शहनाज़ की निजी जिंदगी में दखल नहीं

By: Feb 13th, 2021 12:20 am

जीवन एक वसंत/शहनाज हुसैन

किस्त-63

सौंदर्य के क्षेत्र में शहनाज हुसैन एक बड़ी शख्सियत हैं। सौंदर्य के भीतर उनके जीवन संघर्ष की एक लंबी गाथा है। हर किसी के लिए प्रेरणा का काम करने वाला उनका जीवन-वृत्त वास्तव में खुद को संवारने की यात्रा सरीखा भी है। शहनाज हुसैन की बेटी नीलोफर करीमबॉय ने अपनी मां को समर्पित करते हुए जो किताब ‘शहनाज हुसैन : एक खूबसूरत जिंदगी’ में लिखा है, उसे हम यहां शृंखलाबद्ध कर रहे हैं। पेश है 63वीं किस्त…

-गतांक से आगे…

जस्टिस बेग ने मामले को वहीं छोड़ने का निर्णय लिया। आखिरकार वह एक हद से ज्यादा अपनी बेटी की निजी जिंदगी में दखल नहीं दे सकते थे। मेरी मां को अपने शौहर को समझाने में कुछ महीने लगे और वह अपनी जड़ों और अपने बालदैन को छोड़कर नए भविष्य की आस में जाने को तैयार हो गए। दरअसल एक बार जब उनके दिमाग में यह बात घर कर गई, तो वह बदलाव को लेकर बेहद रोमांचित हो गए। हालांकि उन्हें अपने अब्बा को समझाने में बहुत सी रुकावटों को पार करना पड़ा कि वह बस उनसे रातभर के सफर की दूरी पर जा रह थे, कि वह जब भी बनेगा लखनऊ आते रहेंगे। जिंदगी में किसी भी अन्य भूमिका से ज्यादा वह, काबिल बेटे की भूमिका के प्रति समर्पित थे। अब उन्हें यूं छोड़कर जाना उनके लिए आसान न था। मेरी मां के साथ-साथ यह उनके लिए भी एक बदलाव का सफर था और मॉम को पूरा यकीन था कि जल्द ही वह अपने खानदानी खोल से बाहर आकर जिंदगी का पूरी तरह लुत्फ लेने को तैयार हो जाएंगे। जब नासिर की नियुक्ति उस समय के सबसे आधुनिक पब्लिक सेक्टर, स्टेट ट्रेडिंग कारपोरेशन नई दिल्ली में हुई ,तो फिर तो समारोहों का दौर चल पड़ा। राजधानी की ओर जाने वाली गाड़ी, गर्मी की छुट्टियां मनाने आई भीड़ से लबालब थी। शहनाज और नासिर ने खिड़की से हाथ निकालकर अपने परिवार से विदा ली। स्टेशन मास्टर ने तीखी सीटी बजाई, इंजन घुरघुराया, पहिए घूमे और जल्दी ही टे्रन ने अपनी रफ्तार पकड़ ली। शहनाज आराम से बैठ गईं, उनके चेहरे पर मुस्कान थी और आंखों में सपने।

वह जान रही थीं कि यह महज लखनऊ से दिल्ली का सफर नहीं, बल्कि जिंदगी के एक पड़ाव से दूसरे की ओर जाने का कदम है। एक पक्षी की तरह, जो अपनी पहली उड़ान पर अपने पंख देर तक फड़फड़ाता है और फिर अपनी किस्मत का सामना करते हुए जमाने से लड़ने को तैयार हो जाता है। 60 के दशक में दिल्ली एक शहरी गांव हुआ करती थी। बेतरतीबी में फैली हुई भीड़ मानो तेजी से रिहायशी कालोनियां की ओर बढ़ रही थी। लखनऊ के नजाकत भरे जीवन के आगे दिल्ली कहीं नहीं ठहरती थी। शुरुआती दिनों में हमें अपने साथियों और रिश्तेदारों की कमी बेहद खलती थी। नए शहर में रमने में हमें काफी वक्त लगा। हमारा नया घर ई-117 ग्रेटर कैलाश पार्ट-एक शुरुआत में इसलिए चुना गया था, क्योंकि डिफेंस कालोनी रेलवे लाइन की अपेक्षा यहां किराया कम था। आसपास दूर-दूर में ही कोई घर बना हुआ दिखाई पड़ता था और खाली पड़ी जमीन, इसे अलग-थलग और उजाड़ जगह घोषित करती थी। रातों को मुझे लखनऊ की चैन की नींद बहुत खलती थी, जब कालोनी का चौकीदार रात की गश्त लगाते हुए सीटी बजाता था। रात को डाकुओं के घुस आने का ख्याल मुझे बहुत सताता था। कई बार मम्मी मुझे अपने बिस्तर पर ले जाकर यकीन दिलाती थीं कि मुझे कुछ नहीं हुआ है।


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