नौ वर्षीय बेटा बोल उठा, ‘पिता जी, किलटा तो मत फैंकिए।’ ‘क्यों बेटा?’ ‘जब आप बूढ़े हो जाएंगे तो इसी किलटे में लाकर आपको भी तो फैंकना है।’ ढोलू के पांव तले जमीन खिसक गई। एकाएक अब पिता को उठाए घर की ओर उसके पांव तेजी से बढ़ चले थे। वृद्ध  पिता की दिलो-जान से सेवा करने का मन ही मन उसने दृढ़ संकल्प कर लिया था। इसी तरह अन्न के महत्त्व को दर्शाती मंडी जनपद की एक और ख्यात लोक कथा है ः कोदे की रोटी। वहीं नमक और पत्थर नामक लघुकथा भी काफी प्रसिद्ध है। तत्कालीन समाज के दिग्दर्शन कराने वाली लोक कथाएं आज भी प्रासंगिक हैं।

विमर्श के बिंदु

मो.- 9418130860

अतिथि संपादक ः डा. गौतम शर्मा व्यथित

हिमाचली लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक विवेचन -15

-लोक साहित्य की हिमाचली परंपरा

-साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक

-हिमाचली लोक साहित्य का स्वरूप

-हिमाचली बोलियों के बंद दरवाजे

-हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता

-हिमाचली बोलियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व

-सांस्कृतिक विरासत के लेखकीय सरोकार

-हिमाचली इतिहास से लोक परंपराओं का ताल्लुक

-लोक कलाओं का ऐतिहासिक परिदृश्य

-हिमाचल के जनपदीय साहित्य का अवलोकन

-लोक गायन में प्रतिबिंबित साहित्य

-हिमाचली लोक साहित्य का विधा होना

-लोक साहित्य में शोध व नए प्रयोग

-लोक परंपराओं के सेतु पर हिमाचली भाषा का आंदोलन

हिमाचल के लोकसाहित्य में परंपरित बाल साहित्य

पवन चौहान

मो.-9805402242

‘बाल साहित्य’ वे दो शब्द हैं जो हमें कोमल अहसासों, अनगिनत अठखेलियों, शरारतों, तोतलेपन से लेकर रूठने-मनाने, हंसने-खेलने, दौड़ने-भागने, नाचने-गाने, अचरज में भर लेने वाले ढेरों प्रश्नों आदि बहुत-सी क्रियाओं, किस्सों, संवेदनाओं की दुनिया में ले जाते हैं। जब इन्हीं संवेदनाओं, क्रियाओं, किस्सों आदि को कहानी, गीत, कविता, नाटक, एकांकी, पहेली, लोकोक्ति आदि के रूप में पेश कर दिया जाए तो हम बाल मनोविज्ञान की कई परतों से गुजरते हुए बच्चों और बचपन के बहुत करीब पहुंच जाते हैं। हिमाचल एक पहाड़ी प्रदेश होने के साथ जहां अपने में प्राकृतिक सौंदर्य का अनमोल खजाना लिए हुए है, वहीं यहां की बर्फ  से ढकी उज्ज्वल पहाडि़यां, वृक्षों की हरियाली, फलों की मिठास, आम जनमानस का स्नेहिल, मृदुल व्यवहार, यहां की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर किसी को भी अपना दीवाना बना देती है। यदि इन सबके बीच हम हिमाचल के लोकसाहित्य की बात करें तो हम एक अन्य बेशकीमती खजाने से रूबरू होते हैं।

इस लोकसाहित्य की कुछ विशेष कडि़यों के साथ बाल साहित्य का बहुत गहरा नाता है, जिसमें लोक कथाएं प्रमुख हैं। लोकसाहित्य किसी भी समाज की वह धरोहर है जो जहां उसकी पहचान को जिंदा रखती है, वहीं उसके मनोरंजन का भी एक अहम हिस्सा होती है। लोकसाहित्य अपने प्रारंभिक दौर से ही मनोरंजन के साथ बहुत सारे दस्तावेजों को भी मौखिक और लिखित जोड़ता चला आया है। लोकसाहित्य में लोक कथाएं, लोक नृत्य, लोक गीत, लोक नाट्य, लोक गाथा, लोकोक्ति व पहेली आदि मनुष्य के मनोरंजन का एक शानदार पक्ष रहा है। अब जब मनोरंजन की बात हो ही रही है तो बच्चों को कहां भुलाया जा सकता है। यदि हम कुछ दशक पूर्व में झांकें तो इनके मनोरंजन के साथी जहां उनके अपने खेल थे, वहीं लोक कथाएं, लोक नाट्य, लोकोक्तियां, कहावतें तथा कई प्रकार के किस्से भी समाहित थे। यह अनमोल खजाना हमें पीढ़ी दर पीढ़ी निरंतर मिलता रहा है। इस खजाने में हर देशकाल में नए किस्से, कहानियां, गाथाएं जुड़ती रहीं और वे बच्चों के मनोरंजन में सहभागिता करती रहीं।

लोकसाहित्य का यह पक्ष बाल साहित्य की समृद्धता का प्रतीक है। इसके बगैर पुराने समय में मनोरंजन का और कोई विशेष पर्याय शेष नहीं रह जाता था। यदि लोकसाहित्य में नाना-नानी, दादा-दादी वाली उन व्यावहारिक कडि़यों की बात करें तो ये बच्चों को मनोरंजन के साथ संस्कारित भी करती रहती थीं। बच्चों को अपने बड़े-बुजुर्गों के साथ समय बिताने, एक-दूसरे को जानने-समझने का यह सबसे बेहतर अवसर प्रदान करती थीं। हिमाचल प्रदेश की भौगोलिक परिस्थितियां, बोलियां, रहन-सहन, परंपराएं, खानपान, पहनावे से लेकर संस्कृति, परंपरा के पक्षों में भिन्नता इसके बनने से पहले और अब, सर्वविदित है। इसी वातावरण के चलते यहां के हर हिस्से के अपने हिसाब से हर समय अंतराल में अपनी तरह की लोक कथाओं, किस्सों, पहेलियों आदि का जन्म होता रहा है।

मनोरंजन के यही वे साधन थे जो बच्चों में नैतिक मूल्यों को विकसित करने में भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे। बाल साहित्य बच्चों के विकास का निरंतर घूमने वाला पहिया भी है। यदि प्राचीन समय की बात करें तो लोकसाहित्य के कुछ अंग बाल साहित्य के पूरक थे। खेल तो ज्यादातर दिन में ही खेल लिए जाते थे, लेकिन दिनभर की थकान के बाद, अंधेरा होते ही दीयों या लैंप की रोशनी में अपनी ही तरह की सुबह कर देता था लोक कथाओं, किस्सों, कहावतों और पहेलियों का जादू। उस समय अपने बुजुर्गों से बच्चों की यही एक मांग रहती थी। यह कार्य अपनी सुविधानुसार चूल्हे के पास बैठकर या फिर सोते समय, मिलकर मक्की से दाना निकालते हुए या फिर ‘ज्वारी’ के समय पूरा किया जाता था। ये पल बच्चों के लिए सबसे मनोरंजक होते थे। रहस्य, रोमांच और कई प्रकार की कल्पनाओं से सजे हुए। पहाड़ के जो इलाके कई-कई महीनों बर्फ  से ढके रहते, वहां भी यह कार्य निरंतर इसी रूटीन में जारी रहता था। यही था उस समय का हिमाचल का बाल साहित्य। बिल्कुल मौखिक। जहां तक जानकारी उपलब्ध हो पाती है, हिमाचल में बाल साहित्य सन् 1950 तक संभवतः मौखिक रूप में ही रहा।

सन् 1950 के अंतिम वर्षों तक हिमाचल में लिखित बाल साहित्य के बीज बोने शुरू हो गए थे जिसका अंकुरण सन् 1950 के बाद हुआ। यह समय राजा-रानी, भूत-प्रेत, जादू-टोना, तिलिस्म, परी कथाओं, धार्मिक कथाओं, पौराणिक किस्सों, पहेलियों या फिर अपने इलाके की किसी रोचक घटना आदि के सुनने-सुनाने का ही रहा। हिमाचल के बहुत से साहित्यकारों ने अपने इलाके के साथ प्रदेश की लोक कथाओं को भरपूर रचा है और आज भी यह कार्य निरंतर जारी है। यह कार्य बालोपयोगी साहित्य का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। बस एक ही कमी खलती है। वह यह कि यह साहित्य अब बच्चों के पास नहीं पहुंच पा रहा है। अब बच्चों का दादा-दादी, नाना-नानी या अपने बड़े-बुजुर्गों के साथ बैठना, उठना भी बहुत कम हो गया है। जिस कारण आज का बच्चा और बड़े-बुजुर्ग भी धीरे-धीरे अपनी विरासत में बालमन के मनोरंजन के लिए मिली लोकसाहित्य की विभिन्न कडि़यों से दूर होता जा रहा है।

 वैसे, इसके लिए एकल परिवार परंपरा और आज की भागमभाग भरी जिंदगी भी काफी हद तक जिम्मेवार है। इतना तो अवश्य है कि बच्चों को ध्यान में रखकर रचा गया लोकसाहित्य जरूर कई कल्पनाओं, रहस्यों, रोमांच से हमेशा सजा रहता था। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यदि हम देखें, समझें और उस पर मनन करें तो हम पाते हैं कि यह मनोरंजन के साधन बच्चों में मानवीय मूल्यों की नींव को सजाने में भी अहम भूमिका अदा करते थे। हां, एक बात यह जरूर है कि आज बच्चा भूत-प्रेत, परीलोक या अन्य बेतुकी काल्पनिक बातों से कुछ समय के लिए तो मनोरंजन करता है, लेकिन ज्यादा देर तक नहीं। वह हमेशा हकीकत से ही रूबरू होना चाहता है। आज समाज की उन कडि़यों को जोड़ने की नितांत आवश्यकता है जो हमें अपनों के करीब ले जाती हैं। इसके लिए बुजुर्गों के साथ बच्चों की बैठकें चाहे लोककथा के बहाने ही सही, यदि दोबारा शुरू हो जाती हैं तो भविष्य में बेहतर परिणामों की उम्मीद जरूर की जा सकती है।

पुस्तक समीक्षा : मानवीय धड़कनों की प्रतिकृति सतसई ‘कस्तूरी’

मानवीय संवेदनाओं की परिष्कृत प्रस्तुति ही साहित्य है। यह साहित्य की विशदता एवं विशालता का ही प्रतीक है कि रचनाकर्मी अपने सृजन में अर्थ की अनेक परतों को एक साथ लेकर चल सकता है। इस तरह अनेक स्तरों पर अपने अनुभव जगत का समानांतर चित्रण ही लेखक की कुशलता एवं उसके रंग कर्म का परिचायक बनता है। अजय पाराशर ने अपनी काव्य पुस्तक ‘कस्तूरी’ को दोहा संग्रह कहना श्रेयस्कर माना है, जबकि वस्तुतः इसे सतसई परंपरा की एक सशक्त रचना मानना न केवल सही होगा, अपितु ऐसा करने से इसके मूल्यांकन में भी सहायता मिलेगी। अपभ्रंश एवं हिंदी साहित्य में दोहा छंद बेहद लोकप्रिय रहा है। अपभ्रंश के आख्यानों में तथा हिंदी साहित्य में अन्य लेखकों के अतिरिक्त महाकवि तुलसीदास, कबीर, रहीम आदि ने इसे विशेष रूप से प्रयुक्त किया है। दोहा मात्रिक अर्द्धसम छंद है। इस छंद के प्रथम तथा तृतीय पाद में 13-13 मात्राएं और दूसरे तथा चौथे में 11-11 मात्राएं होती हैं। यति पादांत में होती है। तुक प्रायः सम पादों में मिलती है। मात्रिक गणों का क्रम कुछ इस प्रकार रहता है- 6+4+़3 तथा 6+4+1. दोहा मुक्तक काव्य का प्रधान छंद है और सतसइयों में इसी का प्रयोग हुआ है।

 सतसई नाम लेते ही सबसे पहले महाकवि बिहारी का नाम मन-मस्तिष्क में कौंध जाता है क्योंकि बिहारी सतसई हिंदी साहित्य जगत् की सर्वाधिक ख्यात रचना है, जो अपनी आध्यात्मिकता एवं श्रृंगार की रस निष्पत्ति के कारण सैकड़ों वर्षों से पाठकों एवं विद्धानों का मन मोहती आई है। और भी कई लेखकों ने सतसई लिखने का प्रयत्न किया है, परंतु हिमाचल में सन् 1948 में जगन्नाथ शास्त्री द्वारा रचित ‘जगत सतसई’ के बाद महत्त्वपूर्ण नाम अजय पाराशर की सतसई ‘कस्तूरी’ का ही लिया जा सकता है। आलोच्य पुस्तक में 709 दोहे संकलित हैं, जिन्हें विषयवस्तु की दृष्टि से लेखक ने सात प्रकरणों में बांटा है अर्थात् आराधना, नैना, श्रृंगार, नीति, प्ररृति और लोकोक्तियों पर आधारित दोहे। विषयवस्तु की दृष्टि से खंड विभाजन की परंपरा को तो नहीं नकारा जा सकता, परंतु सतसई में खंड विभाजन से पाठक के ध्यान में निश्चित रूप से व्यवधान उत्पन्न होता है। दोहे की विशेषता यह होती है कि वह भाव-भंगिमा में एक-सा दिखाई देने पर भी अलग-अलग पाठकों के लिए भिन्न अर्थों का प्रतिपादक हो सकता है। मैं कस्तूरी के अध्ययन के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि अजय पाराशर के दोहों में यह गुण प्रभूत मात्रा में विद्यमान है।

 लेकिन अंतिम खंड के शीर्षक बेमाने हैं। आप विचार, घटना, भाव कहीं से भी लें, लेकिन यह बताने की क्या ज़रूरत है कि मैंने अंतिम खंड के लिए विचार का उधार लोकोक्तियों से लिया है। दोहे का अभिप्राय होता है कम शब्दों मे अधिक कहना या गागर में सागर भरना। इस दृष्टि से पाराशर का शब्दों पर नियंत्रण अद्भुत है, यथा ः ‘बिरह की जब अगन बरे, लीले सारे काम। आसक्ति का भाव मिटे, हर दिक् दीखे राम।।’ संसार की असारता, जीवन की क्षणभंगुरता और मनुष्य की लालसा-लोलुप्ता को रेखांकित करता एक और दोहा उद्वरणीय है ः ‘सारी उम्र गंवाए के, अब बोले है राम। पिंजर चाहे बैठ गया, मनवा कहां आराम।।’ आराधना खंड में लेखक ने जीवन की निस्सारता, प्रलोभनों, मिथ्याभासों तथा मानवीय व्यवहार की विसंगतियों को लेकर प्रतीकों के माध्यम से अपनी बात को सहजता एवं कुशलता के साथ कहने का प्रयत्न किया है। सतसई परंपरा में श्रृंगार प्रमुख रस रहा है और प्रस्तुत पुस्तक में भी प्रेम, रासलीला और श्रृंगार को लेकर दोहों की रचना हुई है। प्रेम की शाश्वतता का चित्रण करते हुए कवि लिखता है ः ‘हड़क प्रेम अंतर बड़ा, हड़क हुई ज्यों खेल। सांचा प्रेम न उतरे, मलिए कई मन तेल।।’ इसी प्रकार रासलीला में भी राधा और कान्हा के माध्यम से मनुष्य के सांसारिक अस्तित्व की प्रासंगिकता को रेखांकित किया गया है, जो राधा की विभिन्न मनःस्थितियों को प्रकट करता है। अजय पाराशर की पुस्तक ‘कस्तूरी’ में संकलित दोहे, गंभीर विषयवस्तु का सहज एवं सरल परंतु प्रांजलता से भरपूर आस्वाद की अभिव्यक्ति है। इसमें अनेक प्रकार के भावों का कलात्मक चित्रण है।

जैसे प्रायः सतसई के बारे में कहा जाता है कि ‘सतसईया के दोहरे, ज्यों नाविक के तीर। देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर’ वाली उक्ति पाराशर सतसई पर बखूबी चरितार्थ होती है। पाठक का सतसई में आकंठ डूब जाना ही इस सतसई की विशिष्टता का प्रमाण है। प्राक्कथन के रूप में विद्धान समदोंग रिनपोंछे का आशीर्वचन पुस्तक के आध्यात्मिक माहात्म्य को रेखांकित करता है। पुस्तक के प्रारंभ में अजय पाराशर का उद्बोधन भी पुस्तक को समझने में सहायक होता है, लेकिन पाठक को मिलने वाले मौलिक आनंद से भटकाता है। पुस्तक का शीर्षक ‘पाराशर सतसई’ होना चाहिए था, ‘कस्तूरी’ नहीं। यह पुस्तक की छवि या झलक को आशु रूप से उद्घाटित नहीं करता। फिर भी पुस्तक बहुत ही रोचक, अर्थपूर्ण, कलात्मक, प्रतीकात्मक भाषा से भरपूर, प्रभविष्णुता से संपृक्त है, संग्रहणीय है। इस निमित्त लेखक को साधुवाद। अयन प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य 240 रुपए है, जो वाजिब है।

-डा. सुशील कुमार ‘फुल्ल’

साहित्यिक वार्षिकी : हिमाचल प्रदेश में साहित्य सृजन

रवि कुमार सांख्यान

मो.-9817404571

साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्य में समाज का समुचित प्रतिबिंब देखा जा सकता है। इस वैश्विक महामारी के विकट दौर में भी देश-विदेश के साहित्यकारों की तरह हिमाचल प्रदेश के साहित्यकारों ने भी वातायन खुले रखे। ऑफ लाइन में साहित्य सृजन की असुविधा को ऑनलाइन साहित्य प्रचार-प्रसार से बखूबी सुविधाजनक व सुलभ बनाने में तल्लीन रहे। विकट समय में भी अपनी कृतियों द्वारा समाज को सकारात्मक दृष्टिकोण से मुसीबतों का डटकर मुकाबला करने का समुचित संदेश दिया।

हिमाचल प्रदेश के प्रकाशित कविता संग्रहों में डा. प्रत्यूष गुलेरी के संपादन में हिंदी बाल कविताएं, अतुल कुमार का जीवन में अल्पविराम, डा. विजय विशाल का चींटियां शोर नहीं करती, रमेश चंद मस्ताना का कागज के फूलों में, हरिप्रिया का अंतस का मुखरित मौन, जय कुमार का पंछी उड़ते नहीं अकेले, कल्पना का स्टोरी ऑफ  गलोरी, राजीव कुमार त्रिगर्ती का ज़मीन पर होने की खुशी, डा. सत्यनारायण स्नेही का इंटरनेट पर मेरा गांव, डा. विजय कुमार पुरी के संपादन में अनंत आकांक्षाओं का आकाश आदि प्रमुख रही। लघुकथा संग्रहों में अदित कंसल की कृति ‘अपने हिस्से की धूप’ प्रकाशित हुई। कहानी संग्रहों में डा. गंगाराम राजी का ग्यारह बजे, आई लव यू पापा, डा. संदीप शर्मा का माटी तुझे पुकारेगी, प्रतिभा शर्मा का संस्कार अभी भी जिंदा है, एलआर शर्मा का ढेला सेठ, डा. कुंवर दिनेश सिंह का जब तक जिंदा हैं, एनबीटी द्वारा प्रकाशित चंद्रधर शर्मा गुलेरी की चर्चित कहानियों का डोगरी पुस्तक अनुवाद आदि प्रमुख रहे।

 गीत संग्रहों में नवीन हल्दूणवी का गीत संग्रह ‘कलम चली है’ प्रकाशित हुआ। डा. कुंवर दिनेश सिंह द्वारा हाइकू संग्रह ‘फ्लेम ऑफ  फारेस्ट’ का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद प्रकाशित हुआ। दोहा सतसई में श्यामलाल शर्मा का आत्मानुभूति व अजय पराशर का कस्तूरी प्रकाशित हुआ। हिंदी गज़ल संग्रह में प्रताप जरयाल का मधुमास प्रकाशित हुआ। उपन्यासों में डा. गंगाराम राजी का सिंध का गांधी, दो और दो पांच, अतुल अंशुमाली का सदानंद ः एक कहानी का अंत, प्रोमिला ठाकुर का नायिका व त्रिलोक मेहरा का मुंडूण आदि प्रमुख रहे। शोध प्रकाशन में डा. मीनाक्षी दत्ता का हिमाचली लोकगीतों का अनुशीलन, डा. गौतम शर्मा व्यथित की हिमाचली परंपरा शील लोक नाट्य भगत कथ्य एवं शिल्प, उमा ठाकुर नधैक का महासुवी लोक संस्कृति, पवन चौहान का हिमाचली बाल साहित्य, रमेश मस्ताना का हिमाचली-पहाड़ी में प्रकाशित ‘मिट्टिया री पकड़’ आदि प्रकाशित हुए। यात्रा संस्मरण कृतियों में डा. सूरत ठाकुर की व्यासा री यात्रा गाथा, शेर सिंह का यांरा से वॉलोंगॉन्ग तथा डा. गंगाराम राजी का ‘दिल ने फिर याद किया’ प्रकाशित हुए। साहित्य संवाद के क्षेत्र में गणेश गनी का ‘यह समय है लौटाने का’ प्रकाशित हुआ। व्यंग्य के क्षेत्र में डा. सुदर्शन वशिष्ठ के संपादन में हिमाचल प्रदेश का प्रतिनिधि व्यंग्य, डा. अशोक गौतम का हम नंगन के, दीनदयाल वर्मा का ‘सांसों की सरकार’ प्रकाशित हुआ। नाटकों में पंकज दर्शी द्वारा लिखित हिमाचली-कांगड़ी भाषा का ‘धिया रा व्याह’ प्रकाशित हुआ। भोपाल से प्रकाशित रिसाला-ए-इंसानियत त्रैमासिक पत्रिका द्वारा डा. नलिनी विभा नाजली विशेषांक व प्रगतिशील इरावती द्वारा महाराज कृष्ण काव केंद्रित अंक प्रकाशित हुआ।

आत्मा रंजन की पुस्तक ‘पगडंडियां गवाह है’ का डा. अमरजीत कौंके द्वारा पंजाबी भाषा में पुस्तक अनुवाद प्रकाशित हुआ। साहित्य अकादमी द्वारा दिविक रमेश के संपादन में प्रतिनिधि बाल कविता संचयन में डा. प्रत्यूष गुलेरी की कविताओं को भी स्थान मिला। नेपाल से प्रकाशित शब्द संयोजन पत्रिका में संपादक सुमी लोहनी द्वारा कुल राजीव पंत की कविताओं का नेपाली भाषा में अनुवाद भी प्रकाशित हुआ है। इसके अलावा फेसबुक, व्हाट्सऐप पर आयोजित साहित्यिक आयोजनों में हिमाचल के साहित्यकारों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। साथ ही हिमाचल कला साहित्य अकादमी शिमला, भाषा एवं संस्कृति विभाग, बिलासपुर लेखक संघ, अखिल भारतीय साहित्य परिषद, राष्ट्रीय कवि संगम और विभिन्न साहित्य प्रेमी संस्थाएं भी फेसबुक पर साहित्यिक आयोजनों में सक्रिय रहीं। कुल मिलाकर विकट परिस्थितियों में भी साहित्य क्षेत्र में सृजन कम नहीं आंका जा सकता है।


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