साहित्यिक जमीन के खसरा-खतौनी की तरह ‘मुंडू’

By: Feb 28th, 2021 12:04 am

जब राष्ट्र राजधानी दिल्ली के बगल में फंसे किसान आंदोलन को देख रहा है, ठीक इसी समय हिमाचली मिट्टी की सौंधी खुशबू में लिपटे उपन्यास ‘मुंडू’ को लेकर त्रिलोक मेहरा हाजिर हैं। आधुनिक हिमाचल का शारीरिक और बुनियादी गठन करता लेखक दरअसल प्रेमचंद सरीखा हो जाता है तथा वहीं उपन्यास की यात्रा अपनी पृष्ठभूमि चुनते हुए उसी तपती रेत से होकर गुजरती है, जहां सदियों से बेडि़यां पहन कर कोई खेती करते हुए भी अपने पेट की गांठें नहीं खोल पाया। भूमि सुधार कानून के ताने-बाने में लिपटा विषय ‘मुंडू’ की शक्ल में उभरता है, तो यह सामाजिक दर्पण के टूटते यथार्थ में पर्वतीय जीवन का दर्द भरा और घायल चित्रण करता है। ‘मुंडू’ शब्द की भयावह आर्थिक परिस्थितियां हिमाचल के उस भूभाग को पूर्व में पंजाब के पर्वतीय हिस्से में डाल देती हैं, जो अब मौजूदा हिमाचल प्रदेश में होने की बख्शीश सरीखा नजर आता है। मुंडू होने के जख्म तो महसूस किए जा सकते हैं, लेकिन उपन्यास दो वर्गों के बीच मानसिक दूरियों का वृत्तांत है।

सामाजिक सशक्तिकरण के बीच जमीन और जमीर को मापने की कोशिश और आजाद भारत में आजादी को रेखांकित करते संघर्ष की दास्तान। पंजाब पुनर्गठन से निकली आहों के बीच जमीन के अधिकारों का क्रंदन। यहां एक बड़ा जमींदार अपने भेष बदल-बदल कर आ रहा है, लेकिन उसकी चिकनी चुपड़ी काश्तकारी में फिसलता कृषक मजदूर (पाहू) सीधा खड़ा होना चाहता है। राजनीतिक गलियारों की भद्दी आशंकाओं को समेटे गठरी सा आम आदमी। वर्षों से धूप में जलता और मिट्टी से खेलता बेजुबान आदमी यकायक कैसे एक बड़े आंदोलन का पात्र बनता है, इसे त्रिलोक मेहरा उपन्यास की उनतीस शाखाओं से चुनते हैं। जमीन की दरारों से झांकती पाहू की जिंदगी और ठिगने कदमों से चलती काश्तकारी की व्यवस्था के बीच ‘मुजारे का सही-गलत इस बात पर निर्भर करता कि वह ‘बझिए’ के लिए जमीन की उर्वरता पिरोकर भी अपनी संवेदना के बांझपन से मुक्त न हो।’ पाहू की दिनचर्या का पसीना चूसती जमीन, भावनाओं का रेगिस्तान भी तो है। जमीन के टुकड़े की संगत में बसा मुजारा अपने पेट की आग के लिए ‘कृषि आर्थिकी’ का बंधुआ मजदूर है, इसलिए जमींदार के पशुधन के लिए चारा और परिवार के लिए खाना उपलब्ध कराना है। लेखक त्रिलोक मेहरा ने इस उपन्यास की पृष्ठभूमि को वर्षों जिया और ढोया है। यह जमीन पर क्रांति के छुपे हुए उद्घोष सरीखा लेखन माना जा सकता है जिसके बीचोंबीच, परंपराओं और किस्सों की हिफाजत भी हुई है। कुछ भाषायी प्रयोग इस तरह भी हैं कि उपन्यास अपनी विशिष्ट धारा बना देता है, ‘लेकिन जब से पटवारी की जरेब वहां पड़ी, घराट नरपत की जमीन में आ गया था। घराट अपने आगे-पीछे खड्ड के तंग मोड़ों के बीच रगड़-रगड़ की गहरी धुन में खड़े टीलों को जगाता था।’ उपन्यास के उनतीस भाग एक तरह से साहित्यिक जमीन के खसरा-खतौनी बन गए हैं।

सामाजिक लकीरों के घनत्व में खेती की कसक, कसौटी, करवटें और दूसरी तरफ इसकी जड़ों से रिसता दर्द, मानवीय विकास के बावजूद आजाद होने का जमीनी संघर्ष कैसे बनता है, यह उपन्यास की कोख का एहसास भी है। लेखक ने राजनीति पर तीखी टिप्पणियों की छूट में व्यवस्था का मैला आंचल धोने की कोशिश की है, तो कानून की जद में आई जमीन पर बागबान और कृषक के बीच भेद का आधार खोजते यह प्रश्न भी उठाया, बागीचे तो लैंड सीलिंग में आए नहीं, लेकिन कृषि भूमि का सारा ताना-बाना बदल गया। यहां राजधानी की दूरियां मापते विधायकों के किस्सों के साथ-साथ, शिमला की सियासी हस्ती में प्राकृतिक शालीनता का वर्णन है, तो मंदिरों की दौलत में देवता के नाबालिग होने का आश्चर्य भी प्रकट होता है। उपन्यास नए हिमाचल की बुनियाद रखने सरीखा वर्णन है और इसलिए उन कदमों की आहट सुनता है जो कभी पंजाब के साथ कदमताल करते पर्वतीय क्षेत्र कहलाते थे और हिमाचल में मिलते ही पझौता आंदोलन से ‘लूण लोटा’ की धरती पर संघर्ष करता है। लेखक नए-पुराने हिमाचल के मिलन में सांस्कृतिक उजास के बिंदुओं का स्पर्श करता है, तो बोलियों के संगम पर दूर होती पंजाबी भाषा की पृष्ठभूमि में, ‘खाणा पीना नंद लैणा ओ गंबरिए’ के रंग में सैरी पर्व मनाने के नए संयोग को अलंकृत करता है। उपन्यास के भीतर कहानियों का मंथन शोर मचाता है और मालिक-मुजारा के संघर्ष कुछ इस तरह उभरते हैं, ‘जमीन के लिए लड़ाई शामलात में लगे वृक्षों पर अधिकार तक आ गई। मुजारे जुड़वां पेड़ों से भी पूछते, उन्हें किसका समझा जाए।’ अधिकार कैसे जन्म लेते हैं और समाज के भीतर वर्षों से अंधेरी कोठरी में छुपे प्रश्न कैसे बाहर आते हैं, इसका चित्रण करते त्रिलोक मेहरा उपन्यास को काफी हद तक दस्तावेजी बना देते हैं। यहां पाठक भी खुद को कभी काश्तकार के पाले में महसूस करेगा, तो अगले ही पल वह किसी मुजारे या पाहू की तरह जीवन के संघर्ष के बाहुपाश में खड़ा होगा। लेखक ने विषय की व्यापकता में संघर्ष के कई नायक पैदा किए हैं, तो उनके समर्थन में संस्कृति भी पहाड़ी गीतों के माध्यम से अंगीकार हुई है। सामाजिक कड़वाहट के बीच जमीनी अधिकार की मिसरी घोलता उपन्यास कई तथ्यपरक टिप्पणियां करता है। अपने ही वजूद में कांटों से खेलना और अतीत की पीड़ा से बाहर निकलना ‘मुंडू’ हो जाना है या नए अधिकारों ने पुराने ‘मुंडू’ को छोड़ दिया है, इस प्रश्न का स्वतंत्र उत्तर ही उपन्यास का सारांश हो सकता है।

 -निर्मल असो


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