पहाड़ी प्रदेश में खेती की जड़ें कितनी गहरी

By: Feb 17th, 2021 12:08 am

कृषि प्रधान प्रदेश हिमाचल में खेती का दायरा बढ़ता ही जा रहा है। इसमें हर साल दस से 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो रही है, यानी लोग खेती अपनाने आगे आ रहे हैं। भले ही यहां धारा 118 जैसा कानून है, लेकिन ज़मीन की खरीद-फरोख्त का सिलसिला जारी रहता है। हिमाचल में खेती के हालात पर अहम तथ्यों के साथ पेश है दखल

हिमाचल को कृषि प्रधान प्रदेश माना जाता है। बावजूद इसके वर्तमान में राज्य में 55,754 हैक्टेयर भूमि ही कृषि योग्य है। विभाग से मिले आंकड़े के अनुसार राज्य में बंजर एंव कृषि के लिए अनुपयोगी भूमि 7,78,998 हैक्टेयर है। इसके साथ ही गैर कृषि कार्यो के लिए आरक्षित भूमि 3,52,407 हैक्टेयर है। वहीं स्थायी चरागाह एवं अन्य चरागाह भूमि 15,07,965 हैक्टेयर है। इसके अलावा कृषि वाली बंजर भूमि 1,21,714 हैक्टेयर हिमाचल में है। वर्ष 2020-2021 में शुद्ध बोया गया क्षेत्र 5,47,556 हैक्टेयर है। हिमाचल में एक से अधिक बार बोया गया क्षेत्र 9,59,223 हैक्टेयर है। कृषि विभाग की ओर से वर्ष 2020 व 2021 में जारी की गई रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है। अहम यह है कि राज्य में शुद्ध सिंचित क्षेत्र 1,14,381 हैक्टेयर है। प्रदेश में बागबानी क्षेत्र में नर्सरियों का महत्त्वपूर्ण योगदान है।

नर्सरियों में तैयार पौधे बागों में लहरा रहे हैं, जो प्रदेश में बागबानों की आजीविका सहित प्रदेश की मुख्य आर्थिकी में महत्त्वपूर्ण योगदान निभा रही है। प्रदेश में मौजूदा समय के दौरान बागबानी विभाग व प्राइवेट नर्सरियां चल रही हैं, जिनमें विभिन्न वैरायटी के पौधे तैयार किए जा रहे हैं। राज्य में बागबानी विभाग की अपनी मात्र 44 नर्सरियां हैं, जबकि पहाडी प्रदेश में 501 नर्सरियां प्राइवेट हैं। जो विभाग के अधीन पंजीकृत हैं। नर्सरी का संचालन करने के लिए विभाग से लाइसेंस लेना जरूरी है। लाइसेंस लेने के लिए आवेदक का कृषि व बागबानी में बीए डिग्री धारक होने अनिवार्य रहता है। इसके साथ-साथ व्यक्ति के पास जमीन होनी चाहिए और वह कृषक व बागबान होना चाहिए। लाइसेंस लेने के लिए आवेदक को ब्लॉक में एसएमएस के पास फार्म-1 भरना होगा। फार्म के तहत औपचारिकताएं पूरी करनी होगी।

 सभी औपचारिकताएं पूरी होने के बाद विभाग का इंस्पेक्टर फील्ड विजिट कर फार्म-2 अपनी रिपोर्ट देगा। इंस्पेक्टर की रिपोर्ट पर पूरा रोडमैप तैयार किया जाता है। लाइसेंस बनाने के लिए आवदेक को छह हजार रुपए की फीस चुकानी होती है। प्रकिया के पूरा होने के बाद संबंधित एचओडी द्वारा लाइसेंस जारी किया जाता है। विभाग के पास पंजीकृत नर्सरियों पर बागबानी विभाग की पूरी देखरेख रहती है। समय-समय पर विभाग के अधिकारी नर्सरियों का निरिक्षण करते रहते हैं। इसमें तैयार पौधों को सुरक्षित रखने के लिए दवाइयों के छिड़काव सहित अन्य दिशा-निर्देश दिए जाते हैं। प्रदेश में पौधों के दाम भी बागबानी विभाग द्वारा निर्धारित किया जाता है। हर साल पौधों के दाम निर्धारित किए जाते हैं। पौधों के वितरण के समय भी विभाग के अधिकारियों की नर्सरी संचालक पर नजर रहती है, ताकि वे बागबानों को महंगे दामों पर पौधे वितरित न करें।

…हर नर्सरीं में मिल रहे पौधे

नर्सरियों में आम, लीची, प्लम, नाशपाती, कीवी, आफरी काट, सेब की विभिन्न वैरायटी, अखरोट, नींबू के पौधे उपलब करवाए जा रहे हैं। पौधों का वितरण जुलाई व जनवरी-फरवरी माह के दौरान किया जाता है।

प्रो. एचके चौधरी, कुलपति

कृषि विश्वविद्यालय, पालमपुर

पारिस्थितिक और पर्यावरणीय समस्याओं, प्राकृतिक संसाधनों पर भार, उत्पादन और आय में निरंतर वृद्धि को ध्यान में रखते हुए क्षेत्र में फसल विविधीकरण विशेष महत्त्व रखता है। जलवायु परिवर्तन और कम होती भूमि और श्रम संसाधनों के कारण राज्य के किसानों सब्जी उत्पादन की ओर आकर्षित हो रहे हैं। वर्तमान में बीज की मांग बढ़ रही है और निजी बीज उत्पादकों या कंपनियों के माध्यम से की जाती है, जो अधिकतर प्रमाणित नहीं होते हैं। खराब गुणवत्ता के चलते कम पैदावार के कारण किसानों को नुकसान उठाना पड़ता है। सब्जियों, चारे, तिलहन और दालों के गुणवत्तापूर्ण बीजों की बहुत अधिक मांग है। नई परियोजना से गेहूं-मक्का-चावल के अच्छे बीज की व्यवस्था से किसानों की आजीविका और आय में सुधार की संभावना बनेगी। मॉडल सीड प्रोडक्शन फार्म की स्थापना से फसलों की विभिन्न किस्मों के 2500 क्विंटल से अधिक न्यूक्लियस, ब्रीडर और फाउंडशेन बीज तैयार किया जाएगा

हिमाचल के जंगलों में औषधीय पौधों की हैं 1038 प्रजातियां

हिमाचल वन विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार जंगल में औषधीय पौधों की करीब 1038 प्रजातियां हैं, जिनसे 3400 प्रकार की अमूल्य जड़ी-बूटियां मिलती हैं। पूरे हिमालय क्षेत्रों में 1748 जड़ी-बूटियां पाई जाती हैं। इनमें से 339 पेड़ प्रजाति, 1029 शाखा और 51 टेरिटो थाइटस प्रजातियां हैं। हिमाचल प्रदेश में पतीश, रतनजोत, हाथ पंजा, सर्पगंधा, चिरायता, कुंठ, टिमर, कडू, चौरा, रखाल, वन हल्दी, वन ककड़ी, शीरा काकोली, निहानी, धूप, लकड़ चूची, नाग छतरी विलुप्त श्रेणी में है। वन ककड़ी की जड़ों का उपयोग कैंसर के उपचार में होता है। घाटी के ऊंचे क्षेत्रों में चरस माफिया द्वारा भांग की खेती के लिए जंगलों में हजारों बीघा वन भूमि में भांग की खेती के लिए वन खोदे जा रहे हैं। पहाड़ों में उगने वाली इन बेशकीमती जड़ी-बूटियों के अस्तित्व पर खतरा पैदा हो गया है।

इन जड़ी-बूटियों में कैंसर तक का इलाज

शोध में पता चला है कि प्रदेश में स्थानीय लोग करीब 500 औषधीय पौधों का इस्तेमाल करते हैं। बहुत से पौधे ऐसे हैं, जिनमें कैंसर के इलाज से लेकर अन्य गंभीर तरह की बीमारियों के इलाज छिपे हुए हैं। दुनिया के कई देश भारत से ये पौधे खरीदते हैं, इनसे दवाइयां तैयार की जा रही हैं और शोध भी चल रहा है। हिमाचल में अतीश, रतनजोत, सालम पांजा, सोमलता, जंगली लहसुन, कुटकी, मनू, धूप, नागछत्री, गुच्छी, कड़ू, कक्कड़ सिंघी, गिलोए, रखाल जैसी कई जड़ी-बूटियां मिलती हैं, जिनका व्यापार भी होता है।

देश में होता है आठ हजार करोड़ से ज्यादा की जड़ी-बूटियों का व्यापार

इंडियन हर्बल मार्केट के अनुसार देश में आठ हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की जड़ी-बूटियों का व्यापार होता है। हिमाचल में जो लोग जड़ी-बूटियां बेचते हैं, वे एक तरह से कच्चे माल की तरह की बेची जाती हैं, जिसके चलते इनकी कम कीमत मिलती है। अगर प्रोसेस करके या वैल्यू एडिशन करके बेची जाएं, तो तीन से चार गुना कीमत मिल सकती है।

खतरे में हैं पौधों की 22 प्रजातियां

वन विभाग के अनुसार हिमाचल में पौधों की 22 प्रजातियां और जानवरों की 16 स्पीशिज खतरे में हैं। प्रदेश में जड़ी-बूटियों की बात करें, तो ऊंचाई वाले इलाकों में मिलने वाली पतीशए मनू, हाथ पांजा, निचले इलाकों में मिलने वाली सालाम मिश्री (चवनप्राश में इस्तेमाल होती है) खतरे में हैं।

जमीन की किस्म बदलकर बेचे जा रहे चाय बागान

हिमाचल प्रदेश में चाय बागानों की बिक्री पर रोक है, बावजूद इसके यहां चाय बागान बेचे गए हैं। यह सिलसिला अभी भी जारी है। चाय बागान की किस्म को बदलकर उसे बेचा जा सकता है, क्योंकि चाय बागान को सीधे रूप से बेचने पर सरकार पर प्रतिबंध लगा रखा है। यहां चाय बागानों पर लैंड सिलिंग एक्ट लागू होता है, जिसके चलते इन्हें बेचा नहीं जा सकता। वर्ष 1972 में बने लैंड सिलिंग एक्ट के दायरे में आने के बाद यहां पूरी तरह प्रतिबंध लग गया, मगर फिर भी लोगों ने अपने चाय बागान की किस्म को बदलकर इसे बेचा है। ऐसे कई मामले वर्ष 1998 के बाद यहां सामने आए हैं, जिसके बाद इस मामले की जांच भी चल रही है। पूर्व सरकार के समय में भी ऐसे लोग जिनके पास हजारों बीघा के चाय बागान हैं, जिन्होंने बेचने की इजाजत मांगते हुए सरकार से आग्रह किया और दबाव भी डाला, मगर राजस्व कानूनों में जो प्रावधान रखे गए हैं, उसके अनुसार इन्हें सीधे रूप से नहीं बेचा जा सकता।

पालमपुर में छावनी क्षेत्र के लिए ही नहीं मिली इजाज़त

पालमपुर एरिया में सेना की छावनी क्षेत्र के लिए चाय बागान को बेचने की इजाजत भी सरकार से मांगी गई है, जो भी आज तक नहीं मिल सकी है। कई तरह का दबाव यहां की सरकारों पर डाला जा रहा है, परंतु कानून आड़े आ रहा है। राजनीतिज्ञ भी चाहते हैं कि अपने लोगों को राहत प्रदान की जाए, लेकिन ऐसा नहीं है।

राजस्व विभाग के पास आंकड़े नहीं

जब चाय बागान को बेचने की इजाजत ही नहीं, तो यह आंकड़ा भी राजस्व विभाग के पास नहीं है कि कितने बागान बिक गए। इसी तर्ज पर राधा स्वामी सत्संग ब्यास के लिए भी जमीन बेचने का मामला चल रहा है, जिसमें उन्हें लोगों ने जमीन गिफ्ट कर रखी है, मगर इसमें भी सरकार इजाजत नहीं दे रही, क्योंकि लैंड सिलिंग एक्ट इस पर भी लागू होता है।

किन्नौर भरमौर चंबा, पांगी में ही मिलता है चिलगोजा

हिमाचल प्रदेश में चिलगोजा केवल किन्नौर, चंबा, पांगी, भरमौर में ही पाया जाता है। किन्नौर जिला में यह 12 से 16 हजार फीट की ऊंचाई पर पाया जाता है, जबकि पूरे विश्व में चिलगोजा केवल अफगानिस्तान और किन्नौर जिला में ही पाया जाता है। किन्नौर के अंदर स्थानीय लोग अपने घरों में आग जलाने के लिए भी चिलगोजे की लकडि़यों का इस्तेमाल करते हैं, जिसके चलते चिलगोजा के अस्तित्त्व पर खतरा भी पैदा हो गया है। हिमाचल सरकार ने चिलगोजा के संरक्षण के लिए बजट का प्रावधान भी किया है। चिलगोजा संरक्षण के लिए प्रदेश सरकार दस करोड़ रुपए खर्च कर रही है। इस राशि से जिले भर में चिलगोजे के नए पौधारोपण करने के साथ-साथ पुराने चिलगोजे के पेड़ों का भी संरक्षण किया जा रहा है। किन्नौर में ठंड से बचाव के लिए लोग चिलगोजा खाते हैं, जिससे भारी बर्फबारी के दौरान ठंड का असर नहीं होता है। अक्तूबर में चिलगोजे की फसल तैयार होती है, जिसके बाद इसे बाजार में बेचने के लिए लाया जाता है। चिलगोजा 1000 रुपए से 1200 रुपए प्रति किलो तक बिकता है।

कृषि विश्वविद्यालय में तैयार हो रहा बीज

प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय में विभिन्न फसलों की उन्नत किस्मों न्यूक्लियस, ब्रीडर और फाउंडेशन बीज तैयार किया जाता है। मौजूदा समय में प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय सालाना सुधरी फसल किस्मों का करीब 900 क्विंटल ब्रीडर बीज तैयार कर रहा है, जिसमें अनाज का छह सौ क्विंटल, दालों का 50 क्विंटल, तिलहनी फसलों का 70 क्विंटल, चारा का 30 क्विंटल और सब्जियों का दस क्विंटल बीज मुख्यतः प्रदेश कृषि विभाग के साथ अन्य एजेंसियों को फाउंडेशन सीड तैयार करने के लिए दिया जाता है। प्रदेश के विभिन्न स्थानों पर स्थित कृषि विज्ञान केंद्र व अनुसंधान केंद्र फाउंडेशन बीज की मात्रा बढ़ाने में कृषि विभाग की मदद करते हैं। कृषि विश्वविद्यालय व कृषि विभाग द्वारा तैयार किए गए फाउंडेशन सीड को बढ़ाकर प्रमाणित बीज तैयार होता है, जिसे प्रदेश के किसानों को बोने के लिए दिया जाता है। प्रदेश की कृषि आधारित भूमि के 70 फीसदी क्षेत्र में प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय के प्रयास से तैयार किया जाने वाला बीज लगाया जाता है, जबकि बाकि 30 प्रतिशत की आपूर्ति निजी क्षेत्रों से की जाती है।

जाईका के साथ मिलकर प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय के 70 हेक्टेयर रकबे में मॉडल वेजिटेबल सीड प्रोडक्शन फार्म स्थापित किए जाने की तैयारी की गई है। इसे लेकर सभी औपचारिकताएं पूरी हो गई हैं और जाईका का दूसरा फेज शुरू होते ही इस फार्म को अमलीजामा पहना दिया जाएगा। इस फार्म की स्थापना से कृषि विविधिकरण में लाभ मिलेगा व उच्च गुणवत्ता का अधिक मात्रा में बीज तैयार किया जाएगा। इससे प्राकृतिक खेती को भी फायदा पहुंचेगा। इसके साथ ही कृषि विश्वविद्यालय के 20 हेक्टेयर क्षेत्र में मॉडल सीड प्रोडक्शन फार्म स्थापित करने के लिए बाहरी संस्थानों से सहायता की बात की जा रही है। इनकी स्थापना से सालाना 800 क्विंटल अतिरिक्त न्यूक्लियस, ब्रीडर व फाउंडेशन सीड तैयार करने का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा।

क्षेत्र के हिसाब से बीज तैयार करते हैं वैज्ञानिक

प्रदेश की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय विभिन्न क्षेत्रों के लिए बीज तैयार करता है, जिससे कि किसानों को कोई नुकसान न हो, लेकिन कई बार किसान निजी क्षेत्रों में गैर प्रमाणित बीज उपयोग में लाता है, जिससे उन्हें नुकसान भी उठाना पड़ता है।

अब तक 155 किस्में की तैयार

प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय किसानों के लिए अब तक 155 सुधरी किस्में विकसित कर जारी कर चुका है। इसके अतिरिक्त 15 अन्य किस्मों को मंजूरी मिल चुकी है, जिन्हें अधिसूचना मिलते ही जारी कर दिया जाएगा। 2020 में 12 फसलों की किस्मों का अनुमोदन भारत सरकार द्वारा भी किया गया है। कृषि विश्वविद्यालय अब तक गेहूं की 24, धान की 23, सब्जियों की 29, तिलहन की 23 व दलहन की 24 सुधरी किस्मों के साथ अन्य फसलों की किस्में जारी कर चुका है।

‘बीज गांव’ योजना भी कमाल

‘बीज गांव’ योजना के तहत प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय अपने कृषि विज्ञान केंद्रों के माध्यम से उन्नतशील किसानों को बीज उत्पादन की जानकारी प्रदान करता है। यूनिवर्सिटी किसानों को बताती है कि विश्वविद्यालय द्वारा अनुमोदित बीज बोएं। यहां उच्च गुणवत्ता की हाइब्रिड डीएनए फिंगर प्रिंटिंग लैब स्थापित की गई है, जिससे कि उच्च गुणवत्ता के बीज ही किसानों तक पहुंचें। तैयार किए जाने वाले बीज को गुणवत्ता की कसौटी पर परख कर किसानों के लिए जारी किया जाता है।

प्रदेश के साथ बाहर भी उगाया जा रहा पालमपुर यूनिवर्सिटी में बना बीज

प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय द्वारा बीजों को लेकर किया गया काम अधिकतर सफलता प्राप्त कर रहा है, जिसका प्रमाण है कि करीब 70 फीसदी कृषि क्षेत्र में विश्वविद्यालय द्वारा तैयार किया गया बीज ही उगाया जा रहा है। प्रदेश से बाहर के क्षेत्रों के लिए भारत सरकार द्वारा प्रमाणित बीज प्रयोग में लाया जाता है और प्रदेश के अनेक क्षेत्रों की जलवायु के आधार पर तैयार किया जाने वाला बीज उन क्षेत्रों के लिए भी लाभदायक रहता है, जहां की जलवायु यहां से मिलती है। प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय सालाना बीज संबंधित कार्यक्रमों पर करीब 40 लाख रुपए खर्च कर रहा है, ताकि विभिन्न फसलों के उन्नत किस्म के बीज किसानों तक पहुंचें और उन्हें लाभ मिल सके।

क्या है ब्रीडर सीड

कृषि विश्वविद्यालय द्वारा गेहूं, सब्जियों व दालों की अनेक किस्मों का ब्रीडर बीज जारी करता है। प्रदेश का कृषि विभाग विश्वविद्यालय से मिलने वाले ब्रीडर सीड को उगाकर इसकी संख्या में इजाफा करता है, जो फाउंडेशन सीड बनता है। फाउंडेशन सीड को एक बार पुनः कृषि विभाग और प्रगतिशील किसानों द्वारा उगाया जाता है। इसके पश्चात बीज को प्रमाणीकरण एजेंसी द्वारा परखा जाता है और यह सर्टिफाइड बीज बन जाता है। यह सर्टिफाइड बीज किसानों को बीजने के लिए बेचा या बांटा जाता है।

दस साल में बढ़ता गया खेती का एरिया

पिछले दस सालों में हिमाचल प्रदेश में खेती करने का एरिया घटा नहीं, बल्कि बढ़ा है। इससे यह तो साफ है कि हिमाचल में कृषि के क्षेत्र में किसानों का रुझान लगातार बढ़ रहा है। विभाग से मिली रिपोर्ट के अनुसार हर साल दस से लेकर 30 प्रतिशत बढ़ोतरी खेतीबाड़ी में दर्ज हुई है। कृषि विभाग की ओर से जारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2010 में हिमाचल में 2899 हेक्टेयर भूमि, 2011 में बढ़कर 65075 हेक्टेयर भूमि में खेतीबाड़ी हुई। इसके साथ ही 2012 में 67968, 2013 में 68865, 2014 में 72001 हेक्टेयर, 2015 में 75233, 2017 में 76947 हेक्टेयर, 2018 में 78686 हेक्टेयर भूमि में किसानों ने विभिन्न फसलों को उगाया है।

इतने एरिया में हुई खेती

वर्ष 2010 में बिलासपुर में 2310 हेक्टेयर चंबा 2991, हमीरपुर 2920, कांगड़ा 7277, किन्नौर 3284, कुल्लू 4709, लाहुल-स्पीति 4098, मंडी 8701, शिमला 10957, सिरमौर, 6963, सोलन 8217, ऊना में 1452 हेक्टेयर जमीन पर खेतीबाड़ी हुई।

2011 — बिलासपुर में 2430, चंबा में 2490, हमीरपुर 2890, कांगड़ा 7349, किन्नौर 3383, कुल्लू 4900, लाहुल-स्पीति 4128, मंडी 9236, शिमला 11153, सिरमौर 7189, सोलन 8454, ऊना में 1473 हेक्टेयर पर खेती हुई।

2012 —  बिलासपुर 2535, चंबा 2950, हमीरपुर 3100, कांगड़ा 7376, किन्नौर 3453, कुल्लू 5290, लाहुल-स्पीति 4164, मंडी 9714, शिमला 11986, सिरमौर 7369, सोलन 8498, ऊना 1533 हेक्टेयर भूमि का इस्तेमाल हुआ।

2013 — बिलासपुर में 2565, चंबा 2990, हमीरपुर 3178, कांगड़ा 7411, किन्नौर 3485, कुल्लू 5410, लाहुल-स्पीति 4155, मंडी 9807, शिमला 12177, सिरमौर 7504, सोलन 8608, ऊना में 1575 हेक्टेयर पर खेतीबाड़ी हुई।

2014 — बिलासपुर में 2693, चंबा में 3160, हमीरपूर 3606, कांगड़ा 8050, किन्नौर 3494, कुल्लु 5594, लाहुल-स्पीति 4213, मंडी 10177, शिमला 12636, सिरमौर 7785, सोलन 8980, ऊना में 1613 हेक्टेयर पर खेती हुई।

2015 — बिलासपुर में 2932, चंबा 3161, हमीरपुर 3794, कांगड़ा 7794, किन्नौर 3499, कुल्लू 5946, लाहुल-स्पीति 4186, मंडी 10729, शिमला 12659, सिरमौर 8130, सोलन 9430, ऊना में 1634 हेक्टेयर पर खेती हुई है।

2016 — बिलासपुर जिला में 3040, चंबा 3225, हमीरपुर 3814, कांगड़ा 8055, किन्नौर 3501, कुल्लू 6046, लाहुल-स्पीति 4220, मंडी 10961, शिमला 12667, सिरमौर 8539, सोलन 9518, ऊना में 1647 हेक्टेयर भूमि खेती के लिए इस्तेमाल की गई।

2017 — बिलासपुर 3121, चंबा 3346, हमीरपुर 3823, कांगड़ा 8267, किन्नौर 3748, कुल्लु 6180, लाहुल-स्पीति 4218, मंडी 10955, शिमला 12669, सिरमौर 8699, सोलन 9636, ऊना में 2285 हेक्टेयर भूमि का इस्तेमाल हुआ।

2018 — बिलासुपर में 3210, चंबा 3375, हमीरपुर 3846, कांगड़ा 8283, किन्नौर 3743, कुल्लु 6337, लाहुल-स्पीति 4650, मंडी 11109, शिमला 12686, सिरमौर 9335, सोलन 9775, ऊना में 2331 हेक्टेयर भूमि पर खेतीबाड़ी हुई।

2019 — बिलासपुर में 3100, चंबा 3265, हमीरपुर 3850, कांगड़ा 8273, किन्नौर 3722, कुल्लू 6240, लाहुल-स्पीति 4867, मंडी 14109, शिमला 14588, सिरमौर 9340, सोलन 9885, ऊना 3332 हेक्टेयर भूमि पर खेती हुई।

2020 — बिलासपुर में 3255, चंबा 3765, हमीरपुर 5055, कांगड़ा 1099, किन्नौर 3744, कुल्लू 7820, लाहुल-स्पीति 6711, मंडी 14209, शिमला 15666, सिरमौर 9540, सोलन 10555, ऊना में 3540 हेक्टेयर भूमि का इस्तेमाल हुआ है।

धारा 118 जैसा कानून…पर जारी रहती है खरीद-फरोख्त

प्रदेश में भले ही धारा 118 जैसा कानून है, बावजूद इसके यहां जमीन की खरीद फरोख्त का सिलसिला चला रहता है। राजस्व विभाग के आंकड़े  चौंकाने वाले हैं। इस संबंध में जो अनुमान राजस्व महकमे का है, उससे साफ है कि राज्य में एक साल में एक लाख के करीब रजिस्ट्रियां जमीन की खरीद-फरोख्त को लेकर होती हैं। जरूरी नहीं कि हर साल इतनी संख्या रहती है, लेकिन अनुमानित यही आंकड़ा है, जिससे साफ है कि हिमाचल में जमीन लेने व बेचने में लोग दिलचस्पी रखते हैं। यहां सबसे अधिक जमीन बेचने व खरीदने के मामले उद्योग क्षेत्रों में सामने आते हैं। जब से हिमाचल को स्पेशल इंडस्ट्रियल पैकेज मिला, तब से यहां जमीन की खरीद-फरोख्त बढ़ गई, जहां अभी भी सिलसिला चल रहा है।

500 से ज्यादा मंजूरियां देती है सरकार

धारा 118 के तहत मंजूरी की ही बात करें, तो 500 से ज्यादा मंजूरियां सरकार देती है। इसमें पांच साल का आंकड़ा देखें, तो पूर्व में एक हजार से ज्यादा अनुमतियां भी सरकार ने अपने कार्यकाल में दी हैं। इसके अलावा यहां लोग जमीन लेने व बेचने में जुटे रहते हैं। इससे कृषि योग्य भूमि पर भी सीधा असर पड़ा है, जहां अब कंकरीट का जंगल लोगों ने खड़ा कर दिया है।

दस साल में नौ लाख रजिस्ट्रियां

राजस्व विभाग के अनुसार दस साल में नौ लाख रजिस्ट्रियां हो चुकी हैं, जिसमें जमीन बेची और खरीदी गई है। इस रेशो के मुताबिक सालाना करीब एक लाख रजिस्ट्रियां अनुमानित हैं। शिमला ग्रामीण की एक तहसील की बात करें, तो यहां करीब तीन हजार रजिस्ट्रियां अनुमानित होती हैं, जबकि  शिमला में 20 हजार रजिस्ट्रियां सालाना का अनुमान लगाया गया है।

यहां है ज़मीनें खरीदने-बेचने की डिमांड

मंडी जिला, कांगड़ा जिला व ऊना जिला में सालाना अनुमानित 30 हजार रजिस्ट्रियां होती हैं, वहीं बद्दी, हरोली, ऊना, डमटाल, इंदौरा, नूरपुर, मनाली व मंडी क्षेत्रों में जमीन बेचने व खरीदने का सिलसिला काफी ज्यादा बताया जाता है। बाहर से आने वाले लोगों को यहां जमीन लेने के लिए धारा 118 की मंजूरी जरूरी है, जो आसानी से नहीं मिलती। इसके तहत केवल निवेश के लिए जमीन मिलती है।

बढ़ानी पड़ी थी तहसीलें-उपतहसीलें

प्रदेश में जमीन की खरीद-फरोख्त ज्यादा होने का इससे भी पता चलता है कि यहां सरकार को तहसीलों व उपतहसीलों की संख्य बढ़ानी पड़ी। छोटे से प्रदेश में इस समय 105 तहसीलें हैं, तो 53 उपतहसीलें भी यहां बन चुकी हैं, ताकि लोगों को राजस्व संबंधी कार्य करने में आसानी और दूरदराज न जाना पड़े।


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