लोकसाहित्य की वाचिक परंपरा का संरक्षण अनिवार्य हो

By: Jan 3rd, 2021 12:06 am

संगीता पाठक, मो.-8351815727

रचना की दृष्टि से लोक की वाचिक परंपरा विश्व के किसी भी साहित्य से कमतर नहीं है। चाहे कथ्य हो या कथानक, रूप हो या सौंदर्य, भाव हो या भाषा, विचार हो या अवधारणा, आस्था हो या अनुष्ठान, संप्रेषण हो या संस्कृति, विधा हो या शैली, वाक् हो या अर्थ, अभिधा हो या व्यंजना, सबमें कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में हमारा लोकसाहित्य सदैव मौलिक और प्रेरणादायी रहा है, क्योंकि साहित्य की कितनी ही महान रचनाएं और विधाएं लोक की वाचिक परंपरा की कोख से जन्मी, संपोषित और कालजयी हुई हैं। यह लोक की अमर शक्ति और सामर्थ्य की ही प्रतिश्रुति है। लोकसाहित्य के संबंध में एक बार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था कि ‘अगर पुरातत्त्व विभाग के लोग क्षमा करें तो मैं यह कहना चाहूंगा कि प्राचीन लोकगीतों का महत्त्व किसी मोहनजोदड़ो, हड़प्पा से कम नहीं है।’ निःसंदेह यह एक ऐसे आचार्य का कथन है जो सदैव हमारी भारतीय संस्कृति और सभ्यता का आलोड़न करने वाला रहा है। समकालीन परिवेश में साहित्य पर सर्वाधिक प्रभाव यह द्रष्टव्य हो रहा है कि मानवीय मूल्य परिवर्तित होकर क्षरित हो रहे हैं।

हालांकि हिंदी साहित्य की रचनाधर्मिता में इस समय लोकांचलों की समस्याओं को संदर्भित लोकभाषा की छोंक के साथ उठाया जा रहा है। यह सुखद संकेत है। ऐसे दौर में लोकसाहित्य पर चर्चा करना समीचीन होगा, क्योंकि लोकदर्शन, लोकधर्म, लोकभावादि की सहज एवं सरल अभिव्यक्ति साहित्य में ही होती है। लोकसाहित्य पूरी तरह लोक का हो जाता है। इसमें नागरीय जीवन की भागदौड़, चकाचौंध, बौद्धिकता, कृत्रिमता और भौतिकताजन्य विसंगतियों के स्थान पर गांव की स्वच्छंद भावुकता, लोकरस की प्रधानता और जीवन की सरलता द्रष्टव्य होती है। लोकसाहित्य लोक में रचा-बसा रहता है जिससे इसमें मूल मानवीय भाव त्याग, प्रेम, शौर्य, भक्ति, परोपकार, करुणा, सहयोग और संघर्ष भाव प्रकट होते हैं। और सबसे खास बात यह है कि इसमें पलायन नहीं, अपित मानव जीवन संघर्ष के भाव मिलते हैं। लोक मन दुख और संकट में भी प्रसन्नता के साथ जीवन जीता है। आज वैश्वीकरण के कारण फैल रहे अर्थवाद से समाज में स्वार्थपरता, मूल्यहीनता, संस्कृति विमुखता, आतंक, हिंसा, निराशा, तनाव आदि जैसे न जाने कितने नकारात्मक भाव लगातार पैर पसार रहे हैं। लेकिन इन परिस्थितियों में जन संपृक्त लोकसाहित्य में मानवीय सरोकारों के प्रति गहरी आस्था देखने को मिलती है। वैसे भी लोक और साहित्य जीवन से विलग नहीं हैं। लोकसाहित्य का मतलब है लोक का साहित्य। इसलिए लोक का साहित्य मूलतः किसी भी बोली अथवा भाषा की वाचिक परंपरा का आत्मीय अंग होता है।

दरअसल मनुष्य जीवन और संसार के विभिन्न अनुभवों से गुजरता है, तब वह अपने आसपास इसी अनुभव के आधार पर जीवन का ताना-बाना बुनता है। सरल शब्दों में वही ‘लोक’ है। लोक शब्द प्रायः देखने के अर्थ में प्रयुक्त होता आया है। एक अर्थ में यह जन और समुदाय को देखने का कार्य करता है और जिसे देखा जाता है, वह लोक की परिधि में आता है। मनुष्य के देखने का अर्थ सृष्टि की धड़कन देखना है। मनुष्य के प्रारंभिक जीवन के संघर्षों की जीवंत धारा इसी लोक से निकलकर आज तक निरंतर बह रही है। मनुष्य सृष्टि को जहां तक और जितनी दूर तक भीतर और बाहर देख सकता है, लोक की पहुंच वहां-वहां तक देखी जा सकती है, महसूस की जा सकती है। इसे देखने में मनुष्य को जो अनुभव अर्जित हुए, उसकी अभिव्यक्ति की सर्जना में समूहगत भाव से मनुष्य अपने समय को रचता चला गया जिसमें संस्कृति, कला, बोली, भाषा, साहित्य, समाज, धर्म-दर्शन, अध्यात्म आदि शामिल हैं। इसमें कहीं न कहीं जीवन को रचनात्मक ढंग से गढ़ने के सार-सूत्र भी सम्मिलित रहे हैं। ऐसा करते-करते लोक की संस्कृति का समस्त इतिहास वाचिक परंपरा अथवा लोकसाहित्य में स्वतः समाहित होता चला आया है। लोक वाचिक परंपरा में लोक मानस अपने गीत, कथा, गाथा आदि को ‘साहित्य’ की संज्ञा से अभिहित नहीं किया, यह ध्यान देने योग्य और रेखांकनीय है। चूंकि वह तो इन्हें अवसर और अनुष्ठान की व्यावहारिकी में उद्गाता की तरह उपयोग करता है, अतः इन लोकगीतों, कथाओं और गाथाओं में काव्य अथवा साहित्य अनुषंग के रूप में ही आता है।

खास बात यह भी है कि लोक की वाचिक परंपरा की प्रथम प्रतिज्ञा साहित्य सर्जना नहीं रही है, बल्कि मानव जीवन के उस उत्स की साक्षी देना है जिसमें कविता, कहानी, गाथा, नृत्य, नाट्य, शिल्प, चित्र, संगीत आदि सब कुछ संभव होता है। लोकसाहित्य में उसे अलग से रचने की आवश्यकता नहीं होती। लोक सृष्टा संपूर्ण लोक को देखता है और रचता है। और, इस प्रक्रिया में रचना करनी भी पड़ी तो उसमें नाम विशेष का महत्त्व नहीं रखा जाता, ‘नाम’ तो विगलित हो जाता है, क्योंकि ऐसी रचनाएं भी समूचे ‘लोक के नाम’ होती हैं। वे सब सामूहिक चेतना को समर्पित होती हैं। वैसे लोक की वाचिक परंपरा को साहित्य सिद्ध करने का प्रयास बहुत पुराना नहीं है। क्योंकि लोक को अपनी वाचिक परंपरा को कभी साहित्य कहने की जरूरत ही नहीं समझी गई। जीवन में उसकी जगह ‘शरीर में आत्मा’ की तरह सदैव रही है। लोक में साहित्य और साहित्य में लोक कुछ इस तरह से समाहित हैं जैसे कविता में जीवन, रूप में सौंदर्य और वाक् में अर्थ। लोक के साहित्य से जीवन को यदि निकाल दें तो वह निष्प्राण हो जाएगा। लेकिन आज जीवन से काटकर लोकसाहित्य को देखा जा रहा है, व्यवहृत किया जा रहा है। एक तरह से आज ‘लोक’ को ही नकारा जा रहा है, उस लोक को जिसमें संस्कृति, साहित्य और कला के समस्त बीज मौजूद हैं।

ऐसे में जहां तक हिमाचली लोकसाहित्य का संदर्भ एवं सवाल है तो यह निश्चय ही हिमाचली जनजीवन के आंतरिक एवं बाह्य, दोनों ही पक्षों का उद्घाटन करने के लिए सदैव एक उपयुक्त एवं सशक्त माध्यम रहा है। हिमाचली लोकसाहित्य यानी हिमाचली वाचिक परंपरा स्मृति और कंठ की हमेशा धरोहर रही है।

लोक कंठ में तैरती हिमाचली लोक की वाचिक परंपरा को कोई साहित्य का दर्जा दे या नहीं, इसकी उसे परवाह नहीं है और इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ता। और अंत में, यहां सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हिमाचली लोकसाहित्य की प्रक्रिया अपेक्षाकृत निरंतर जीवंत और मानवीय मूल्यों की रक्षा करने में समर्थ रही है जिसमें हिमाचली लोकसाहित्य के अनेक पुरोधाओं का प्रयास स्तुत्य एवं अनुकरणीय है।


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