महासुवी लोकसाहित्य में शोध की संभावनाएं

By: Jan 3rd, 2021 12:06 am

विमर्श के  बिंदु

अतिथि संपादक : डा. गौतम शर्मा व्यथित

हिमाचली लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक विवेचन -13

-लोक साहित्य की हिमाचली परंपरा

-साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक

-हिमाचली लोक साहित्य का स्वरूप

-हिमाचली बोलियों के बंद दरवाजे

-हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता

-हिमाचली बोलियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व

-सांस्कृतिक विरासत के लेखकीय सरोकार

-हिमाचली इतिहास से लोक परंपराओं का ताल्लुक

-लोक कलाओं का ऐतिहासिक परिदृश्य

-हिमाचल के जनपदीय साहित्य का अवलोकन

-लोक गायन में प्रतिबिंबित साहित्य

-हिमाचली लोक साहित्य का विधा होना

-लोक साहित्य में शोध व नए प्रयोग

-लोक परंपराओं के सेतु पर हिमाचली भाषा का आंदोलन

लोकसाहित्य की दृष्टि से हिमाचल कितना संपन्न है, यह हमारी इस नई शृंखला का विषय है। यह शृांखला हिमाचली लोकसाहित्य के विविध आयामों से परिचित करवाती है। प्रस्तुत है इसकी 13वीं किस्त…

उमा ठाकुर, मो.-9459483571

भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। इसकी एक विशेषता यह है कि हजारों वर्षों बाद भी यह संस्कृति अपने मूल स्वरूप में जीवित है। समाज और संस्कृति की बात की जाए तो समाज और संस्कृति में गहरा संबंध है। भारतीय संस्कृति की नींव परंपराओं पर टिकी है। इसकी एक विशेषता यह है कि हजारों वर्षों बाद भी यह संस्कृति अपने मूल रूप में जीवित है। गीता और उपनिषदों के संदेश हजारों साल से हमारी प्रेरणा रहे हैं। हमारे देश में वैदिक काल से ही संस्कृति की दो अलग-अलग धाराएं बहती आई हैं। ये हैं शिष्ट संस्कृति और लोक संस्कृति। शिष्ट संस्कृति उस अभिजात्य वर्ग की संस्कृति है जो बौद्धिक विकास के उच्चतम शिखर पर पहुंचा तथा जिसकी संस्कृति का स्रोत वेद तथा शास्त्र था। इसके साहित्य को शिष्ट साहित्य कहा गया। लोक संस्कृति वह है जो अपनी प्रेरणा लोक से प्राप्त करती थी, जिसका स्रोत जनता थी और बौद्धिक विकास के निम्नतम धरातल पर उपस्थित थी। लोक संस्कृति तो हमारी जीवन शक्ति होती है। लोकसाहित्य लोक संस्कृति का महत्त्वपूर्ण अंग है।

यदि लोक संस्कृति एक विशाल वट वृक्ष है तो लोकसाहित्य उसकी एक शाखा है। डा. हजारी प्रसाद द्विवेदी के मतानुसार ‘लोक’ शब्द का अर्थ ‘जनपद’ या ‘ग्राम्य’ नहीं है, बल्कि नगरों और गांवों में फैली हुई वह समस्त जनता है जिनके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियां नहीं हैं। देवभूमि हिमाचल की अगर बात की जाए तो लोकजीवन के विविध रंग, परंपराएं, देव परंपराएं यहां पर प्राचीन मान्यताओं को आज भी जीवित रखे हुए हैं। लोकसाहित्य में लोकजीवन से जुड़े पहलुओं को लोकगीतों के माध्यम से बखूबी उजागर किया जाता है। हिमाचल प्रदेश के प्रत्येक जिला में लोकसाहित्य का अथाह सागर है, जो मौखिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित होता रहा है, जिसकी वजह से अनेक संदर्भ उसमें जुड़ते गए। बात करें अगर महासुवी लोकसाहित्य की तो इसमें देव परंपरा, पौराणिक परंपराएं, धार्मिक एवं सामाजिक परंपराएं लोक सुभाषित और लोकगाथाओं का बहुमूल्य भंडार हैं। लोकसाहित्य के मुख्यतः पांच भाग माने जाते हैं ः 1. लोकगीत, 2. लोकगाथाएं, 3. लोककथाएं, 4. लोक नाटक व 5. लोक सुभाषित। महासुवी लोकसाहित्य की इन विधाओं में बहुत ज्यादा रचा नहीं गया है। कुछ पुस्तकें जो हिमाचल अकादमी की लाइब्रेरी में उपलब्ध हैं, उनके पठन से यह जरूर ज्ञात हो जाता है कि कुछ वरिष्ठ व युवा साहित्यकार महासुवी लोकसाहित्य को लिपिबद्ध करने का प्रयास जरूर कर रहे हैं और आगे भी यह प्रयास जारी रहेगा, ऐसी उम्मीद है। महासुवी लोकसाहित्य में संकलन व शोध की अपार संभावनाएं हैं।

महासुवी लोकसाहित्य और लोक संस्कृति के विविध पक्षों का वर्णन जिन पुस्तकों में मिलता है, उनमें से कुछेक इस प्रकार हैं ः शिमला जिला गजटियर (1935), हिमाचल प्रदेश के लोक नृत्य (डा. हरिराम जस्टा), महासुवी लोकगाथाएं (लछी राम गाजटा सलीम), हिमाचल प्रदेश में रामकथा के प्रसंग (हि. प्र. भाषा कला संस्कृति अकादमी), हिमाचल प्रदेश के मंदिर और श्रुतियां (एसआर हरनोट), हिमाचल के लोकगीत (हि. प्र. भाषा-संस्कृति अकादमी), हिमाचल के लोकगीत (डा. गौतम शर्मा व्यथित), महासुवी लोक संस्कृति (उमा ठाकुर) आदि। इसके अतिरिक्त प्रदेश की मासिक पत्रिका हिमप्रस्थ, सोमसी, विधानमाला में भी महासुवी लोकसाहित्य व संस्कृति संबंधी अनेक आलेख प्रकाशित हुए हैं। महासुवी लोकसाहित्य, संस्कृति एवं परंपरा के विविध पहलुओं के विस्तृत विवेचन के लिए और ज्यादा पुस्तकों के संकलन और शोध की आवश्यकता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में महासू जनपद की अगर हम बात करें तो विकास और पर्यटन की दृष्टि से यह बहुत विकसित हुआ है। युवा पीढ़ी हाइटेक हो चुकी है, गांव से शहरों की तरफ पलायन से कहीं न कहीं वह अपनी लोक संस्कृति और पहाड़ी बोली से विमुख होते जा रहे हैं।

समाज के बुद्धिजीवी व अभिभावकों की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वे अपनी बहुमूल्य लोक संस्कृति देव परंपरा, लोकसाहित्य व अन्य विधाओं से अपने बच्चों को अवगत करवाएं, साथ ही विश्वविद्यालय स्तर पर भाषाओं, लोकसाहित्य, लोकगाथाओं, लोक नृत्यों, लोक शैलियों और लोक व्यवहार पर शोध कार्य होने चाहिएं क्योंकि लोकसाहित्य की बहुत सी ऐसी विधाएं हैं जो लुप्तप्रायः हो रही हैं। मौखिक रूप से इन विधाओं के पीढ़ी दर पीढ़ी पहुंचते-पहुंचते मूल रूप खत्म होने की संभावना है। अतः सभी आमजन, बुद्धिजीवी व साहित्यकारों को अपने-अपने स्तर पर महासुवी लोक संस्कृति के संरक्षण के लिए आगे आना चाहिए, फिर वह चाहे डाक्यूमेंटरी के रूप में हो या फिर पुस्तक लेखन (कविता, कहानी, शोधपत्र या अन्य विधाएं)। लोकसाहित्य का सृजन बहुत जरूरी है ताकि भावी पीढ़ी तक लोक संस्कृति की महक शोधपूर्ण दस्तावेज के रूप में सदियों तक सुरक्षित रह सके।


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