कृषि कानून की प्रतियां देश में बांटी जाएं

By: Feb 17th, 2021 12:06 am

गणतंत्र दिवस की बेला पर उपद्रवी किसानों ने जो किया, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता है। किसानों ने सिर्फ  राष्ट्रीय ध्वज का अपमान नहीं किया, बल्कि निशान साहब चढ़ाने की दशकों पुरानी परंपरा बदलकर भी आपसी भाईचारे में दरार डाली है। उधर देश भर में किसानों की ओर से किए गए चक्का जाम में जिस तरह पचास हजार सुरक्षा कर्मियों ने अपनी सेवाएं दी, वह काबिलेतारीफ है। सुरक्षा कर्मी सतर्कता से अपनी सेवाएं दे रहे हैं…

कृषि बिलों की समझ जब किसानों को ग्यारह बैठकों में नहीं आई तो दो अक्तूबर को क्या कोई दैवीय चमत्कार होने वाला है? मीडिया कर्मी जब भी किसानों को कृषि बिलों के बारे में सवाल पूछते हैं तो वे कोई भी सही जवाब दिए जाने में सफल नहीं होते हैं। तीन कृषि कानून कितने पृष्ठों पर अंकित हैं, शायद ही किसानों को इसकी भी जानकारी हो। यही वजह है कि किसानों को लगता है कि मीडिया कर्मी भी उनसे कठिन सवाल पूछते हैं जिन्हें वे काला कानून मान चुके हैं। क्या यह संभव हो सकता है कि देश का तमाम मीडिया सिर्फ केंद्र सरकार के पक्ष में ही सवाल पूछे? देश की एकता, भाईचारे के बारे में अगर कोई बात करे तो उसका विरोध किया जाना नकारात्मक सोच की उपज ही कहा जा सकता है। क्रिकेट सम्राट सचिन तेंदुलकर ने ऐसा क्या कह दिया कि उसका विरोध किया गया।

किसान देश की रीढ़ की हड्डी हैं, उनकी समस्याएं देश की जनता की सांझी हैं। अगर कोई विदेशी इस समस्या के बहाने हमारी एकता को भंग करने की कोशिश करे तो उसे माकूल जवाब दिया ही जाना चाहिए। फिल्म अभिनेत्री कंगना रणौत ने भी अब सिख किसानों को हिंदू धर्म का योद्धा कहा है। फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार, अजय देवगण आदि ने भी किसान आंदोलन को देश की एकता के लिए खतरा बताकर इस समस्या का जल्द समाधान किए जाने की अपील की है। किसान आंदोलन की वजह से देश की अर्थव्यवस्था पर विपरीत असर पड़ रहा है जिसका खामियाजा आम जनता को भुगतना पड़ रहा है। कोरोना वायरस की वजह से विश्व के देश पुनः सतर्कता बरतते हुए अंतरराष्ट्रीय हवाई उड़ानें तक रद्द कर चुके हैं और हमारे देश के किसान हठधर्मी बनकर सड़कों पर ही डेरा जमाए रखने की रणनीति बनाए हुए हैं। सनातन धर्म के खिलाफ  भड़ास निकाले जाने को लेकर शुरू हुआ किसान आंदोलन अब अपनी साख खो रहा है, इसमें कोई दो राय नहीं है।

 किसान नेता आए दिन अपने बयान बदलकर आंदोलन लंबा चलने का दावा कर रहे हैं, उससे लगता है कि उनकी मंशा सिर्फ राजनीति में अपनी दस्तक देना है। यही नहीं, वे ऐसा भी दावा कर चुके हैं कि न तो वे केंद्र सरकार को झुकने देंगे और न ही देश की बदनामी चाहते हैं। ऐसे में कृषि आंदोलन को क्या समझा जाए, देश की जनता को आकलन करना है। किसान नेताओं में आपसी फूट पड़ चुकी है, यह बात भी मीडिया में जगजाहिर हो चुकी है। किसानों में सबसे ज्यादा असमंजस कांट्रैक्ट फार्मिंग बिल को लेकर बना है। गरीब किसानों के दिलों में इस कदर डर भर दिया गया कि वे कांट्रैक्ट फार्मिंग की बजाय उसे कांट्रैक्ट लैंडिंग बिल ही मानकर चल रहे हैं। किसानों का मानना है कि अब उनकी जमीनें पूंजीपति हड़प लेंगे और उनकी आगामी पीढि़यों को भूखा रहना पड़ सकता है। यही वजह है कि बुजुर्ग किसान अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित बनाने की सोचकर दिल्ली की सीमाओं पर पिछले दो  महीनों से डेरा जमाए हुए हैं।

अनुबंध की शर्तें क्या होती हैं और आम जनता को इसका क्या लाभ मिल सकता है। अधिकांश जनता इस प्रक्रिया से खुश नहीं होती है। कांट्रैक्ट फार्मिंग बिल के अनुसार अब किसानों की फसलों का सौदा पैदा होते ही प्राइवेट मंडी वाले किया करेंगे। इस बिल की वजह से प्राइवेट आढ़तियों में कम्पीटिशन बढ़ने से किसानों को फसलों के अच्छे दाम मिलेंगे। कहने का मतलब साफ  है कि किसान अपनी मनमर्जी का मालिक स्वयं होगा। किसान की इच्छा पर निर्भर रहेगा कि उसे अपनी फसलों का सौदा प्राइवेट मंडी आढ़ती से खेत में ही करना है या फिर पकने पर उसे अनाज मंडी तक ले जाना है। यही नहीं , प्राकृतिक आपदा की घड़ी में भी किसान को सभी सुविधाएं मिलना तय है। किसान की अपनी स्वतंत्रता है कि वह जब चाहे अपनी फसल का कांट्रैक्ट आढ़ती से खत्म कर सकता है। आश्चर्य की बात है कि किसान कांट्रैक्ट फार्मिंग का मतलब उल्टा ही समझकर इसे साइमन कमीशन की तरह काला कानून कहे जा रहे हैं। ढाई महीने से किसान लगातार आंदोलन कर रहे हैं और केंद्र सरकार प्रत्येक बैठक में यही कह रही है कि यह बिल किसानों के पक्ष में बनाए गए हैं।

 किसानों को इन बिलों में काला क्या नजर आ रहा है, किसान नेता तक भी इसकी खासियतें और खामियां बताने में नाकाम हैं। कृषि कानून अगर सच में काले होते तो केंद्र सरकार किसानों का आंदोलन कब का खत्म करवा चुकी होती। लोकतंत्र की विशेषता कहें या फिर केंद्र सरकार का किसानों के प्रति अपनापन, जो असमंजस दूर किए जाने का विकल्प सिर्फ  संवाद किया जाना ही बता रहे हैं। गणतंत्र दिवस की बेला पर उपद्रवी किसानों ने जो किया, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता है। किसानों ने सिर्फ  राष्ट्रीय ध्वज का अपमान नहीं किया, बल्कि निशान साहब चढ़ाने की दशकों पुरानी परंपरा बदलकर भी आपसी भाईचारे में दरार डाली है। उधर देश भर में किसानों की ओर से किए गए चक्का जाम में जिस तरह पचास हजार सुरक्षा कर्मियों ने अपनी सेवाएं दी, वह काबिलेतारीफ है। पुख्ता सुरक्षा व्यवस्था की वजह से दिल्ली में किसानों के आंदोलन का समर्थन करने उतरे पचास छात्रों को पुलिस ने हिरासत में लेकर उनके मनसूबों पर पानी फेर दिया।

कुल मिलाकर कहा जाए तो सुरक्षा कर्मी अब बहुत सतर्कता से अपनी सेवाएं दे रहे हैं। किसान नेताओं ने यह आंदोलन दो अक्तूबर तक जारी रखने की सरकार को चेतावनी दी है। आगे भी इस आंदोलन को विराम लगेगा, इसके आसार कम ही नजर आते हैं। केंद्र सरकार और सर्वोच्च न्यायालय तक की बात किसानों की समझ से परे लगती है। सरकार को अब फैसला देश की जनता पर छोड़ने के लिए तीन कृषि कानूनों की प्रतियां देश के प्रत्येक गांव में बांटनी होंगी। कृषि कानूनों की सच्चाई का पता जब जनता को लगेगा तो किसानों को मजबूरन अपना तंबू उखाड़ने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। किसानों को चाहिए कि वे नरम रुख अख्तियार करते हुए सरकार से बातचीत करें तथा जल्द से जल्द इस समस्या का समाधान तलाश लें।


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