सोलन जनपद की गीत एवं नाट्य परंपरा

By: Jan 10th, 2021 12:06 am

लोकसाहित्य की दृष्टि से हिमाचल कितना संपन्न है, यह हमारी इस नई शृंखला का विषय है। यह शृांखला हिमाचली लोकसाहित्य के विविध आयामों से परिचित करवाती है। प्रस्तुत है इसकी 14वीं किस्त…

डा. प्रेमलाल गौतम ‘शिक्षार्थी’

मो.-9418828207

मां शूलिनी का शहर सोलन जिला मुख्यालय है, अतः सोलन जिला के नाम से अभिहित है। इस जिला के चतुर्दिक पंजाब, हरियाणा, सिरमौर, शिमला, मंडी तथा बिलासपुर जिलों की सीमाएं मिलती हैं, अतः स्वाभाविक ही जन-जीवन में एक-दूसरे के सांस्कृतिक, भाषायी विचार-विनिमय पर प्रभाव पड़ता है और यही वैचारिक आदान-प्रदान मानव जीवन में समग्रता एवं भव्यता लाता है। विभिन्न देवी-देवताओं, पीरों – पैगंबरों, ऋषि-मुनियों, साधु-संतों, किन्नर-गंधर्व, यक्ष आदि देव योनि विशेष की इस पार्वत्य भूमि में जहां वेदों की ऋचाएं गूंजती थीं, वहीं ऋग्वेद के सम्वाद सूक्तों से नाटक और सामवेद के सामगान ‘गीतिषु सामाख्या’ जैमिनीय सूत्र के अनुसार गीति का प्रवाह निःसृत हो गया। रस संप्रदाय के प्रथम आचार्य भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में ‘जग्राहपाठ्यमृग्वेदात्सामभ्योगीतमेव च’ प्रतिपादित किया तथा साथ ही नाटक के प्रयोजन में ‘दुःखार्तानां श्रमार्तानां शोकार्तानाम्’ के द्वारा दुःख, श्रम, शोक से पीडि़त तथा तपस्वीजनों के लिए समयानुसार यह नाट्य विश्रामदायक होगा, यह कहा है। यह प्रयोजन देवभूमि हिमाचल के जनजीवन में अक्षरशः चरितार्थ होता है। विगत पांच-छह दशक पूर्व काल का अवलोकन करें तो रोशनी देवी के गायन एवं मंचन से प्रभावित होकर उनके कार्यक्रम देखने के लिए दूर-दूर से लोग जाया करते थे।

इसी दिशा में हेतराम तंवर, हेतराम कैंथा और कुठाड़ के लच्छीराम, कंडाघाट के काकू महाशय, भावा, शंकरलाल शर्मा, हिमाचल अकादमी शिमला से शिखर सम्मान प्राप्त शशि पंडित, शांति बिष्ट, जयदेव किरण, वी.डी. काले गायन के क्षेत्र में बहुचर्चित रहे। नाट्य परंपरा में देव विजेश्वर के निमित्त तथा सामाजिक विषमताओं को जगजाहिर करने वाला लोकनाट्य करयाला तथा सात बलियों से युक्त स्वांगों को प्रदर्शित करने वाला धाज्जा और उसमें आश्चर्यचकित कर देने वाला भैरव का स्वांग आज भी नाट्य परंपरा के जीवंत उदाहरण हैं। ज्येष्ठ मास में वर्षा की कामना हेतु संपूर्ण रात्रि साईटू अथवा गेस्टू नृत्य जिसे भूजड़ू की संज्ञा भी दी जाती है, यहां की समृद्ध नाट्य परंपरा का परिचायक है। शारदेय नवरात्र के समय स्थान-स्थान पर आयोजित रामलीला, रावण दहन आज भी सहृदय लोगों में धार्मिक भावना भर देते हैं। रक्षाबंधन बरसात के दिनों में गूगे की वीरगाथा गाने वाली मंडलियां तथा सायर के सुअवसर पर पूजा और धूप्पु गायन पारंपरिक आस्था को सुदृढ़ किए हैं।

मनोकामना पूर्ण होने पर देवी-देवता के प्रति स्वीकृत जागरण (रतजगे), यज्ञोपवीत तथा विवाह संस्कारों में यथा अवसर गाए जाने वाले गीत, बेटी के प्रथम संतान होने पर अपने ग्रामवासियों तथा रिश्तेदारों सहित गाजे-बाजे के साथ प्रसन्नता का समारोह आयोजित किया है जिसे ‘छाब्बी’ कहते हैं। उस समय गाए जाने वाले विविध गीत, यज्ञों-अनुष्ठानों, माल पूर्णिमा (गाय पूजन) पर गाए जाने वाले धार्मिक गीत, पुत्रजन्मोत्सव पर गाए जाने वाले गीत जिसे स्थानीय बोली में ‘प्याइया’ कहते हैं, विदाई-दुःखदायक गीत तथा शौर्यवीरता को प्रदर्शित करने वाले गीत इस जनपद में आज भी गाए जाते हैं। कृषि कार्य करते, धान रोपणी, घास-लकड़ी काटते, गोबर (मैल) ढोते, बरसात में झूला (पींग) झूलते, गंगी के बोल, झूरी आदि गायन प्रचलित हैं। वर्तमान में संगीत के क्षेत्र में राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित श्री शुकदेव मधुर कई वर्षों तक प्रदेश और देश में शास्त्रीय संगीत स्वरलहरियों से श्रोताओं को मुग्ध कर वर्तमान में न्यूज़ीलैंड में भारतीय संगीत का महाविद्यालय चलाकर संगीत सेवा कर रहे हैं। संगीत के गुरु परंपरा से अनेक प्रशिक्षण केंद्र सोलन जिला में उपलब्ध हैं। अनेक विश्वविद्यालयों से मान्यताप्राप्त तानसेन संगीत महाविद्यालय सोलन भारतीय एवं पाश्चात्य संगीत का प्रशिक्षण प्रदान कर रहा है। सरगम कला मंच, ब्रिजेश्वर सांस्कृतिक दल आदि कई मंच एवं संस्थाएं सोलन जनपद में हैं। नब्बे के दशक में पूर्व उपायुक्त डा. श्रीकांत बाल्दी के कार्यकाल में ‘हमारा सोलन ः मंदिर, मेले व इतिहास’ तथा ‘संस्कृति के आईने में सोलन’ दो महत्त्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित हुई थी, जिनसे सोलन जनपद की धार्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक एवं साहित्यिक गतिविधियां सुविदित होती हैं।

जिला भाषा विभाग सोलन समय-समय पर सांस्कृतिक, गीत एवं नाट्य की स्पर्धाएं आयोजित करता है। श्री सनातन धर्म सभा रबौण, सोलन ने भजन, संगीत प्रतियोगिताओं, रामलीला, श्रीकृष्णलीला आदि कार्यक्रमों के अतिरिक्त सोलन जिला के बहतर कवियों का कविता संग्रह ‘सोलन काव्य सरिता’ प्रकाशित किया है। सोलन जिला के कवि/लेखकों की प्रकाशित रचनाओं पर अनेक शोधार्थी एम.फिल, पीएचडी कर चुके हैं तथा कई कर रहे हैं। डा. ईश्वरीदत्त शर्मा ने ‘बघाटी बोली का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन’ विषय पर पीएचडी की तथा डा. उत्तम चौहान ने बघाटी बोली की स्वनिम प्रक्रिया पर एम.फिल और ‘क्वींठली बोली का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन’ विषय पर पीएचडी की है। स्वर्गीय पंडित संतराम शर्मा पत्रकार द्वारा लिखी ‘करेवड़ा कृष्ण पत्रकार’ नाटक पर डा. अशोक गौतम के निर्देशन पर एम.फिल की है। इस साहित्यिक अवदान के अतिरिक्त गीत एवं नाट्य परंपरा में नाटक एवं गीत लेखक स्व. प्रो. नरेंद्र अरुण द्वारा संचालित सृजनमंच की भी अहम् भूमिका रही है। श्री संजीव अरोड़ा प्रणव थियेटर बियोंड थियेटर नाट्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं।

श्री जियालाल ठाकुर, श्री सीताराम, श्री ज्ञान कश्यप, सुश्री सुमन सोनी, श्री गौरी शंकर, श्री सोहनलाल, नितिन तोमर, लता कश्यप, रीता ठाकुर, यशपाल, सुनील कुमार, सुनीता, सतीश आदि कलाकार वर्तमान में अपनी स्वरलहरियों से श्रोताओं को मुग्ध कर रहे हैं। इस प्रकार सोलन जनपद में गीत एवं नाट्य परंपरा का सुखद निर्वाह हो रहा है।

विमर्श के बिंदु

अतिथि संपादक : डा. गौतम शर्मा व्यथित

हिमाचली लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक विवेचन -14

-लोक साहित्य की हिमाचली परंपरा

-साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक

-हिमाचली लोक साहित्य का स्वरूप

-हिमाचली बोलियों के बंद दरवाजे

-हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता

-हिमाचली बोलियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व

-सांस्कृतिक विरासत के लेखकीय सरोकार

-हिमाचली इतिहास से लोक परंपराओं का ताल्लुक

-लोक कलाओं का ऐतिहासिक परिदृश्य

-हिमाचल के जनपदीय साहित्य का अवलोकन

-लोक गायन में प्रतिबिंबित साहित्य

-हिमाचली लोक साहित्य का विधा होना

-लोक साहित्य में शोध व नए प्रयोग

-लोक परंपराओं के सेतु पर हिमाचली भाषा का आंदोलन

हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता

रवि कुमार सांख्यान  

मो.-9817404571

भाषा संवेदनाओं व वैचारिक संप्रेषण का माध्यम है। भाषा के अटूट सेतु द्वारा संपूर्ण विश्व एक भावात्मक एकता, पारस्परिक अनुराग के बंधन में जुड़ा हुआ है। भाषा व मानवीय सभ्यता समकालीन प्रतीत होती हैं। भाषा सही मायनों में किसी भी राज्य, देश के विस्तृत स्वरूप, क्षेत्रीय व राष्ट्रीय अखंडता की परिचायक है। भाषा, उपभाषा, बोली का महत्त्व सभ्यता के किसी भी कालखंड के सांस्कृतिक-सामाजिक परिवेश में कम नहीं आंका जा सकता है। भाषा का निर्माण भी एक सतत समग्र प्रक्रिया के अंतर्गत स्वतः ही होता चला जाता है। जीव-जंतुओं की भी विभिन्न समुचित ध्वनियां भाषा के ही संप्रेषण का आधार हैं।

हिमाचल प्रदेश में बोलचाल में पहाड़ी भाषा का प्रयोग किया जाता है। इसे हिमाचली भाषा भी कहा जाने लगा है। डा. ग्रियर्सन ने भारत की भाषाओं का सर्वेक्षण-वर्गीकरण करते समय पहाड़ी शब्द को पर्वतों से संबंधित माना है। इन पर्वतमालाओं को नेपाल से भद्रवाह तक माना है। पहाड़ी उपभाषा की पश्चिमी पहाड़ी शाखा के अंतर्गत हिमाचल की अधिकतर बोलियों को माना है। इनमें विविधता होते हुए भी स्वर एक-सा प्रतीत होता है। लोकसाहित्य के मूल में सामाजिक संवेदनाएं, मर्म, पीड़ाएं, दिनचर्या के आचार-विचार का लेखा-जोखा है। हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता की भरमार है। लोकसाहित्य नाम से ही विदित है कि यह लोकों द्वारा रचित साहित्य है। प्रारंभिक काल से ही मनुष्य संकेतों, इशारों, आवाजों द्वारा अपने विचारों का आदान-प्रदान करता रहा है। अपने सुख-दुख, खरे-खोटे, आचार-विचार, धर्म-संस्कृति, सामाजिक मान्यताओं आदि को संरक्षित करने के दुर्लभ कार्य को भी लोकसाहित्य द्वारा जाना जा सकता है। आजीविका कमाने हेतु सात समंदर दूर विदेश में बस गया व्यक्ति भी जब लोकसाहित्य या अपनी मातृभाषा या बोली में कुछ पढ़ता-लिखता है तो उसे परमानंद की चरम अनुभूति मिलती है। हिमाचल प्रदेश में भाषा का विकास अभिलेखों, पुरातन सिक्कों में भी ढूंढा जा सकता है। हिमाचल प्रदेश में पांडुलिपियों के खोज अभियान के दौरान नाहन में मिली तीन सौ वर्ष पुरानी भृगु संहिता, करसोग में मिला पांच मीटर हस्तलिखित पन्ना तथा अनेक पुरातन वस्तुएं हिमाचली लोकसाहित्य  व बोलियों की उर्वरता के प्रमाण हैं। हिमाचल में पांच सौ वर्ष पूर्व भी पहाड़ी भाषा लिखी, पढ़ी और बोली जाती थी। कांगड़ा गजेटियर के अनुसार सन् 1881 की जनगणना के अनुसार कांगड़ा जनपद के 619468 लोगों ने अपनी मातृभाषा पहाड़ी बताई थी। अनेक साहित्यकारों व शोधकर्ताओं ने पहाड़ी भाषा के प्रचार-प्रसार में अमूल्य योगदान दिया।

हिमाचल प्रदेश के सभी जनपदों के रचनाकारों ने पहाड़ी बोलियों के उत्थान में योगदान दिया है और वर्तमान में भी इस दिशा में तल्लीन हैं। साहित्य अकादमी द्वारा डा. प्रत्यूष गुलेरी के संपादन में हिमाचली कहानी संचयन में 44 कहानियों का संग्रह तथा राष्ट्रीय पुस्तक न्यास द्वारा डा. गौतम शर्मा व्यथित के संपादन में 22 हिमाचली एकांकी लेखकों का संग्रह ‘घ्याणा’, डा. प्रेम भारद्वाज के संपादन में हिमाचली कवियों का काव्य संकलन ‘सीरां’  आदि हिमाचली बोलियों की उर्वरता का उदाहरण कहे जा सकते हैं। हिमाचल प्रदेश भाषा एवं संस्कृति विभाग, हिमाचल भाषा, कला, संस्कृति अकादमी, विभिन्न साहित्य कला प्रेमी संस्थाएं, विभिन्न समाचार पत्र-पत्रिकाएं, हिम भारती, हिमाचल मित्र, बागर, गिरिराज, विपाशा, सोमसी, आकाशवाणी केंद्र शिमला, हमीरपुर व धर्मशाला तथा दूरदर्शन केंद्र शिमला भी इस दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।

‘दिव्य हिमाचल’ के लोकमंच और प्रतिबिंब परिशिष्ट भी सराहनीय हैं। हिमाचल भाषा, कला, संस्कृति अकादमी द्वारा क्षेत्रीय पहाड़ी बोलियों के हजारों महत्त्वपूर्ण वाक्यों का अनुवाद करवाया जा रहा है। एनआईटी हमीरपुर के सहयोग से हिंदी-पहाड़ी डिजिटल अनुवाद सॉफ्टवेयर तैयार करने का भी प्रयास जारी है। हिंदी-पहाड़ी शब्दावली, पहाड़ी भाषा व्याकरण, विभिन्न कृतियों के पहाड़ी अनुवाद भी किए जाते रहे हैं। विभिन्न प्राचीन लिपियों, बोलियों के प्रशिक्षण कार्यक्रम, फोन पर ऑनलाइन साहित्य संवाद कार्यक्रम भी जारी हैं। हिमाचली बोलियों, समृद्ध लोकसाहित्य, प्राकृतिक सौंदर्य से वशीभूत होकर ही पुरोधा सृजन कर्मी राहुल सांकृत्यायन, शोभा सिंह, यशपाल शर्मा, चंद्रधर शर्मा गुलेरी व विजय शर्मा जैसे अनेक विश्व प्रसिद्ध  रचनाकारों की सृजनशीलता की यह धरा साक्षात् गवाह रही है। आज नई शिक्षा नीति में भी अबोध बालमन के भाषा शिक्षण में मातृभाषा को महत्त्व दिया जाना लोकसाहित्य व बोलियों के प्रचार-प्रसार के उज्ज्वल भविष्य की ओर संकेत करता है। विभिन्न जनपदों में लोकसाहित्य के प्रचार-प्रसार में तल्लीन रचनाकारों का यदि नाम सहित उल्लेख करने का प्रयास किया जाए तो मात्र एक लेख में यह संभव नहीं है। यह भी सत्य है कि आज हिमाचल प्रदेश के बारह जनपदों में अनेक बोलियां प्रचलन में हैं जो हमारे समृद्ध लोकसाहित्य  व संस्कृति की परिचायक हैं। भले ही इन बोलियों में एकरूपता का अभाव दिखता है, लेकिन समझने व बोलने में कुछ अपवादों को छोड़कर ज्यादा कठिनाई नहीं होती है।

हिमाचली बोलियों की उर्वरता के लिए समय-समय पर अधिकाधिक साहित्य सृजन, वैचारिक आदान-प्रदान, शोधपत्र वाचन, विभिन्न बोलियों पर चर्चा-परिचर्चा की दिशा में पुरजोर प्रयास किए जाएं तो हिमाचली भाषा बनाने का मार्ग स्वतः ही प्रशस्त होगा। यह सही है कि भाषाओं का निर्माण एक सतत समग्र प्रक्रिया है। यदि दृढ़ इच्छाशक्ति व कार्यशैली हो तो शब्दों के मनकों का भाषा रूपी माला में मानकीकरण हो सकता है। लोकसाहित्य में निरंतर सृजनशीलता व लेखकीय समर्पण किसी भी भाषा की उन्नति का प्रतीक है। यदि डीटीएच पर डीडी हिमाचली चैनल पर चौबीस घंटे का प्रसारण शुरू हो जाए तथा विभिन्न समाचारपत्रों में हिमाचली भाषा का दैनिक, साप्ताहिक संपूर्ण हिमाचल परिशिष्ट का कॉलम प्रकाशित किया जाए तो इससे न केवल हिमाचली बोलियों की उर्वरता में वृद्धि होगी, अपितु आठवीं अनुसूची में स्थान पाने का हिमाचली भाषा का सपना भी पूरा हो सकेगा।

जीवन के प्रसंग लिखतीं प्रत्यूष गुलेरी की कहानियां

ये कहानियां प्रत्यूष गुलेरी के अपने अक्स में सामाजिक द्वंद्व सरीखी हैं तथा लेखन से उनके अंतरंग संवाद की विरासत को एकत्रित करते जीवन के सोलह पन्ने। प्रत्यूष अपने ताजा संग्रह को ‘मेरी प्रिय कहानियां’ अंकित करते हैं, तो सहज ही वह इनके भीतर खड़े हो जाते हैं। संग्रह का स्वरूप व कहानियों का मंचन, जीवन के प्रसंग सरीखा है और लेखन यात्रा के बीच झूलती स्मृतियों को आकार देतीं कहानियां कब छूकर निकल जाती हैं, पता नहीं चलता। कहानियों के भीतर पात्रों का ‘गऊ होना’ समझा जा सकता है या यह अस्तित्व खोजने की महीन रेखा पर खड़ा ऐसा सवाल रहा, जो कमोबेश हर कहानी के केंद्र में रेखांकित है। उम्र की कैद में प्रेम की आहट लिए ‘अकथ कहानी प्रेम की’ को कहने का लेखकीय अंदाज इसे मनोवैज्ञानिक आधार पर खड़ा कर देता है। जिंदगी के छींटों से भीगी यादों की चादर में लिपटी कहानी प्रेम की तरह अनछुई और छुईमुई सरीखी बनकर अतीत को बटोरती है।

 विषय की सरलता के बावजूद मानवीय उमंगों से लिखी गई यह कहानी, पाठकीय कक्ष में झांकती है। अतीत में निगाहें डालती ‘हम भी छड़े ही हैं’ कमोबेश ऐसे ही कैनवास पर अंकित है, लेकिन प्रेम भाव के अक्स में संवेदना का वजूद सारे जीवन-चक्र की उपलब्धियों पर भारी पड़ता है। जख्म भरी यादों के गुनाह किस तरह कुरेद सकते हैं और इस एहसास को जीना भी किस तरह ‘सहचरी’ बन सकता है, इन तमाम लम्हों को बांध कर लेखक अविवाहित रह गए लोगों के भीतरी संवाद को छानकर एक कहानी बना देने की कला का विस्तार कर लेते हैं। कुछ इसी सामीप्य में ‘उसके लिए’ भी दर्ज हो जाती है। ‘भेड़’ और ‘उगे हुए पंख’ दोनों कहानियों के भीतर औरत के वजूद की सांकलें खोलते हुए लेखक, विवशताओं में फंसे समाज-परिवार की मर्यादित रेखाओं का भ्रम तोड़ने का साहस दिखाते हैं, लेकिन अंत में पिंजरे ही पिंजरे उभर आते हैं। हर नारी अपने वजूद पर पंख महसूस करके भी उड़ न पाए या किसी भेड़ की तरह भेडि़ए की नजर में आ जाए, तो टूटते आकाश के नीचे समाज का चेहरा विद्रूप हो जाता है। कहानियां अपने आकार में लघु जीवन के किस्से की तरह कभी ‘दहलीज’ मापते हुए स्त्री का वृत्तांत बन जाती हैं, तो कभी ‘पसंद के कागज’ पर आंतरिक जद्दोजहद को उकेर देती हैं। बेटी को पालतू समझने की कोशिश में सामाजिक खूंटों की जमीन का नारी शक्ति से मुकाबला और एक साथ कई भूकंप। एक रुकी हुई आंधी की तरह प्रेम में सुरक्षा का एहसास बुनते सपने और इन्हीं बांधों को तोड़ने की पराकाष्ठा में नारी साहस। ‘चौकीदार’ दरअसल हर पहर की आहट सरीखी कहानी है, जो घुटन के तहखाने में बंद है। अपाहिज फर्ज को रौंदती व्यवस्था से परत हटाने की कोशिश में चौकीदार के भीतर का परिंदा ईमानदारी दिखाता है।

 सरकारी कार्य-संस्कृति में कोई न कोई चौकीदार पैदा हो जाए, तो व्यवस्था में देश कुछ इसी कहानी जैसा दिखेगा। ‘तीसरा रास्ता’ में फिर चौकीदार लौटता है, लेकिन यहां वह अपने अनचिन्हित पद के लट्टू पर घूम रहा है। दफ्तरी जी हुजूरी में लिपटी उम्मीदों के सहारे आगे बढ़ने की अनिवार्यता में, पक्की नौकरी के दायरों में फंसा शोषण महसूस किया जा सकता है। ‘एक से अनेक होता चेहरा’, ‘बाबू का दर्द’ तथा ‘दफ्तर जंगिया गया है’, सिर्फ कहानियां नहीं, ‘चेहरे’ हैं। धूर्त-मक्कार, ओच्छेपन में डूबे लोग इन कहानियों में किस्सा, खबर या कानाफूसी कर जाते हैं। ‘लौट आओ पापा’ केवल एक शीर्षक में बंधी कहानी नहीं, बल्कि ऐसी अनेक कहानियों की आंखों में बहते समुद्र को फिर से बांधने की प्रस्तुति बन जाती है। चीखों के बीच अंततः शब्द गूंगे हो जाते हैं और तब विषय का मर्म पिघल कर गूंजता है। न हारने की जिरह, जज्बात, जिजीविषा या जुस्तजू में हर व्यक्ति के करीब कहानी का सृजन अनौपचारिक है, इसलिए ‘मैं हारा नहीं हूं’ सिर्फ एक दलील तथा विमर्श बन जाती है। लेखक प्रत्यूष गुलेरी अपनी तमाम कहानियों में तर्क के अभिप्राय में स्वयं मौजूद हैं और इनके इर्द-गिर्द हैं पाठकों के अनेक सवाल। इन्हीं के बीच ‘यह महाकुंभ है’ में पापों को धो रही गंगा भी चादर के मानिंद नजर आती है और जिसे हम मन की खिड़कियों से पढ़ सकते हैं। ‘अपनी-अपनी अनकही’ में इनसानी जिम्मेदारियों और जरूरतों के बीच ऐसा संघर्ष देखने को मिलता है, जो स्वार्थ पर टिका है। रिश्तों की खाल उतारती एक मजबूत कहानी।

-निर्मल असो

पुस्तक समीक्षा: माटी की महक संग जागरूक करती कविताएं

12 साल पहले अपने पहले काव्य संग्रह ‘गूलर का फूल’ के साथ राजीव कुमार ‘त्रिगर्ती’ ने सरल शब्दों में पहाड़ की पीड़ा, संघर्ष और जिजीविषा व्यक्त करने के लिए जिस तरह खुद को प्रतिष्ठित किया था, उनका नया काव्य संग्रह ‘‘जमीन पर होने की खुशी’’ उस प्रतिष्ठा को और पुख्ता करता है। ठेठ पहाड़ी शब्दों के साथ जिस तरह कल्पनाओं के उन्मुक्त आकाश में विचरण करते हुए भी वह देश की मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों के बारे में तंज कसते हुए लोगों को जागरूक करते हैं, वैसी कला हिमाचल के समकालीन कवियों में कम ही देखने को मिलती है। उनकी कविताओं में तारकोल, चश्पां, ढोर-डंगर, मोमजामा, दराटू और नाड़ा जैसे ठेठ पहाड़ी शब्द अनायास ही आ जाते हैं, तो ‘कविता का आना’, ‘एक इच्छा’, ‘उम्मीद’, ‘मेरे विचार’ और ‘उड़ना है’ के साथ कल्पनाओं का तिलिस्म रचते भी देश की चिंता उनकी लेखनी में अनायास ही आ जाती है। ‘छाती पर पत्थर’ कविता में वह आम किसान, ‘उसकी जरूरत’ में किसान की बेटी, ‘श्रद्धांजलि’ में कलुआ और ‘खूंटा’ में बैल को नायक बनाकर किसानों की दुर्दशा, कठिन परिश्रम के बाद भी आर्थिक मुसीबतों से जूझते रहने और पूंजीपतियों द्वारा दिखाए जाने वाले सब्जबागों के जाल में फंसकर ‘बली के बकरे का संघर्ष’ करते रहने और इसी को अपना भाग्य मान लेने वाले आम आदमी को जागरूक करते हैं।

 त्रिगर्ती जी बड़ी सादगी से किसानों का लहू चूसने वालों पर गहरी चोट  करते हुए कहते हैं- शिक्षा-बेरोजगारी-भूख-गरीबी पर बहस/ यूं ही चलती रहेगी अकारण/ अनुभव की श्रेष्ठता का हक/ नकारा जाता रहेगा हमेशा (दुर्दिनों के बारे में)। ‘कविता में आशा है जीवन की’ (कविता का आना) कहने वाले त्रिगर्ती जी यह बताने से भी नहीं चूकते कि ‘बीज-बीज शब्दों से दाना-दाना अर्थ उगता है’। तभी तो सत्ता के विरोध में उठने वाली आवाजों को देशद्रोही करार दिए जाने के इस दौर में वह भी विद्रोही हो जाते हुए कहते हैं कि ‘मैं अराजक हूं’। 49 कविताओं के इस संग्रह की जान है ‘बच्चे बड़े हो रहे हैं’। इस कविता में मासूमों के सवालों के द्वारा टीवी पर दिखाई जाती अश्लीलता, मूक-बधिर संसद, परिवारवाद, देशी-विदेशी कंपनियों की गुलामी की ओर बढ़ते देश और राजनीतिक फायदे के लिए जनता को भिड़ाते नेताओं की पोल खोलती सोच पाठक को सोचने पर मजबूर कर देती है। हालांकि अपने में गहरा अर्थ छिपाए ‘वे’, ‘उसकी जरूरत’ और ‘फैल गई हैं उनकी कविताएं’ जैसी उम्दा रचनाओं के कमजोर शीर्षक अखरते हैं, लेकिन 130 रुपए में यह संग्रह फिर भी संग्रहणीय है।

 -वीरेंद्र डढवाल

सूचना

विद्वान लेखकों से हमारा आग्रह है कि वे ‘प्रतिबिंब’ के लिए अगर कोई सामग्री भेजना चाहें तो प्रकाशन तिथि से कम से कम दो हफ्ते पहले भेजें। हम आपकी सामग्री को प्रकाशन प्रस्ताव की तरह देखते व इसका सम्मान करते हैं, इसलिए आपके सहयोग के हमेशा अभिलाषी रहेंगे।

-प्रभारी, फीचर डेस्क


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App