भीड़ का चक्रव्यूह बनाम पुलिस का मनोबल

दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले, जहां से देश के प्रधानमंत्री राष्ट्रीय ध्वज फहराते हैं, की रक्षा भी यदि पुलिस न कर सके तो उससे आम जनमानस की सुरक्षा की क्या उम्मीद रखी जा सकती है। पुलिस उच्चकोटि के अपने चरित्र का प्रदर्शन करे…

पुलिस को कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए विभिन्न प्रकार की प्रताड़नाएं सहन करनी पड़ती हैं। अखबारों और मीडिया द्वारा पुलिस को कर्त्तव्य विहीन लोगों का समूह दिखाया जाता है। कभी पर्याप्त कार्रवाई न करने पर, कभी अपेक्षा से अधिक तो कभी सख्ती नहीं बरतने पर, ऐसे अनेकों आरोप लगाए जाते हैं तथा इस प्रकार के आरोपों से पुलिस काफी आहत दिखाई देती है। यह सही है कि पुलिस में कुछ बुनियादी कमियां हैं, मगर पुलिस में कर्त्तव्यनिष्ठ एवं ईमानदार और सत्यनिष्ठ लोगों की कमी भी नहीं है। वर्तमान परिपे्रक्ष्य में हमारे देश को प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था में सचारू रूप से संचालन हेतु पुलिस प्रशासन का सुदृढ़ीकरण तथा उसकी गुणवत्ता में बढ़ोतरी करना आवश्यक है। इसी तरह उच्चकोटि का मनोबल एवं अनुशासन भी पुलिस के लिए महत्त्वपूर्ण है। मनोबल तो एक मानसिक स्थिति है जो कि एक अदृश्य शक्ति के रूप में कार्य करती है तथा जो मानव समूह को अपने मकसद की प्राप्ति हेतु अपना सर्वस्व दाव पर लगाने के लिए प्रेरित करती रहती है। इसी तरह अनुशासन भी सभ्यता और संस्कृति की पहली सीढ़ी है जो कि सामाजिक व व्यावसायिक सुचारुता बनाए रखने के लिए आवश्यक है। यही कारण है कि एक पदाधिकारी के इशारे पर सैकड़ों सैनिक अपनी जान की बाजी लगाकर संकटापन्न स्थिति का मुकाबला करने-करते अपने प्राणों को भी न्योछावर कर सकते हैं।

 परंतु यदि नेतृत्व कमजोर हो तो जवान भयभीत व मनोबल विहीन होकर भीड़ के सदृश्य ही हो जाते हैं। दैनिक आपराधिक गतिविधियों का संज्ञान लेने के लिए तो पुलिस के एक-दो जवान भी अपनी दी हुई जिम्मेवारी को निभाते हैं, मगर भीड़ जैसी घटनाओं पर नियंत्रण रखने के लिए पुलिस को एक समूह की तरह ही काम करना पड़ता है तथा जब भीड़ हिंसक हो जाती है, तब यह युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न कर देती है जिसे नियंत्रण करने के लिए साहस, शक्ति व सक्षमता की आवश्यकता होती है, जिसके लिए पुलिस का कुशल नेतृत्व अति आवश्यक होता है। नेतृत्वकर्ता का फर्ज़ है कि वे अधीनस्थों को वांछित प्रशिक्षण प्रदान करें तथा आम जनता के साथ अपने व्यवहार में अधिक से अधिक संवेदनशीलता लाने का प्रयास करें। यह भी देखा गया है कि ज्ञान और निपुणता, संवेदनशीलता व सामान्य व्यवहार की कवायदें प्रशिक्षण केंद्र तक ही सीमित रह जाती है, जबकि यह प्रक्रिया प्रशिक्षण संस्थाओं से  निकलने के बाद भी जारी रहनी चाहिए। संकटमयी स्थितियों का सामना करने के लिए नैतिक साहस की ज्यादा आवश्यकता होती है तथा पुलिस नेतृत्व में इतनी शक्ति होनी चाहिए कि वह अधीनस्थों को साहसी और सक्षम बना सके। दिल्ली के दंगों में कुछ ऐसा ही देखा गया कि पुलिस जवानों को असहाय व लाचार अवस्था में ही छोड़ दिया गया था तथा पुलिस को अपनी पिटाई करवाने के अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं था। शक्ति विकेंद्रीकरण का अभाव दिखाई दे रहा था तथा आपातस्थिति व उन्हें अपने अधिकार की सीमा का पता नहीं था। ऐसी परिस्थितियों में पुलिसवालों को लावारिस की तरह छोड़ देना, इस बात का द्योतक है कि एक सशक्त नेतृत्व की कमी रही जिसके परिणामस्वरूप लगभग 400 जवान जख्मी हुए। जब तक अधिकारी निम्न पंक्ति के जवानों को खुद अग्रणी होकर लीड नहीं करेंगे, तब तक पुलिस की भद्द पिटती रहेगी तथा पुलिस आम जनता के बीच उपहास का रूपक बनती रहेगी। अधिकारियों को खुद सुरक्षित रहने की भावना को त्यागना चाहिए तथा अपनी जिम्मेदारी का ठीकरा अधीनस्थों के सिर नहीं फोड़ना चाहिए। दिल्ली के दंगों में दंगाइयों का हौसला इतना ऊंचा था कि एक दंगाई दस-दस पुलिसवालों को दौड़ा-दौड़ा कर पीट रहा था और पुलिस वाले अपनी जान बचाने के लिए ऊंची-ऊंची जगहों से नीचे छलांगें लगा रहे थे जो कि पुलिस की असर्मथता का भद्दा मजाक लग रहा था। ऐसा लग रहा था कि पुलिस वालों से उनके कवच और कुंडल उतरवा लिए हों और उन्हें जख्मी होने या मरने के लिए विवश कर दिया गया हो।

 हम सबको मालूम है कि जब महाभारत का युद्ध हुआ था तब वीर अभिमन्यु किस तरह द्रोणाचार्य द्वारा बनाए गए चक्रव्यूह में फंस गया था तथा उसके पास उस चक्रव्यूह को तोड़ने की कला नहीं थी तथा परिणामस्वरूप उसे अपनी जान गंवानी पड़ी थी। यह बात सच है कि पुलिस पर राजनीति का दबाव बना रहता है जिससे मुक्त होना भी आवश्यक है। मैं नहीं समझता कि कोई राजनेता पुलिस नेतृत्व को ऐसी हिदायतें दे जिससे कि पुलिस वाले खुद चाहे जख्मी या शहीद हो जाएं, मगर हिंसक भीड़ को खदेड़ने व आत्म सुरक्षा के लिए किसी भी प्रकार के बल का प्रयोग न करें। हां, यदि ऐसे निर्देश मिलते भी हैं तो पुलिस नेतृत्व को पुलिस के गिरते मनोबल व उसके दीर्घगामी परिणामों के बारे में राजनीतिज्ञों को अवगत करा देना चाहिए। भीड़ का स्वरूप कई प्रकार का होता है तथा उसमें विभिन्न प्रकार के लोग शामिल होते हैं तथा कुछ अराजकता फैलाने वाले तत्त्व भी उसमें शामिल हो जाते हैं जिनकी पहचान करना अति आवश्यक होता है तथा उनका सामना धैर्य व साहस से ही करना होता है, नहीं तो जवानों को अपना भारी नुक्सान उठाना पड़ सकता है। जिस तरह फौज के अधिकारी युद्ध क्षेत्र में अपने जवानों का फ्रंट से नेतृत्व करते हैं, उसी तरह पुलिस अधिकारियों को अपने जवानों का नेतृत्व आगे से करना चाहिए अन्यथा जवान ऐसी परिस्थितियों में ऐसे ही भागते हुए दिखाई देंगे। कुछ महीने पहले ही शाहीन बाग दिल्ली में नागरिकता संशोधन एक्ट पर हुए दंगों में कई पुलिस वालों को अपनी जान गंवानी पड़ी और कई जवानों को दंगाइयों के प्रहार से गहरी चोटें सहनी पड़ी तथा पुलिस समुदाय की बहुत बड़ी किरकिरी हुई तथा ऐसा लगता था कि पुलिस नेतृत्व कहीं न कहीं आत्मसमर्पण कर चुका है।

 मगर ऐसी घटना से भी यदि कोई सबक न सीखा जाए, बल्कि हाल ही में किसान दंगों में और भी ज्यादा लाचारी दिखाई जाए तो पुलिस की छवि का धूमिल होना स्वाभाविक है। दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले, जहां से देश के प्रधानमंत्री राष्ट्रीय ध्वज फहराते हैं, की रक्षा भी यदि न कर सकें तो उससे आम जनमानस की सुरक्षा की क्या उम्मीद रखी जा सकती है। ऐसी घटनाएं निश्चित तौर पर पुलिस की सक्रियता पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं। जरूरत इस बात की है कि भविष्य में ऐसी घटनाओं पर पुलिस का सक्रिय एक्शन हो तथा भीड़ को नियंत्रित करने की कला, जो कि पुलिस प्रशिक्षण केंद्रों में बदस्तूर सिखाई जाती है, का समुचित रूप से प्रयोग कर व सबल, सक्षम, सुयोग्य व समर्थ बन कर आतताइयों व दुराचारियों पर शिकंजा कस कर विश्वसनीयता व सहिष्णुता को उत्सर्जित करने में सफल हो सकें। पुलिस बल देश की आंतरिक शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है और उस पर भावी उत्तरदायित्व भी है कि वह बल के प्रयोग में संयम दिखा कर अपने उच्चकोटि के चरित्र का प्रदर्शन करे।


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