आंदोलन के नाम पर हिंसा

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ये षड्यंत्रकारी इन्हीं लाशों का इंतज़ार कर रहे थे ताकि उन लाशों को लेकर पूरे पंजाब में आग लगा सकते। राहुल गांधी और उनकी बहन प्रियंका वाड्रा पीछे हटने के लिए तैयार नहीं हैं। उनको पंजाब के लोगों की लाशें तो नहीं मिलीं लेकिन वे उसके लिए लंबा इंतज़ार करने के लिए भी तैयार हैं। वे परोक्ष रूप से अलगाववादियों को उत्साह दे रहे हैं कि आप डटे रहो, हम आपके साथ हैं। किनके साथ हैं? इसके लिए वैसे वे किसान आंदोलन का ही नाम लेते हैं, लेकिन वे स्वयं जानते हैं कि किसान आंदोलन के नाम पर दिल्ली में जो खेल खेला गया, असली एजेंडा वही था। क्या यह संयोग ही है कि इस आंदोलन के विदेशी नियंत्रणों ने सबसे पहले इटली में भारतीय दूतावास में तोड़फोड़ की। राहुल गांधी इटली के बारे में तो अच्छी तरह जानते हैं। अलगाववादी भारत को तोड़ने के लिए लाशों का इंतज़ार करें, यह तो समझ में आता है, लेकिन जनता द्वारा नकारे गए राजनीतिक दल लोकतांत्रिक रास्ता न चुन कर लाशों की सीढि़यों का इंतज़ाम करें, यह निश्चय ही चिंताजनक है…

किसान आंदोलन के नाम पर गणतंत्र दिवस को दिल्ली में जो हुआ, वह निश्चय ही निंदनीय है। पिछले दो महीनों से किसान सिंघू बार्डर पर बैठे थे। इसी प्रकार हरियाणा के टिकरी बार्डर और उत्तर प्रदेश के गाजीपुर बार्डर पर किसानों का जमावड़ा था। गाजीपुर बार्डर पर ज़्यादातर किसान उत्तराखंड के पीलीभीत और ऊधमसिंह नगर के ही थे। भारतीय किसान यूनियन के अलग-अलग हिस्सों के नेता इस सारे आंदोलन को चला रहे थे, लेकिन स्वयं ये सारे नेता अलग-अलग राजनीतिक दलों से किसी न किसी रूप में जुड़े हुए थे। अनेक अपनी-अपनी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ कर हार भी चुके थे। तीस-चालीस ग्रुपों में बंटे इन समूहों में कुछ समूह नक्सलवादी आंदोलन से भी जुड़े हुए थे। इसी प्रकार कुछ के संबंध उत्तरी अमरीका में चलाए जा रहे खालिस्तान आंदोलन से भी जुड़े हुए थे। आंदोलन के नाम पर सबका अपना अलग एजेंडा था। लेकिन सबसे बड़ा एजेंडा अपना जनाधार खो चुकी कांग्रेस का था। उसे पैर टिकाने के लिए न कोई आधार मिल रहा था न ठिकाना। लेकिन इतनी सावधानी सभी समूह रख रहे थे कि आंदोलन चला रहे समूह ग़ैर राजनीतिक दिखाई देते रहें और राजनीतिक दल सैद्धांतिक समर्थन देते हुए दिखाई दें। दोनों पक्ष यह भी जानते थे कि इस आंदोलन की आड़ में विदेशों की रणनीति पर काम कर रहे अलगाववादी भी अपना एजेंडा चला रहे थे। बार्डरों पर बैठी भीड़ में उनकी संख्या ही नहीं बढ़ रही थी, उनकी भाषा भी उग्र होती जा रही थी। यह कुछ-कुछ उसी प्रकार का माजरा था जैसा पिछली शताब्दी में अकाली दल के साथ शुरू हुआ था।

अकाली दल ने जब अपना धर्मयुद्ध मोर्चा शुरू किया था तो उसमें प्रदर्शनों के नाम पर भीड़ तो जुटा ली थी, लेकिन वह यह नहीं देख पाया या देखने से बचता रहा कि भीड़ में धीरे-धीरे ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही थी जिनका नियंत्रण किन्हीं और लोगों के पास है। इतिहास गवाह है कि उसके बाद अकाली दल असहाय हो गया और पंजाब त्रासदी का शिकार। लेकिन इस त्रासदी कि शुरुआत स्वयं कांग्रेस ने की थी, मक़सद केवल भीड़तंत्र के सहारे अकाली दल को सत्ता से हटाना था। लगता है अब कांग्रेस फिर उसी रास्ते पर चल पड़ी है। बार्डरों पर बैठे जो नेता आंदोलन को चलाने का दावा कर रहे हैं, उनके नियंत्रण से आंदोलन खिसक गया है। जिन अलगाववादियों के हाथ में आंदोलन चला गया है, विदेशों में बैठे उनके नियंत्रकों ने स्क्रिप्ट बड़ी सावधानी से लिखी थी। यह स्क्रिप्ट कुछ दशक पहले भी लिखी गई थी। तब कांग्रेस ने अपने हिस्से का काम भी कर दिया था। पंजाब में पुलिस बल का प्रयोग हुआ और बाद में दिल्ली में कांग्रेस ने नरसंहार किया। उसके कारण खालिस्तानियों को अपना काम करने में सुविधा हुई। अब उनको लगता था कि वर्तमान सरकार भी इनकी चाल में फंस जाएगी और दिल्ली में उपद्रवियों को रोकने के लिए बल प्रयोग करते  हुए गोली चला देगी। षड्यंत्रकारियों और उनके हिमायतियों को इसी का इंतज़ार था। जैसे ही गोली चलती उसके बाद के प्रचार के लिए सोशल मीडिया में प्रचार सामग्री तैयार थी। राजदीप सरदेसाई और कांग्रेस के शशि थरूर ने तो तुरंत हल्ला मचाना भी शुरू कर दिया कि पुलिस ने गोली चला कर नवनीत को मार दिया है। राजदीप सरदेसाई की ख़ुशी का तो ठिकाना नहीं रहा। उसने चिल्लाना शुरू कर दिया कि इसका बलिदान ख़ाली नहीं जाएगा। किसान इसका बदला लेंगे। नरेंद्र मोदी और अमित शाह जनरल डायर घोषित कर दिए जाते। लेकिन अलगाववादियों और उनके नियंत्रकों के दुर्भाग्य से पुलिस स्वयं पिटती रही, लेकिन उसने गोली नहीं चलाई। हैरानी की बात है कि अब आंदोलन को चलाने वाले तथाकथित नेता ही चिल्ला-चिल्ला कर पूछ रहे हैं कि पुलिस ने गोली क्यों नहीं चलाई।

लाल कि़ले पर चढ़ रहे और झंडा चढ़ा रहे अलगाववादियों को नीचे से गोली मार कर क्यों नहीं मारा गया? ये षड्यंत्रकारी इन्हीं लाशों का इंतज़ार कर रहे थे ताकि उन लाशों को लेकर पूरे पंजाब में आग लगा सकते। राहुल गांधी और उनकी बहन प्रियंका वाड्रा पीछे हटने के लिए तैयार नहीं हैं। उनको पंजाब के लोगों की लाशें तो नहीं मिलीं लेकिन वे उसके लिए लंबा इंतज़ार करने के लिए भी तैयार हैं। वे परोक्ष रूप से अलगाववादियों को उत्साह दे रहे हैं कि आप डटे रहो, हम आपके साथ हैं। किनके साथ हैं? इसके लिए वैसे वे किसान आंदोलन का ही नाम लेते हैं, लेकिन वे स्वयं जानते हैं कि किसान आंदोलन के नाम पर दिल्ली में जो खेल खेला गया, असली एजेंडा वही था। क्या यह संयोग ही है कि इस आंदोलन के विदेशी नियंत्रणों ने सबसे पहले इटली में भारतीय दूतावास में तोड़फोड़ की। राहुल गांधी इटली के बारे में तो अच्छी तरह जानते हैं। अलगाववादी और उनके विदेशी आका भारत को तोड़ने के लिए लाशों का इंतज़ार करें, यह तो समझ में आता है, लेकिन जनता द्वारा नकारे गए राजनीतिक दल पुनः सत्ता प्राप्ति के लिए लोकतांत्रिक रास्ता न चुन कर लाशों की सीढि़यों का इंतज़ाम करें, यह निश्चय ही चिंताजनक है।

किसान आंदोलन के नाम पर हिंसा का ऐसा तांडव, वह भी गणतंत्र दिवस पर, इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। इस तरह की हिंसा को रोकने के लिए कारगर कदम उठाए जाने चाहिएं। पुलिस आंदोलनकारियों से पिटती रही, पर अब उसने कड़े कदम उठाने का फैसला कर लिया लगता है। लाल किले के आसपास बड़ी संख्या में अर्द्ध सैन्य बलों के जवानों को तैनात कर दिया गया है। अब कोशिश यही है कि इस तरह की हिंसा दोबारा न हो। जरूरत इस बात की भी है कि पुलिस बलों का मनोबल ऊंचा बनाए रखा जाए, अन्यथा हिंसा को रोकना मुश्किल होगा।

ईमेलः kuldeepagnihotri@gmail.com


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App