कुलदीप चंद अग्निहोत्री

1995 में दलाईलामा ने तिब्बत में ही अवतार लिए एक छह वर्षीय बच्चे की पहचान 11वें पंचेन लामा के रूप में की। चीन सरकार ने उसे पूरे परिवार समेत कैद कर लिया और उसे गायब कर दिया था। इसके स्थान पर चीन सरकार ने एक दूसरे बच्चे को अवतार घोषित कर दिया। तब से असली पंचेन लामा का किसी को पता नहीं है और चीन द्वारा घोषित दलाईलामा को तिब्बत के लोगों की मान्यता नहीं है। चीन पंद्रहवें दलाईलामा के मामले में भी यही कहानी दोहरा सकता है। यही कारण है कि वर्तमान दलाईलामा ने बहुत कुछ स्पष्ट कर दिया है। उन्होंने स्पष्ट किया कि उनका किसी गुलाम देश में पुनर्जन्म नहीं होगा...

चापलूस गिरोह ने बार-बार गीत गाकर इंदिरा गान्धी को विश्वास दिला दिया था कि देश संजय के कारनामों से भाव विभोर है। इंदिरा गान्धी ने लोकसभा के लिए चुनावों की घोषणा कर दी और सभी विपक्षी दलों ने विलय कर एक नई पार्टी, जनता पार्टी का गठन कर लिया। चुनाव के परिणाम चौंकाने वाले थे। इंदिरा गान्धी और संजय गान्धी दोनों हार गए...

हमलावरों के इतिहासकारों ने ही इन समुदायों को अपने इतिहास में दीन-हीन चित्रित किया और इनके शौर्य की गाथाएं छिपा दीं। जाहिर है उन दिनों इतिहासकार एटीएम (अरब, तुर्क, मुगल) मूल के हमलावरों के थे और वे अपने से लडऩे वालों की बहादुरी नहीं लिख सकते थे...

इसे महाभारत का यक्ष प्रश्न ही कहना चाहिए कि 1947 में षड्यंत्रकारी ब्रिटिश शासकों के चले जाने के बाद भी पंजाब के विश्वविद्यालयों में निर्मला पंथ का इतिहास व निर्मला साधुओं का रचित साहित्य उपेक्षित ही रहा...

जैसा कि पहले कहा जा चुका है, सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर ताकतवर होने के लिए ऊंच-नीच, छूतछात के जहर को निष्क्रिय करना होगा। लेकिन यह कैसे होगा, यह सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न था। इसका एक तरीका तो यह था कि तत्व के आधार पर देशवासियों को समझाया जाए कि सभी मनुष्य बराबर हैं। लेकिन यह तो सब पुराने भारतीय ग्रंथों में लिखा ही हुआ है। साधु संत घूम घूम कर लोगों को यह सब कुछ बताते भी रहते हैं। बराबरी व समान व्यवहार के इस पाठ का अभ्यास दर्शन व भक्ति के धरातल पर नहीं, बल्कि व्यावहारिकता के धरातल पर करना होगा...

मणिपुर में बहुत समय से अशांति है। उस अशांति ने सैकड़ों लोगों की जान ले ली और और उसके बाद राज्य के मुख्यमंत्री एन. वीरेन सिंह के मंत्रिमंडल की बलि भी ली। समाज शास्त्री कहते हैं कि संकट काल में किसी बहुमूल्य चीज की बलि देकर बडे नुकसान को रोकने की कोशिश की जाती है। मणिपुर में भी भारतीय जनता पार्टी ने शायद इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपने मंत्रिमंडल की बलि दी होगी। लेकिन जिस शांति की आशा में यह बलि दी गई थी, वह पूरी होती नहीं लगती। शांति क्यों नहीं हो पा रही

हमारी संसद में पहले भी पैसे लेकर सवाल पूछे जाते रहे हैं। लेकिन इसका परिणाम शुभ नहीं होता। राहुल गांधी उससे भी आगे निकल गए। उन्होंने कहा कि भारत सरकार ने पाकिस्तान सरकार को पहले ही यह सूचना दे दी थी कि आतंकवादियों के किन-किन ठिकानों पर भारतीय सेना हमला कर रही है। इसलिए वहां से आतंकवादी हटा दिए गए थे। लेकिन पंजाब का एक कांग्रेस विधायक तो उससे भी आगे निकल गया। उसने कहा कि गांव की भाषा में इसे ही मुखबरी कहा जाता है और भारत के विदेश मंत्री जयशंकर पाकिस्तान के मुखबिर हैं। कांग्रेस के इन आरोपों का तो उत्तर देना भी कांग्रेस को सम्मान देने के बराबर होगा...

चार दिन के बाद ऑपरेशन सिंदूर थम गया। सीजफायर हो गया। सीजफायर यानी दोनों पक्षों ने फायर करना या गोलियां चलानी बंद कर दी हैं। हिंदी में इसका अनुवाद युद्धविराम बनता है। कायदे से दोनों देशों को युद्धविराम की घोषणा करनी चाहिए थी। दोनों देशों ने ऐसा किया भी। लेकिन उनके घोषणा करने से दो मिनट पहले अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने एकाऊंट पर युद्धविराम की सूचना ही नहीं दी, बल्कि यह भी कहा कि यह युद्धविराम मैंने कराया है। उसने केवल युद्धविराम की घोषणा ही नहीं की, बल्कि यह भी बताया कि दोनों देश किसी तीसरे तटस्थ देश में आपस में बातचीत करेंगे। उसने बातचीत का विष

मैं अपनी बात अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प की उस टिप्पणी से करूंगा जिसमें उन्होंने कहा है कि भारत में यह लड़ाई एक हजार से भी ज्यादा समय से चल रही है। अब अगली बात। इस बार पाकिस्तानी सेना पहलगाम पर अपने जिहादियों से हमला करवा कर सचमुच धोखा खा गई। वैसे तो नियम है कि जब कोई सेना दूसरे देश पर हमला करती है तो वह उस देश की क्षमता, इतिहास और स्वभाव का पहले आकलन कर लेती है। पाक सेना स्वयं या अपने प्रशिक्षित जिहादियों द्वारा भारत में कहीं न कहीं

कारगिल के बाद तो अब तक आतंकवाद के रूप में यह युद्ध निरंतर चल रहा है। ट्रंप ने सही कहा है कि यह लड़ाई हजार-पंद्रह सौ साल से चली हुई है। अंतर केवल इतना ही है कि पहले हमले अरब, तुर्क या मुगल करते थे, लेकिन अब उनमें भारत पर हमले करने की हिम्मत तो नहीं बची है या फिर उन्हें शायद इसकी जरूरत भी नहीं है। अलबत्ता अब अपने ही वे लोग जिन्होंने इस कालखंड में इस्लाम ग्रहण कर लिया था, जब भारत पर हमला करते हैं तो तुर्क उनकी मदद पर आ जाते हैं...