प्रकृति का प्रेम त्यागने से आपदा


आश्चर्य यह है कि प्रकृति का पूजन करने वाली भारतीय संस्कृति आज हमारी धरती, पानी और वनस्पति को नष्ट करने पर तुली हुई है। इसकी तुलना में भोगवादी कहलाने वाली अमरीकी संस्कृति ने तमाम क्रियाशील जलविद्युत परियोजनाओं को सिर्फ इसलिए हटा दिया है कि वहां के लोग खुली और अविरल बहती हुई नदी में स्नान करना, नाव चलाना और मछली पकड़ना चाहते थे। समय आ गया है कि हम भी थोड़ा अंतर्मुखी होकर विचार करें कि हम अपनी संस्कृति से कैसे विमुख हो गए हैं? हम क्योंकर केवल विकास का आभास पैदा करने के लिए अपने प्राकृतिक संसाधनों और अपनी जनता को कष्ट पहुंचाने को प्रतिबद्ध हैं…
भारत का यह जो विशाल भू-भाग है, वह एक विशाल चट्टान पर स्थित है, जिसे ‘इंडियन प्लेट’ कहा जाता है। पृथ्वी के 24 घंटे घूमने से यह चट्टान धीरे-धीरे उत्तर की ओर खिसक रही है जैसे सेंटीफ्रूगल मशीन में पानी ऊपर चढ़ता है। उत्तर में इसे तिब्बत की प्लेट से टकराना पड़ता है। इन दोनों के टकराव से हिमालय में, विशेषकर उत्तराखंड में, लगातार भूकंप आते रहे हैं। पिछले 20 वर्षों में भूकंप न आने का कारण यह हो सकता है कि टिहरी झील में पानी के भरने से दोनों प्लेट के बीच में दबाव पैदा हो गया है जिससे इनका आपस में टकराना कुछ समय के लिए टल गया है, जैसे दो पहलवानों के बीच एक छोटा बच्चा खड़ा हो जाए तो कुछ क्षण के लिए उनकी कुश्ती बंद हो जाती है। दोनों प्लेटों के टकराव से एक ओर हिमालय ऊंचा होता जा रहा है तो दूसरी ओर गंगा इनकी मिट्टी को नीचे ला रही है।
हिमालय के ऊपर उठाने में पहाड़ कमजोर होते जाते हैं और उनकी मिट्टी गंगा में आकर गिरती है। गंगा उस मिट्टी को मैदानी इलाकों तक पहुंचाती है। पहाड़ों में हमें जो घाटियां दिखाई पड़ती हैं, वे गंगा द्वारा मिट्टी को नीचे ले जाने से ही बनी हैं। गंगा द्वारा मिट्टी नीचे नहीं लाई जाती तो हिमालय का क्षेत्र भी तिब्बत के पठार जैसा दिखता। हरिद्वार से गंगासागर तक का समतल और उपजाऊ भूखंड भी इसी मिट्टी से बना है। इसलिए हिमालय पर दो परस्पर विरोधी प्रभाव लगातार पड़ते हैं। एक तरफ इंडियन प्लेट के टकराने से यह ऊपर होता है तो दूसरी तरफ गंगा द्वारा इसकी मिट्टी ले जाने से यह नीचा होता है। इस परिप्रेक्ष में 2013 में चोराबारी ग्लेशियर का टूटना एवं वर्तमान में ऋषिगंगा ग्लेशियर का टूटना सामान्य घटनाएं हैं और ऐसी घटनाएं आगे भी निश्चित रूप से घटती रहेंगी। हमारे भू-वैज्ञानिक इस टूटन को वृक्षारोपण आदि से रोकने कि फर्जी बात कर रहे हैं। हिमालय के इस सामान्य चरित्र में जलविद्युत परियोजनाओं ने संकट को बढ़ा दिया है। वर्ष 2013 की आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर पर्यावरण मंत्रालय ने एक कमेटी गठित की थी जिसके अध्यक्ष रवि चोपड़ा थे। इस कमेटी ने पाया कि 2013 की आपदा में नुकसान केवल जलविद्युत परियोजनाओं के ऊपर एवं नीचे हुआ था।
केदारनाथ के नीचे फाटा व्यूंग परियोजना के कारण मंदाकिनी का बहाव रुक जाने के कारण पीछे एक विशाल तालाब बन गया जिससे सीतापुर का पुल डूब गया और हजारों लोग काल कलवित हो गए। इसी प्रकार फाटा व्यूंग के नीचे सिंगोली भटवाड़ी जल विद्युत परियोजना के बैराज टूटने के कारण बहता पानी नदी के एक छोर से तेजी से निकला और सर्प के आकार में दोनों किनारों को तोड़ता हुआ आगे बहा, जिससे हजारों लोगों के मकान पानी में समा गए। जहां गंगा का खुला बहाव था, वहां कोई आपदा नहीं आई। कमेटी ने कहा कि यह आकस्मिक नहीं हो सकता है कि आपदा का नुकसान केवल जलविद्युत परियोजनाओं के ऊपर और नीचे हुआ है। दरअसल जलविद्युत परियोजनाओं से गंगा का मुक्त बहाव बाधित हो जाता है। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि पहाड़ अथवा ग्लेशियर के टूटने से जो मलबा और पानी आता है उसको गंगा सहज ही गंगा सागर तक पहुंचा देती है। लेकिन इस कार्य को करने के लिए उसे खुला रास्ता चाहिए ताकि वह सरपट बह सके।
रास्ते में कोई रुकावट नहीं चाहिए, जैसे हाथी को सड़क पर चलने के लिए खुले रास्ते की जरूरत होती है। लेकिन जलविद्युत परियोजनाओं के द्वारा गंगा के इस खुले रास्ते पर अवरोध लगा दिया जाता है और यही आपदा को जन्म देता है। वर्तमान में ऋषिगंगा में हुई भयंकर आपदा का कारण भी यही है। ऊपर ग्लेशियर के टूटने से जो पानी और मलबा नदी में आया उसको नदी सहज ही गंगासागर तक ढकेल कर ले जाती, लेकिन वह ऐसा न कर सकी क्योंकि पहले उसका रास्ता रोका ऋषिगंगा जलविद्युत परियोजना ने जिसे ऋषि गंगा ने तोड़ा, उसके बाद पानी का रास्ता रोका तपोवन विष्णुगाड जलविद्युत परियोजना की बैराज ने। वह पानी बैराज को तोड़ता हुआ आगे बढ़ा। इस प्रकार पहाड़ के टूटने की सामान्य घटना ने भयंकर रूप धारण कर लिया। यदि उत्तराखंड में जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण होता रहेगा तो ऐसी आपदाएं आती ही रहेंगी क्योंकि पहाड़ों का टूटना जारी रहेगा और उनका रास्ता बांधों और बैराजों से बाधित होने से संकट पैदा होगा ही।
कौतूहल का विषय यह है कि उत्तराखंड की सरकार की इन जलविद्युत परियोजनाओं को बनाने में क्या दिलचस्पी है? इनसे उत्पादित बिजली भी बहुत महंगी पड़ती है। वर्तमान में नई जल विद्युत परियोजनाओं से उत्पादित बिजली लगभग 8 से 10 रुपए प्रति यूनिट में उत्पादित होती है। मैंने देव प्रयाग के पास प्रस्तावित कोटलीभेल 1-बी जलविद्युत परियोजना के पर्यावरणीय प्रभावों के आर्थिक मूल्य का आकलन किया। मछलियों, बालू, जंगलों, भूस्खलन, मनुष्यों के स्वास्थ्य और संस्कृति आदि का आर्थिक मूल्य निकाला तो पाया कि पर्यावरण की हानि के मूल्य को जोड़ने से कोटलीभेल परियोजना द्वारा उत्पादित बिजली का उत्पादन मूल्य लगभग 18 रुपए प्रति यूनिट पड़ता है। इनके सामने आज सोलर पावर लगभग तीन रुपए में उपलब्ध है। यद्यपि यह बिजली दिन में उत्पादित होती है, लेकिन इसे सुबह और शाम की पीकिंग पावर में परिवर्तित करने का खर्च मात्र 50 पैसा प्रति यूनिट आता है।
इसलिए आर्थिक दृष्टि से भी ये जल विद्युत परियोजनाएं पूर्णतया अप्रासंगिक हो गई हैं। लेकिन इन योजनाओं को बनाने में सरकार को 12 प्रतिशत बिजली मुफ्त मिलती है। एक यूनिट बिजली का दाम चार रुपए मान लें तो उत्तराखंड सरकार को 48 पैसे मुफ्त मिलते हैं, जबकि जनता को 18 रुपए अदा करने पड़ते हैं। इसके अलावा इन परियोजनाओं में पर्यावरण स्वीकृति, जंगल स्वीकृति, भूमि अधिग्रहण, बिजली लाइसेंस इत्यादि के टंटे होते हैं जिसके कारण उत्तराखंड सरकार इनको बनाना चाहती है। आश्चर्य यह है कि प्रकृति का पूजन करने वाली भारतीय संस्कृति आज हमारी धरती, पानी और वनस्पति को नष्ट करने पर तुली हुई है। इसकी तुलना में भोगवादी कहलाने वाली अमरीकी संस्कृति ने तमाम क्रियाशील जलविद्युत परियोजनाओं को सिर्फ इसलिए हटा दिया है कि वहां के लोग खुली और अविरल बहती हुई नदी में स्नान करना, नाव चलाना और मछली पकड़ना चाहते थे। समय आ गया है कि हम भी थोड़ा अंतर्मुखी होकर विचार करें कि हम अपनी संस्कृति से कैसे विमुख हो गए हैं? हम क्योंकर केवल विकास का आभास पैदा करने के लिए अपने पहाड़ों, अपने प्राकृतिक संसाधनों, अपनी संस्कृति और अपनी जनता को कष्ट पहुंचाने को प्रतिबद्ध हैं?
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