मानसिक विकलांगता और सफलता

By: Feb 11th, 2021 12:06 am

यदि आप एवरेस्ट विजय करना चाहते हैं तो आप सैर करते हुए वहां नहीं पहुंच सकते। परिवर्तन की मानसिक यात्रा हमें सफलता की ओर ले चलती है। यदि हमें जीवन की बाधाओं से पार पाना है और सफल होना है तो हमें इस मानसिक यात्रा में भागीदार होना पड़ेगा जहां हम नए विचारों को आत्मसात कर सकें और किसी भी अवरोध को अवरोध मानने की मानसिक विकलांगता से बच सकें। इसी से हम सफल होंगे, समाज सफल होगा, देश सफल होगा…. 

स्वीडिश मूल के धावक गुंडर हैग एक प्रतिभाशाली धावक थे जो 86 वर्ष की उम्र में सन् 2004 में इस दुनिया से विदा होकर परम धाम की यात्रा पर चले गए। सन् 1940 में उन्होंने धावक के रूप में एक दर्जन से भी ज्यादा नए रिकार्ड बनाए। सन् 1945 में उन्होंने एक ऐसा कीर्तिमान बनाया जो सबके लिए रश्क का कारण बना। उन्होंने 4 मिनट और डेढ़ सैकेंड से कुछ कम समय में एक मील की दूरी तय की। उनके बनाए रिकार्ड की धूम इस कदर थी कि दुनिया ने मान लिया कि यह मानवीय शारीरिक क्षमता की सीमा है और इससे कम समय में एक मील की दूरी तय करना असंभव है। अगले 9 साल तक यह रिकार्ड बरकरार रहा। लेकिन सन् 1954 में एक क्रांति हुई। इंग्लैंड के हैरो में जन्मे सर रोजर गिलबर्ट बैनिस्टर ने 3 मिनट और साढ़े उनसठ सैकेंड से भी कुछ कम समय में यह दूरी पूरी कर दिखाई। सर रोजर गिलबर्ट बैनिस्टर ने जब 6 मई 1954 को आक्सफोर्ड के इफली रोड ट्रैक पर नया रिकार्ड बनाया तो उनके द्वारा लिए गए समय की घोषणा उपस्थित दर्शकों की हर्षध्वनि में डूब गई और लोग सिर्फ  यही सुन सके .. ‘दि टाइम वाज़ थ्री…’ (समय था तीन…)!

सर बैनिस्टर की इस ऐतिहासिक उपलब्धि के बाद एक और चमत्कार हुआ। उनका रिकार्ड सिर्फ  46 दिनों में ही टूट गया तथा एक अन्य धावक ने उनसे भी कम समय में यह दूरी तय कर ली और फिर कुछ ही समय में 26 अलग-अलग धावकों ने 66 बार चार मिनट से कम समय में एक मील की दूरी तय कर ली। यह चमत्कार क्यों हुआ, कैसे हुआ? गुंडर हैग ने जब लगभग चार मिनट में एक मील की दूरी तय की तो एथलीटों, उनके कोचों और मनोवैज्ञानिकों ने यह मान लिया कि यह उपलब्धि मानवीय शारीरिक क्षमता की सीमा है और इससे कम समय में इस दूरी को तय नहीं किया जा सकता। ‘असंभव’ के इस अवरोध के कारण धावकों में एक प्रकार की ‘मानसिक विकलांगता’ ने घर कर लिया और धावकों ने इस रिकार्ड को तोड़ने का प्रयास ही बंद कर दिया। सर रोजर गिलबर्ट बैनिस्टर एक जूनियर डाक्टर थे और उन्होंने न्यूनतम प्रशिक्षण के बावजूद वह इतिहास बनाया था जिसने विश्व भर के लोगों की मानसिकता हमेशा के लिए बदल दी। वे डाक्टर के साथ-साथ धावक भी थे और उन्हें गुंडर हैग के तत्कालीन विश्व रिकार्ड और इससे जुड़े मिथक की जानकारी थी। डाक्टर के रूप में वे हमारे तंत्रिका तंत्र यानी नर्वस सिस्टम की प्रतिक्रियाओं पर शोध कर रहे थे, अर्थात किन स्थितियों में हमारा नर्वस सिस्टम क्या प्रतिक्रिया देता है या दे सकता है और क्या हम इस प्रतिक्रिया को नियंत्रित कर सकते हैं या बदल सकते हैं। रोजर गिलबर्ट का विश्वास था कि चार मिनट की सीमा मात्र एक मानसिक अवरोध है और इसे तोड़ा जा सकता है। वे इस झांसे में नहीं आए कि यह मानवीय शारीरिक क्षमता की सीमा है और इसलिए उन्होंने इस रिकार्ड को तोड़ने के लिए अपने आप को मानसिक रूप से तैयार किया और रिकार्ड तोड़ दिखाया। ‘असंभव’ के अवरोध का मिथक जैसे ही टूटा, कई लोग आसानी से चार मिनट से कम समय में यह दौड़ पूरी करने लगे। जिस उपलब्धि को पहले असंभव मान लिया गया था, वह अब पहुंच के भीतर थी। सफलता उनकी पहुंच में है, इस बात के प्रत्यक्ष उदाहरण ने उन्हें बेहतर रिकार्ड बनाने के लिए प्रेरित किया।

बचपन में मैंने एक रूसी पत्रिका में कहीं पढ़ा था कि रूस के एक मनोवैज्ञानिक ने एक भारोत्तोलक को  मात्र मानसिक प्रशिक्षण देकर अधिक वज़न उठाने के काबिल बना दिया। उनका तरीका बहुत साधारण था। वे अपने शिष्य को कहते थे कि वह वेट-लिफ्टिंग की पूरी प्रक्रिया पहले अपनी कल्पना में पूरी करे। वह कल्पना करे कि उसने वज़न को हाथ लगाया, लोहे के ठंडेपन को महसूस किया, छड़ पर अपनी मुट्ठियों की पकड़ बनाई, गहरा सांस लिया, वज़न को कुछ ऊपर उठाया, एक और गहरा सांस लिया…आदि-आदि। यह सारा काम कल्पना में किया गया। मनोवैज्ञानिक ने अपने शिष्य को सिखाया कि वह कल्पना करे कि उसने वह वज़न उठा लिया है। कल्पना के इस चक्र में यह ध्यान रखा गया कि असल काम की प्रक्रिया के हर छोटे से छोटे चरण को भी कल्पना में पूरा किया जाए, कोई स्टेप छोड़ा न जाए, बल्कि उसे भी कल्पना में साकार होते हुए देखा जाए। इसका परिणाम क्या हुआ? इस मनोवैज्ञानिक के शिष्य ने इतना वज़न उठा लिया कि वह भी एक इतिहास बन गया। यह प्रयोग ‘मानसिक विकलांगता’ से बचने का ऐतिहासिक लेकिन सच्चा उदाहरण है। कहा जाता है कि जब आप किसी सपने के पीछे पागल हो जाते हैं तो सारी कायनात आपका सपना पूरा करने के लिए सक्रिय हो जाती है। यह कोई फिल्मी डायलॉग नहीं है, सच्चाई है जो बाद में फिल्म का डायलॉग भी बन गई। ‘असंभव’ एक ऐसा शब्द है जो हमने अपनी कमज़ोरियों को छुपाने के लिए गढ़ लिया है। दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं है। आदमी जहाज़ खा जाता है, आदमी ऐसा करंट बर्दाश्त कर लेता है जिसके संपर्क में आने मात्र से हमारे हृदय की धड़कन बंद हो सकती है, आदमी अपने शरीर के मुलायम अंगों की सहायता से लोहे को मोड़ सकता है, आदमी असहनीय माने जाने वाले दर्द को सह सकता है। गिन्नीज़ बुक ऑफ  वर्ल्ड रिकार्ड का हर नया संस्करण असंभव माने जाने वाले चमत्कारों से भरा होता है जो हमें याद दिलाता है कि इस दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं है। यह सिर्फ  मानसिक विकलांगता है जो हमारी सफलता के रास्ते का अवरोध है।

हमें यह समझना चाहिए कि परिवर्तन दिमाग से शुरू होते हैं या यूं कहें कि दिमाग में शुरू होते हैं। यह ध्यान देने की बात है कि सोच को बदलना एक प्रणालीगत कार्य है, जो कई चरणों में पूरा होगा। यह असंभव नहीं है, पर आसान भी नहीं है। याद रखिए, सर एडमंड हिलेरी सैर करते हुए एवरेस्ट पर नहीं पहुंचे थे। एवरेस्ट विजय के लिए उन्हें और उनके शेरपा तेनजि़ंग को रास्ते भर ठंडी हवाओं के तूफानों से लड़ना पड़ा था, कष्ट उठाने पड़े थे और बार-बार अपनी जान जोखिम में डालनी पड़ी थी। थोड़ी और आसान भाषा में कहूं तो यदि आप सुगठित शरीर चाहते हैं तो आपको बेनागा व्यायाम करना होगा, अपनी खुराक पर नियंत्रण रखना होगा, समय पर सोना और उठना होगा और अस्वास्थ्यकर आदतों से बचना होगा। मैं फिर दोहराना चाहूंगा कि यदि आप एवरेस्ट विजय करना चाहते हैं तो आप सैर करते हुए वहां नहीं पहुंच सकते। परिवर्तन की मानसिक यात्रा हमें सफलता की ओर ले चलती है। यदि हमें जीवन की बाधाओं से पार पाना है और सफल होना है तो हमें इस मानसिक यात्रा में भागीदार होना पड़ेगा जहां हम नए विचारों को आत्मसात कर सकें और किसी भी अवरोध को अवरोध मानने की मानसिक विकलांगता से बच सकें। इसी से हम सफल होंगे, समाज सफल होगा, देश सफल होगा।

ईमेलः indiatotal.features@gmail.com


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App