पहाड़ों का आर्थिक शोषण

इस कमेटी ने खतरे की आशंका को भांपते हुए अलकनंदा और भागीरथी पर बनी 23 जलविद्युत परियोजनाओं को बंद करने की सिफारिश की थी। सभी जगह हमारे पहाड़ व्यापारिक और आर्थिक दोहन का शिकार हो रहे हैं। आखिरकार हम प्रकृति और पर्यावरण के प्रति आर्थिक फायदों के लिए इतने क्रूर क्यों हो गए हैं…

पहाड़ी राज्य देवभूमि उत्तराखंड को एक बार फिर कुदरत का प्रकोप झेलना पड़ा है। इस आपदा का सबसे बड़ा ताजा शिकार 2006 से बन रहा ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट और तपोवन विष्णुगाड पावर प्लांट है। ऋषिगंगा पावर प्लांट रैणी गांव में स्थित 11 मेगावाट का प्रोजेक्ट है जो कि धौलीगंगा नदी में स्थित है और इसी के आगे कुछ ही दूरी पर तपोवन में तपोवन विष्णुगाड पावर प्लांट है जो 520 मेगावाट क्षमता का है। अब  दोनों ही प्रोजेक्ट तबाह हो चुके हैं। आज से करीब साढ़े 7 साल पहले 2013 में यहां जो कुदरत का कहर दिखने को मिला था, वही तस्वीर एक बारगी फिर नजरों के सामने आ गई है। चमोली जिले में ग्लेशियर टूटने से ऋषिगंगा और धौलीगंगा नदियों में भयंकर उफान आ गया जिससे वहां बन रहा पावर प्रोजेक्ट पूरी तरह से तबाह हो गया। जो पहाड़ अब तक बरसात में कड़कती बिजली और मूसलाधार बारिश के बीच बादल फटने और बाढ़ जैसी आपदा देख रहे थे, उनकी शांति शीतकाल में इस तरह भंग हो सकती है, ये शायद किसी ने नहीं सोचा था। सर्दियों के साफ मौसम, चिलचिलाती धूप के बीच जल-प्रलय का नजारा अनदेखा है।

 जब बर्फबारी और ग्लेशियर के जमने का समय हो, उस समय यदि ग्लेशियर टूट कर जल-प्रलय का सबब बनें तथा इन घाटियों में विकास के नाम पर प्रकृति में किए गंभीर खिलवाड़ को नजरअंदाज कर देना ठीक नहीं है। 2019 में आई एक स्टडी में खुलासा हुआ है कि वर्तमान समय में हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार पिछली सदी के आखिरी 25 साल के मुकाबले दोगुनी हो चुकी है। तापमान बढ़ने से ग्लेशियरों के निचले हिस्से को नुकसान हो रहा है। इस स्टडी के लिए 10 सालों का सैटेलाइट डेटा लिया गया था, जिसमें भारत के साथ चीन, नेपाल और भूटान के आंकड़े शामिल हैं। वहीं जून 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2000 के बाद ग्लेशियर हर साल डेढ़ फीट के बराबर बर्फ  खो रहे हैं। देवभूमि में आपदाओं के बाद हमेशा से ही बड़े बांधों और पॉवर प्रोजेक्ट्स पर सवाल उठते रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट भी इस पर अपनी चिंता जाहिर कर चुका है। इतना ही नहीं जल संसाधन मंत्रालय ने 2016 में सुप्रीम कोर्ट के सामने ये माना भी था कि राज्य में गंगा पर कोई भी नया पॉवर प्रोजेक्ट पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा साबित होगा। वहीं 2013 की केदारनाथ त्रासदी के बाद राज्य के 39 में से 24 पॉवर प्रोजेक्ट्स पर रोक लगा दी थी, लेकिन इसके बावजूद डैम और पॉवर प्रोजेक्ट्स का काम आज भी बदस्तूर जारी है। ग्रामीणों का कहना है कि इस तरह की प्राकृतिक आपदा तभी आती है जब प्रकृति के साथ छेड़छाड़ की गई हो। भूवैज्ञानिकों के मुताबिक दरअसल नीति घाटी से निकलने वाली धौलीगंगा नंदा देवी बायोस्फियर रिज़र्व का एक अहम हिस्सा है जो कि बेहद ही संवेदनशील है और नंदा देवी बफर ज़ोन का हिस्सा है जिसमे छेड़छाड़ बिल्कुल भी वर्जित होनी चाहिए। साल 2019 में इसी इलाके में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने रेणी गांव के लोगों की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए इस इलाके में बांध बनाने के लिए डायनामाइट के विस्फोट पर प्रतिबंध लगा दिया था। यकीनन ऐसी घटनाएं कुदरत से खिलवाड़ करने का ही परिणाम हैं।

 कौन नहीं जानता है कि हिमालय एक नाजुक पर्वत है और टूटना-बनना इसके स्वभाव में है। भूकंप, हिमस्खलन, भूस्खलन, बाढ़, ग्लेशियर, तालों का टूटना और नदियों का अवरुद्ध होना आदि इसके अस्तित्व से जुड़े हुए हैं। अति मानवीय हस्तक्षेप को हिमालय का पारिस्थितिकीय तंत्र बर्दाश्त नहीं कर सकता है। वर्ष 1970 की अलकनंदा की प्रलयंकारी बाढ़ को हम याद करें। उस साल ऋषिगंगा घाटी समेत पूरी अलकनंदा घाटी में बाढ़ से भारी तबाही हुई थी जिसने हिमालय के टिकाऊ विकास के बारे में सोचने को मजबूर किया था। इस बाढ़ के बाद अपने अनुभवजनित ज्ञान के आधार पर लोगों ने ऋषिगंगा के मुहाने पर स्थित रैणी गांव के जंगल को बचाने के लिए सफलतापूर्वक चिपको आंदोलन आरंभ किया जिसके फलस्वरूप तत्कालीन राज्य सरकार ने अलकनंदा के पूरे जलागम के इलाके में पेड़ों की कटाई को प्रतिबंधित कर दिया था। पिछले कई दशकों से हिमालय के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक बाढ़ और भूस्खलन की घटना तेजी से बढ़ रही है और 2013 में गंगा की सहायक नदियों में आई प्रलयंकारी बाढ़ से न केवल केदारनाथ अपितू पूरे उत्तराखंड को इसके लिए गंभीर विश्लेषण करने के लिए विवश कर दिया है।

देखना होगा कि ऋषिगंगा में घाटी की संवेदनशीलता को दरकिनार कर अल्प ज्ञान के आधार पर जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण को पर्यावरणीय स्वीकृति दे दी गई, जबकि यह इलाका नंदादेवी नेशनल पार्क के मुहाने पर है। इस तरह की जल विद्युत परियोजना की स्वीकृति देना ठीक नहीं था। यह इस तरह की आपदाओं के लिए जमीन तैयार करने जैसा है। जबकि हमारे पास इस तरह की परियोजनाओं के सुरक्षित संचालन के लिए इस क्षेत्र के पारिस्थितिकीय तंत्र के बारे में कारगर जानकारी अभी भी उपलब्ध नहीं है। परियोजनाओं को बनाने और चलाने की अनुमति और खासतौर पर पर्यावरणीय स्वीकृति इतनी आसानी से क्यों मिल जाती है? हमें नदियों के उद्गम स्थल से जुड़े पारिस्थितिकीय तंत्र की जानकारी को बढ़ाने पर जोर देना चाहिए क्योंकि गंगा और उसकी सहायक धाराओं में से अधिकांश ग्लेशियरों से निकलती हैं और उनके स्रोत पर ग्लेशियरों के साथ कई छोटे-बड़े तालाब हैं जिनके बारे में ज्यादा जानकारी एकत्रित करने की जरूरत है। हिमालय का क्षेत्र बहुत नाजुक है और जरूरी है कि बहुत ध्यान से इसकी क्षमता का इस्तेमाल किया जाए।

 जो बदलाव हो रहे हैं, उसमें पर्यावरण एक कारण है और दूसरा इनसानी गतिविधियां जो इसमें योगदान दे रही हैं।  उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा के बाद ज़्यादा ऊंचाई पर बन रहे बांधों और विद्युत परियोजनाओं पर भूवैज्ञानिकों और गांव वालों ने सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं। ये जगह इतनी संवेदनशील है कि गांव वालों को यहां से पशुओं के लिए चारा इकट्ठा करने पर भी मनाही है। गांव वालों का कहना है कि जिस जगह पर उन्हें चारापत्ती तक उठाने की इजाज़त नहीं, वहां इतना बड़ा विद्युत प्रोजेक्ट कैसे बना? हिमालय की संवेदनशीलता को देखते हुए अंतरिक्ष, भूगर्भीय हिमनद से संबंधित विभागों के माध्यम से उसका अध्ययन किया जाना चाहिए। क्लाइमेट चेंज के प्रति हमारा हिमालय वैसे ही अधिक संवेदनशील है, किंतु अंधाधुंध विकास  के नाम पर इन घाटियों को हर तरह से लादा जाना, वनों के प्रति संवेदनहीन बन इन्हें जलाया जाना इत्यादि इन आपदाओं का मूल कारण है। आज हमें चाहिए कि इसे प्राकृतिक आपदा कहने की भूल न करें। जब प्रकृति में कुछ भी हमने अनछुआ नहीं छोड़ा, धरती से आकाश तक हर जगह मानव का गंभीर हस्तक्षेप पहुंच चुका है। इस घटना ने हमें 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर 2014 में बनी रवि चोपड़ा कमेटी की सिफारिशों की याद दिला दी है। इस कमेटी ने खतरे की आशंका को भांपते हुए अलकनंदा और भागीरथी पर बनी 23 जलविद्युत परियोजनाओं को बंद करने की सिफारिश की थी। सभी जगह हमारे पहाड़ व्यापारिक और आर्थिक दोहन का शिकार हो रहे हैं। आखिरकार हम प्रकृति और पर्यावरण के प्रति आर्थिक फायदों के लिए इतने क्रूर क्यों हो गए हैं?

ईमेल : hellobhatiaji@gmail.com


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