वक्त बनाने के लिए खुद को व्यवस्थित करना होता है, अपना आलस्य छोडऩा होता है। सफलता आसान नहीं होती। सफलता अपनी कीमत मांगती है। सफलता आपकी सारी ऊर्जा चाहती है, सारा ध्यान चाहती है। निकम्मा आदमी किसी काम का नहीं। जो आदतन परजीवी बने रहते हैं, दूसरों की मदद के तलबगार बने रहते हैं, वे ही असफल होते हैं। सपनों की पूर्ति के लिए काम करते समय कुछ घबराहट का होना, थोड़ा-बहुत डर, सामान्य सी बात है। और यह वस्तुत: अच्छा है क्योंकि संयमित डर के कारण हम सभी आवश्यक सावधानियां बरतते हैं जिससे असफलता की आशंका कम हो जाती है। मैं इसे संयमित डर कहता हूं
पैसा थोड़ा भी फालतू हो तो सुविधाएं बढ़ जाती हैं, सुविधाएं बढ़ें तो ‘बड़े आदमी’ होने का अहंकार आ ही जाता है, सुविधाएं बढ़ें तो विलासिता ही नहीं, आलस्य भी जीवन का हिस्सा बन जाता है क्योंकि हर काम करने के लिए कोई न कोई सहायक मौजूद है ही। अब जीवन ऐसा है तो यह भी आवश्यक है कि पैसा अधिक हो, अधिक से भी कुछ अधिक हो। पैसा अधिक कमाना है तो जीवन में भागदौड़ बढ़ गई है। हम हमेशा जल्दी में ही हैं। आवश्यक कामों के लिए भी समय नहीं है। परिणाम यह है कि समयाभाव और अहंकार के चलते सबसे करीबी रिश्ते भी टूट रहे हैं। तलाक के ऐसे-ऐसे मामले सामने आते हैं कि दांतों तले उंगली दबानी पड़ जाती है। रिश्तों की टूटन ने भाई को भाई का, बच्चों को मां-बाप का और पति-पत्नी को एक-दूसरे का दुश्मन बना दिया है। शादी के नाम तक से डर लगने लगा है कि पता नहीं जीवन साथी बनने वाला शख्स हमारे जीवन का हंता ही तो नहीं बन जाएगा...
कर्म करो, फल के बारे में चिंतित मत रहो, क्योंकि कर्म का फल क्या होगा, यह अकेले हम पर, हमारी मेहनत पर ही निर्भर नहीं है, बहुत से संयोग शामिल हैं कर्म के फल में। उन संयोगों पर हमारा नियंत्रण नहीं है, इसलिए फल की चिंता में हम अपना फोकस, अपनी शांति और अपना स्वास्थ्य ही गंवाएंगे। मैं फिर दोहराता हूं कि जो कर्म को समझते हैं, उन्हें धर्म को समझने की आवश्यकता नहीं रह जाती। फल की चिंता छोडक़र जब हम कर्म करते हैं तो वह निष्काम कर्म बन जाता है और निष्काम कर्म
गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी अगर हम ऐसा कर सकें तो हम संन्यासी हैं, फिर हमें किसी और बाहरी चिन्ह की या बाहरी दिखावे की आवश्यकता नहीं है। कई बार यह सवाल किया जाता है कि आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत कहां से करें, तो इसका उत्तर बहुत सीधा-सादा है जिसका इशारा संत कबीर जी ने अपनी वाणी में किया है जिसका आसान सरलार्थ ‘कौआ किसका धन हर लेता’ नामक दोहे में समझाया गया है। जब हम सबसे मीठे बोल बोलें, किसी की निंदा न करें, किसी पर क्रोध न करें, किसी का अपमान न करें, न मन से, न वचन से, न कर्म से, तो हम प्रभु का प्यार पाने के काबिल हो जाते हैं। तब हमारा अपना मन ही प्रभु का मंदिर बन जाता है, हमारा हर कर्म ही पूजा हो जाता है। यही यज्ञ है, यही अध्यात्म है, यही परमात्मा तक पहुंचने का प्रामाणिक और सबसे आसान रास्ता है
अब जीवन ही अलग है। मन तो बावरा है ही, मन तो मानता ही नहीं, मन तो मनमानी भी करता ही है। अगर जीवन में कोई कमी हो तो मन हमें भटका सकता है, भटकाता ही है। मन के खेल सचमुच निराले हैं, इससे सावधान रहने की जरूरत है क्योंकि हमें तो यह लगता है कि हम अपने मन की कर रहे हैं, पर यह नहीं समझ पाते कि मन को बेलगाम छोड़ कर हम असल में अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। ऐसे हर मामले में स्पिरिचुअल हीलिंग एक प्रभावी औजार है जो हमें सही रास्ता दिखा सकता है और जी
अपना हर काम यह सोच कर करो कि यह काम परमात्मा के निमित्त है। फिर काम का परिणाम जो भी हो, उसे खुले मन से और खुशी से स्वीकार करो। सफलता मिल जाए तो अहंकार मत करो, और यदि किसी भी कारण से असफलता मिली हो तो उदास हुए बिना, निराश हुए बिना फिर से प्रयत्न में लग जाओ और फल की चिंता परमात्मा पर छोड़ दो। कामना के बिना, लालच के बिना, लोभ के बिना, परिणाम की चिंता के बिना किया गया हर कर्म मानो परमात्मा के लिए किया गया काम है, यह ‘अकर्म’ है, क्योंकि इसमें ‘कर्ता का भाव’ या ‘कर्ता का अहंकार’ नहीं है। परमात्मा के निमित्त किया गया हर काम मानो यज्ञ है। हम दिन भर जो भी करें, परमात्मा के निमित्त करें तो हम कर्म से नहीं बंधते, कर्म के परिणाम से नहीं बंधते और यह ‘अकर्म’ है...
इसके बाद हम जो भी चाहते हों, जैसा भी चाहते हों, उस इच्छा पर मनन करते रहें, उसके बारे में सोचते रहें तो प्रकृति उसे पूरा करने के लिए खुद-ब-खुद रास्ते निकालती है, हमें उन लोगों से मिलने का संयोग बना देती है जो उस इच्छा की पूर्ति में हमारी सहायता कर सकते हैं या हमें मार्गदर्शन दे सकते हैं। इस दौरान हम अगर प्रयत्न जारी रखें तो कड़ी से कड़ी जुड़ती चलती है और हमारे सपने साकार हो जाते हैं। तर्कशील लोगों को यह बेकार की बात लग सकती है, पर यह जी
इसके अलावा एक और बड़ा लक्ष्य हमारे सामने होना ही चाहिए। उस लक्ष्य का जिक्र करने से पहले यह समझना आवश्यक है कि हम जन्म लें, पढ़ें-लिखें, काम करें, बच्चे पैदा करें और मर जाएं, जीवन इतने पर ही समाप्त नहीं होना चाहिए। जिस ईश्वर ने हमें यह जन्म दिया है, हम उनसे एकाकार हो सकें, यह हमारा अंतिम लक्ष्य होना चाहिए। मजेदार बात यह है कि यदि हम आध्यात्मिकता का सहारा लें तो भावनाओं पर नियंत्रण तो आसान होता ही है, जीवन भौतिक रूप से भी सुखमय हो जाता है। हमारे देश में आध्यात्मिकता को लेकर बहुत से भ्रम हैं। सहज संन्यास मिशन हमें यही सिखाता है कि आध्यात्मिकता का मत
सहज संन्यास मिशन की मान्यता है कि हम सरल हो जाएं, सच्चे हो जाएं, निस्वार्थ हो जाएं और प्रेममय हो जाएं तो हम संन्यासी हो गए। उसके लिए घर, परिवार, समाज, मित्र, रिश्तेदार, व्यवसाय या नौकरी छोडऩे की आवश्यकता नहीं है, किसी खास तरह के कपड़े पहनने की आवश्यकता नहीं है। गेरुए वस्त्र पहन कर हम लोगों को बताते हैं कि हम संन्यासी हैं, गृहस्थ संन्यास में रहकर हमें कुछ भी बताने, समझाने या घोषणा करने की भी आवश्यकता नहीं है। यहां तो सिर्फ खुद को समझाने और फिर खुद को समझने की आवश्यकता है। संन्यास इसी में पूरा हो जाता है। परमात्मा तक पहुंचने के कई रास्ते हैं।
अध्यात्म की असली सीढ़ी निश्छल प्रेम है। हर किसी से प्रेम, बिना कारण, बिना आशा के हर किसी से प्रेम। मानवों से ही नहीं, पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों से भी प्रेम, जीवित लोगों से ही नहीं, जीवनरहित और जड़ मानी जाने वाली चीजों से भी प्रेम। एक बार जब हम प्रेममय हो गए तो आध्यात्मिकता की गहराइयों में, या यूं कहिए कि ऊंचाइयों में जाने के काबिल हो जाते हैं। यह अध्यात्म की सबसे ऊंची पायदान है। अक्सर लोग पूछते हैं कि भगवान के होने का क्या प्रमाण है? हमारे शहर में जब भूमिगत तारें और पाइप डाले जा रहे थे, उसी दौरान एक व्यक्ति ने पूछा कि खुदा कहां है, तो किसी ने मजाक में कहा कि आओ देख लो सारा शहर ही खुदा है। लंबे-चौड़े तर्क-वितर्क में पड़े बिना सिर्फ यही कहना काफी है कि परमात्मा ऊर्जा है जिसे अनुभव किया जा सकता है...