हालात जैसे भी हों इज्जत-ए-नफज से काम करने वाली अजीम शख्सियतें किसी प्रलोभन या धन-दौलत के लालच में खुद्दारी की सरहद नहीं लांघती। बेहतर होगा यदि मुल्क के निजाम में विराजमान इंतजामिया व नौकरशाही को नशा ईमानदारी व मोहिब्ब- ए-वतन के जज्बात का हो ताकि आवाम का एतबार कायम रहे...
सन् 1977 के दौर में ‘हाई एल्टीट्यूड वारफेयर स्कूल’ के कमांडर रहते ‘कर्नल नरेंद्र बुल’ ने सियाचिन के साल्टोरो रेंज, जस्कर व काराकोरम जैसे दुर्गम क्षेत्रों में पर्वतारोहण को अंजाम देकर पाकिस्तान के नापाक मंसूबे भांप लिए थे। कर्नल बुल के साहस भरे पर्वतारोही अभियानों से ही आपरेशन मेघदूत को अधिकृत किया गया था...
साजिशों के साथ तमाम तोहमतें भी बेरोजगारों का ही पीछा करती हैं। आरोपियों को गुनाहगार के नजरिए से देखा जाता है। हमारे मुल्क का अदालती निजाम अंग्रेजों द्वारा बनाया गया है। अदालतों में आरोपियों को बेगुनाह साबित होने में मुद्दतें गुजर जाती हैं। ताजिरात-ए-हिंद के पैरोकार व कानूनी दावपेंच में माहिर आईन के मुनाजिरों से इंसाफ की आस रहती है...
यदि मजहब की तर्जुमानी करने वाले जिन्ना व इकबाल की द्विराष्ट्र सिद्धांत की सोच सही थी तो बलूचिस्तान, पीओके व सिंध की आजादी पर रायशुमारी होनी चाहिए। बहरहाल सन् 1971 में पूर्वी पाक को बांग्लादेश में तब्दील करके भारतीय सेना ने पाकिस्तान को द्विराष्ट्र सिद्धांत का एहसास पूरी शिद्दत से कराया था...
नशे की कातिलाना ख्वाहिश ही जीवन को जहन्नुम में तब्दील कर देती है। विश्व के इतिहास में यदि किसी निजाम में कोई तब्दीली हुई है तो उस इंकलाब के पीछे युवा ताकत का अहम रोल रहा है। अत: पहाड़ की शांत शबनम से चिट्टे जैसी महामारी को रुखसत करने में किसी अदालत, कानून, हुकूमत, हकीम, हुक्काम, तबीब व दस्तगीर से बड़ा अफजल किरदार युवावर्ग ही अदा कर सकता है...
बहरहाल यूएसए से भारतीय नागरिकों के निर्वासन पर सियासी मंथन होना चाहिए कि तवानाई से लबरेज युवा वर्ग डंकी रूट के तहत विदेश जाने को मजबूर क्यों है? बेरोजगारी की पराकाष्ठा, रोजगार की जुस्तजू, अमीर बनने की चाहत, डॉलर की चमक या मगरबी तहजीब के हसरत-ए-दीदार की कशिश...
बांग्ला आवाम तथा ‘टावर हैमलेट्स काउंसिल’ ने मिलकर उस शहीद मिनार का जीर्णोद्धार किया। बांग्लादेश की राष्ट्रीय संसद के अध्यक्ष ‘हुमायूं रशीद चौधरी’ ने उस भाषायी विरासत के प्रतीक शहीद मिनार का अनावरण 17 फरवरी 1999 को किया था। ‘यूनेस्को’ ने 21 फरवरी को ‘अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस’ घोषित किया था...
खुद को कनाडा की सियासत का चतुर खिलाड़ी समझने वाले ट्रूडो भारत की डिप्लोमेटिक स्ट्राइक के आगे अनाड़ी साबित हुए। भारत को अस्थिर करने का ख्वाब देखने वाली देशी व विदेशी ताकतों को भारत की कूटनीति से पस्त हुए कनाडा व मालदीव जैसे मुल्कों से सबक लेना होगा...
सरहदों से लेकर जम्हूरियत की पंचायतों तक अहम किरदार निभाने वाला सैन्य समाज मुल्क के जम्हूरी निजाम में बदलाव की पूरी सलाहियत रखता है। अत: रक्षा क्षेत्र की नीतियों को अमल में लाने से पहले सामरिक क्षेत्रों के अनुभवी पूर्व सैनिकों से सलाह-मश्विरा होना चाहिए...
अब प्रश्न उठ रहा है कि हजारों भारतीय सैनिकों के बलिदान की बुनियाद पर वजूद में आए बांग्लादेश को क्या बांग्ला हुक्मरानों को सौंपने का भारत का फैसला सही था? पाकिस्तान के नक्शेकदम पर चलने वाले एहसान फरामोश बांग्लादेश को उसकी औकात दिखानी होगी...