पहाड़ों के सब्र का इम्तिहान न लें

लाजिमी है कि खुशनुमा पर्वतों का प्राकृतिक स्वरूप बदलने से पहले इन पहाड़ों के संवेदनशील मिजाज, खुसूसियत व इनके प्राचीन रहस्यों के बारे में जानना जरूरी है। देश में किसी भी संवेदनशील विषय पर टीवी डिबेट, विश्लेषण, मंथन व शोध विकराल आपदा के बाद ही शुरू होता है। विनाशलीला को प्राकृतिक आपदा की दलीलें देकर तबाही के मंजर के लिए प्रकृति को जिम्मेदार ठहराने से पहले इन गंभीर विषयों पर वैज्ञानिक शोध होना चाहिए…

पृथ्वी पर कुदरत की एक सुजात संरचना इस धरती का मुकुट पहाड़ जैव विविधता, शुद्ध वातावरण, अध्यात्म, ध्यान, साधना का केंद्र व कई संस्कृतियों को समेटे प्राकृतिक संसाधनों तथा खनिज संपदाओं से लबरेज पहाड़ कई दुर्लभ औषधियों व स्वास्थ्य का अनमोल खजाना हैं। हिमाचल प्रदेश में मीलों तक फैली हिमाच्छदित घाटियां व सुरम्य वादियां दूर से निहारने वाले लोगों के जहन में भी सुकून भर देती हैं। इसीलिए पहाड़ी लोगों की जीवनशैली स्वस्थ तथा उन्हें सौभाग्यशाली कहा जाता है। एक अनुमान के अनुसार दुनिया के लगभग 22 प्रतिशत भू-भाग पर पर्वत मौजूद हैं। पहाड़ों के महत्त्व के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा ने सन् 2003 से प्रतिवर्ष 11 दिसंबर को पर्वत दिवस मनाने की शुरुआत की है। लेकिन भारत की गौरवशाली पुरातन संस्कृति में तो पहाड़ों को हजारों वर्षों से देवतुल्य माना जाता है। हमारी वैदिक संस्कृति में ‘मरूतगणों’ को पहाड़ों का देवता माना गया है।

 कई ऋषि मुनियों की तपोभूमि हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं को प्राचीन काल से देवताओं का निवास माना गया है। हमारे धर्मग्रंथों में हिमालय पर्वत, श्रीकृष्ण की लीलास्थली गौवर्धन पर्वत, चित्रकूट, कैलाश, त्रिकूट, द्रोणगिरी, अरावली व दक्षिण में शुक्तमान पर्वत श्रेणी, तिरूमाला तथा ‘महर्षि अगस्त्य’ की तपोस्थली मलयगिरी जैसे पर्वतों का प्राचीन काल से धार्मिक महत्त्व रहा है और आज भी है। यही पहाड़ करोड़ों आबादी को जलापूर्ति करने वाली कई मुकद्दस नदियों का उद्गम स्थल व कई दुर्लभ वन्यजीवों की शरणस्थली भी हैं। हिमाचल प्रदेश तथा उत्तराखंड दोनों पहाड़ी प्रदेशों की भौगोलिक परिस्थितियां लगभग एक समान हैं। दोनों राज्यों के पहाड़ों पर कई प्राचीन मंदिर मौजूद हैं जो आस्था के साथ धार्मिक पर्यटन का भी केंद्र हैं। दोनों ही राज्यों की सैन्यशक्ति ने शौर्य पराक्रम के कई मजमून लिखे हैं। इसलिए दोनों राज्यों को देवभूमि व वीरभूमि के नाम से भी जाना जाता है। प्रतिवर्ष देश व विदेशों से लाखों श्रद्धालु तथा एकांत के पल बिताने के लिए सैलानी राज्यों के इन पहाड़ों का रुख करते हैं। राज्यों के पर्यटन उद्योग का एक बड़ा कारोबार इन्हीं पहाड़ों से जुड़ा है, जो कई लोगों के रोजगार व आर्थिकी का साधन भी है। लेकिन कुछ समय से आधुनिक विकास की जद्दोजहद में बढ़ता औद्योगिकरण, बढ़ती आबादी के साथ बढ़ते नगरीकरण के विकासकार्यों के लिए इन पहाड़ों पर पॉकलेन जैसे मशीनीकरण के प्रहारों व सुरंगों के निर्माण के लिए डायनामाइट जैसे विस्फोटों से पहाड़ों के सीने पर उपजे गहरे जख्मों से इन पर्वतों के सब्र का बांध टूट रहा है। दूसरी तरफ  उद्योगों व फैक्टरियों से उठता जहरीला धुआं, देश व दुनिया के जंगलों में बढ़ती आगजनी की घटनाओं व खेतों में फसलों के अवशेष जलाने के लिए लगाई जाने वाली आग से उत्पन्न बेहताशा वायु प्रदूषण तथा ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि से उपजी ग्लोबल वार्मिंग ने इन पहाड़ों की संजीवनी फिजाओं की आबोहवा पर गर्दिश के बादल मंडरा रहे हैं।

एटमी ताकत बनने की होड़ में लगे कई मुल्कों द्वारा किए जा रहे घातक बमों व बारूदी मिसाइलों के विस्फोटों से धरती कांप रही है। नतीजतन विस्फोटों व ब्लास्टिंग ने पहाड़ों को दरकने पर तथा जलवायु परिवर्तन ने बड़े हिमनदों को पिघलने पर मजबूर कर दिया है। इन विषयों पर कई बुद्धिजीवी, भूवैज्ञानिक व पर्यावरणविद समय-समय पर चिंता जताकर शासन, प्रशासन व आवाम को सचेत करते रहते हैं, मगर आधुनिक विकास के चश्में से ये सब चीजें नज़रअंदाज हो जाती हैं। 7 फरवरी 2021 को उत्तराखंड के चमोली जिले में उपजे कुदरत के विनाशकारी प्रलय में कई लोगों की जान चली गई। उस खौफनाक प्रलय का खामियाजा स्थानीय लोगों तथा वहां के बिजली प्रोजेक्टों के निर्माण कार्यों में काम कर रहे लोगों व उनके परिवारों को भुगतना पड़ा। काबिलेगौर रहे कि पर्वतीय क्षेत्रों की दुर्गम व जोखिम भरी परिस्थितियों के मद्देनजर पहाड़ों के दूरदराज क्षेत्रों में बसने वाले ज्यादातर लोग कई आधुनिक सुविधाओं से महरूम रह जाते हैं। सीमित संसाधनों के साथ जीवनयापन कर रहे लोगों को यदि इनसानी गुस्ताखियों से भीषण आपदाओं का शिकार होना पडे़ तो ऐसे विकास का कोई औचित्य नहीं हो सकता। पर्यटन उद्योग व प्राकृतिक संपदाओं से भरपूर पहाड़ दुश्मन की गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए सामरिक रणनीति में भी अहम किरदार अदा करते हैं। पड़ोस में चीन जैसे शातिर व ताकतवर मुल्क के साथ चल रहे कसीदगी भरे माहौल से निपटने में भी हिमाचल व उत्तराखंड दोनों पहाड़ी राज्यों की भौगोलिक सीमाओं व सैन्यशक्ति के तौर पर भी निर्णायक भूमिका होगी। मगर चमोली में हुए प्रलयंकारी विनाश में उत्तराखंड को चीन तथा उसकी दुखती रग तिब्बत तक भारतीय सेना को कुछ घंटों में पहुंचाने में मददगार ‘बीआरओ’ का एकमात्र पुल भी तबाह हो गया जो कि देश के सुरक्षा बलों के लिए एक बड़ा नुक्सान है।

 बेशक आवाम की सुख-सुविधाओं तथा देश की उन्नति के लिए औद्यौगिक ढांचे तथा कई परियोजनाओं की जरूरत है, मगर इन निर्माण कार्यों के मॉडल का पैमाना विश्वसनीय व विश्वस्तरीय आधुनिक वैज्ञानिक तकनीक से लैस होना भी जरूरी है। बहरहाल इन खौफनाक सैलाबों की चेतावनी तस्दीक करती है कि प्रकृति अपना शोषण, निर्मम दोहन व अत्यधिक अतिक्रमण सहन नहीं करेगी। विनाश को निमंत्रण देने वाली अनियंत्रित विकास की आंधी जितनी रफतार पकडे़गी, प्रकृति आक्रोशित होकर उसी आगोश से माकूल पलटवार करेगी। लाजिमी है कि खुशनुमा पर्वतों का प्राकृतिक स्वरूप बदलने से पहले इन पहाड़ों के संवेदनशील मिजाज, खुसूसियत व इनके प्राचीन रहस्यों के बारे में जानना जरूरी है। देश में किसी भी संवेदनशील विषय पर टीवी डिबेट, विश्लेषण, मंथन व शोध विकराल आपदा के बाद ही शुरू होता है। इसलिए ऐसी विनाशलीला को प्राकृतिक आपदा की दलीलें देकर तबाही के मंजर के लिए प्रकृति को जिम्मेदार ठहराने से पहले इन गंभीर विषयों पर वैज्ञानिक शोध होना चाहिए ताकि भविष्य में सबक लेकर इनसानी जिंदगियों को तबाह होने से बचाया जा सके और पहाड़ों का वजूद व मुस्तकबिल भी महफूज रहे।


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