किसान आंदोलन में नया मोड़

न तो कांग्रेस में और न ही कम्युनिस्टों में इतनी शक्ति बची है कि वह नरेंद्र मोदी की सरकार के खिलाफ खुल कर जनता के बीच जा सकें। इसलिए इन्होंने यह आंदोलन बहुत ही सफाई से भारतीय किसान यूनियन को आगे करके शुरू किया। लेकिन आम आदमी पूछ सकता है कि क्या कांग्रेस को इस आंदोलन की दशा और दिशा का अंदाजा नहीं है? इसमें कोई शक नहीं कि उसे यह अंदाजा है। कैप्टन अमरेंद्र सिंह ने तो स्वयं कहा है कि यह आंदोलन जिस दिशा में बढ़ रहा है, उससे देश की सुरक्षा को खतरा हो सकता है…

उच्चतम न्यायालय ने उन तीन कृषि अधिनियमों के क्रियान्वयन पर फिलहाल रोक लगा दी है जिनको निरस्त करने के लिए पंजाब-हरियाणा के किसान आंदोलन ही नहीं कर रहे, बल्कि दिल्ली जाने के रास्ते रोके हुए भी हैं। सभी पक्ष अपना मत इन अधिनियमों के बारे में रख सकें, इसके लिए न्यायालय ने चार सदस्यों की एक समिति का गठन भी कर दिया। इस समिति में किसान आंदोलन चला रही भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष भूपिंदर सिंह मान भी सदस्य मनोनीत किए गए थे। मान अखिल भारतीय किसान समन्वय समिति के भी अध्यक्ष हैं। वैसे भारतीय किसान यूनियन के कई हिस्से हो चुके हैं और उनमें से कुछ हिस्सों पर वामपंथी नेतृत्व का भी कब्जा है। लेकिन समिति में मनोनीत होने के कुछ दिन बाद ही अचानक भूपिंदर सिंह मान ने समिति से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने कहा कि उनके लिए किसानों का हित पहले हैं, इसलिए वे समिति में नहीं रह सकते। ऊपर से देखने पर लगता है कि मान स्वयं इस आंदोलन से जुड़े हुए हैं, इसलिए वे समिति से हट गए। यदि ऐसा होता तो शायद किसी को दिक्कत नहीं होती। लेकिन चौंकाने वाली बात यह है कि समिति से त्यागपत्र देने का दबाव उन पर पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिंह ने बनाया। मीडिया में खबरें आ रही हैं कि कैप्टन ने भूपिंदर सिंह मान से फोन पर संपर्क किया कि वे उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित इस समिति से हट जाएं।

इतना ही नहीं, यह भी कहा जा रहा है कि कांग्रेस के लोगों ने इस मामले में उनके सुपुत्र से भी संपर्क किया जो पंजाब लोक सेवा आयोग का सदस्य है। यह कहने की जरूरत नहीं कि उसे आयोग का सदस्य कांग्रेस के कार्यकाल में ही नियुक्त किया गया था। पंजाब के मंत्रिमंडल ने बाकायदा एक प्रस्ताव भी पारित किया कि जब तक ये तीनों कृषि अधिनियम वापस नहीं लिए जाते हैं, तब तक किसी किस्म की वार्ता नहीं हो सकती। दरअसल उच्चतम न्यायालय की इस पहल से आशा बनने लगी थी कि समस्या का सर्वमान्य समाधान निकल आएगा। यही कांग्रेस और कम्युनिस्टों  की चिंता का विषय बनने लगा था। इसलिए किसी भी तरह उच्चतम न्यायालय की इस पहल को पलटता लगाया जाए, यह कांग्रेस की रणनीति बनी। इस रणनीति में कैप्टन अमरेंद्र सिंह ने अपने हिस्से वाला पार्ट अदा कर दिया। दरअसल कांग्रेस पुनः उसी रास्ते पर चल पड़ी है जिस रास्ते पर चल कर उसने कुछ दशक पहले पंजाब को आग की भट्टी में झोंक दिया था। उस समय पंजाब से अकाली दल को अपदस्थ करने के लिए कांग्रेस ने राज्य को अपनी प्रयोगशाला बना लिया था। अकाली दल को कांग्रेस कितना नुकसान पहुंचा पाई, यह तो कांग्रेस ही बेहतर जानती होगी, लेकिन पाकिस्तान की आईएसआई की सहायता से उसने पूरे राज्य को आतंकवाद की आग के हवाले कर दिया जिसमें न जाने कितने मासूमों ने अपनी जान गंवाई। इंदिरा गांधी तक की हत्या हुई, जिसका बदला कांग्रेस ने 1984 में दिल्ली नरसंहार से लिया। वह आग बहुत मुश्किल से बुझी। लेकिन लगता है कांग्रेस ने अब वही खेल दोबारा शुरू कर दिया है। फर्क केवल इतना ही है कि उस समय मकसद पंजाब से अकाली दल को हटाना था और अबकी बार मकसद दिल्ली से भाजपा की सरकार को हटाना है।

एक फर्क और भी है। उस बार कांग्रेस अपने दम पर वह प्रयोग कर रही थी, लेकिन इस बार वह यह प्रयोग कम्युनिस्टों की सहायता से कर रही है। वैसे तो कांग्रेस और कम्युनिस्टों का कोई रिश्ता नज़र नहीं आता, लेकिन सत्ता ने वह रिश्ता भी बना दिया है। जिस समय कांग्रेस पिछली शती के सातवें-आठवें दशक में पंजाब में अकाली दल को निष्प्रभावी बनाने के लिए प्रयोग कर रही थी, उस समय कम्युनिस्टों की बंगाल और त्रिपुरा में सत्ता थी। लेकिन भाजपा की आंधी में त्रिपुरा में यह सत्ता समाप्त हो गई और बंगाल में उसको ममता खा गई। हालत यह हो गई कि बंगाल में भी भाजपा के जम जाने के आसार बन रहे हैं। कांग्रेस के तंबू सब जगह से उखड़ रहे हैं।

यदि अगली बार 2024 में भी भाजपा सत्ता में आ गई तो शायद हिंदुस्तान के इतिहास में कांग्रेस और कम्युनिस्ट भविष्य के शोध छात्रों की सामग्री बन जाएं। इसलिए इन दोनों दलों को भविष्य की चिंता ने हमनिवाला होने के लिए विवश कर दिया। खबरें आ रही हैं कि कांग्रेस और कम्युनिस्ट बंगाल में मिल कर चुनाव लड़ने की रणनीति बना रहे हैं। दोनों दलों को लगता है कि शायद मतदान की प्रक्रिया से भाजपा को निष्प्रभावी नहीं किया जा सकता। इसलिए कांग्रेस ने वही पुराना खेल शुरू कर दिया है। लेकिन प्रश्न है कि इसके लिए पंजाब को ही क्यों चुना गया है? अकाली दल को हटाने के लिए पंजाब में कांग्रेस ने पिछली शताब्दी में प्रयोग किया था, यह समझ में आता है क्योंकि अकाली दल पंजाब का क्षेत्रीय दल था और उसका प्रभाव भी पंजाब तक ही था, लेकिन भाजपा की सरकार तो केंद्र में है, फिर इस प्रयोग के लिए पंजाब का ही चयन क्यों?

उत्तर बहुत स्पष्ट है। पंजाब सीमांत राज्य है और संवेदनशील है। यदि प्रयोग पंजाब में किया जाता है तो सरकार के पास विकल्प बहुत कम रह जाते हैं क्योंकि उस स्थिति में पाकिस्तान को खेलने के अवसर मिल जाते हैं। कांग्रेस के पिछले प्रयोग में भी पाकिस्तान को खेलने का अवसर मिल गया था जिसकी कीमत पंजाब अब तक चुका रहा है। इस बार पाकिस्तान के साथ चीन भी मिल गया है। लेकिन न तो कांग्रेस में और न ही कम्युनिस्टों में इतनी शक्ति बची है कि वह नरेंद्र मोदी की सरकार के खिलाफ खुल कर जनता के बीच जा सकें। इसलिए इन्होंने यह आंदोलन बहुत ही सफाई से भारतीय किसान यूनियन को आगे करके शुरू किया। लेकिन आम आदमी पूछ सकता है कि क्या कांग्रेस को इस आंदोलन की दशा और दिशा का अंदाजा नहीं है? इसमें कोई शक नहीं कि उसे यह अंदाजा है। कैप्टन अमरेंद्र सिंह ने तो स्वयं कहा है कि यह आंदोलन जिस दिशा में बढ़ रहा है, उससे देश की सुरक्षा को खतरा हो सकता है। लेकिन सत्ता की राजनीति बहुत ही बेरहम होती है। कम्युनिस्टों को सत्ता तक पहुंचने के लिए लाशों की जरूरत होती है और कांग्रेस इसके लिए किस सीमा तक जा सकती है, उसका प्रदर्शन वह पंजाब में पिछली शताब्दी में कर ही चुकी है। दोनों उसी मार्ग पर चलते जा रहे हैं। बस फर्क इतना ही है कि इस बार दिल्ली की सरकार उनके इस फंदे में फंस नहीं रही है। कैप्टन अमरेंद्र सिंह ने मान से इस्तीफा दिलवा कर फंदा तो फेंका ही है। सरकार ने वार्ता का रास्ता बंद नहीं किया है।

 ईमेलः kuldeepagnihotri@gmail.com


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