पंजाब का राजनीतिक संदेश

वर्तमान किसान आंदोलन में भी आम आदमी पार्टी की यही भूमिका है। उन्हें आशा थी कि किसान आंदोलन को समर्थन की आड़ में वे पंजाब में प्रभावी पार्टी बन कर उभरेंगे जिसका लाभ आने वाले विधानसभा चुनावों में लिया जा सकेगा। लेकिन पंजाब के लोगों ने शायद आम आदमी पार्टी को यह ख़तरनाक खेल खेलने की अनुमति नहीं दी। पार्टी को कुल 57 सीटें मिलीं। अब प्रश्न भारतीय जनता पार्टी का। पार्टी को कुल 47 सीटें मिलीं। वह अपने प्रभाव क्षेत्रों यानी अबोहर, फाजिल्का, होशियारपुर, बटाला इत्यादि में भी बुरी तरह पिट गई। सब से पहले तो यह कि कई दशकों के बाद भारतीय जनता पार्टी अकाली दल से नाता तोड़ कर अपने बलबूते चुनाव लड़ रही थी। दूसरे किसान आंदोलन का सबसे ज्यादा दंश भारतीय जनता पार्टी को ही झेलना पड़ रहा है…

पंजाब के शहरी और अर्धशहरी स्थानीय निकायों के चुनाव के नतीजे आ गए हैं। इस चुनाव में सात नगर निगमों में भी मतदान हुआ था। कुल मिला कर 110 शहरों व कस्बों की नगरपालिकाओं के लिए चुनाव हो रहे थे। सभी स्थानों को मिला लिया जाए तो 2165 वार्डों के लिए चुनाव हो रहा था। चुनाव मैदान में मुख्य रूप से चार राजनीतिक दल हिस्सेदारी के लिए लड़ रहे थे। सरकार चला रही कांग्रेस और उसका स्थान लेने के लिए तैयारियां कर रही अकाली दल, भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी। इसके सिवा बहुजन समाज पार्टी, अनेक प्रकार की कम्युनिस्ट पार्टियां भी अपने-अपने उम्मीदवारों को लेकर यहां तहां घूम रही थीं, लेकिन अब पंजाब की राजनीति में वे सभी हाशिए पर ही रहती हैं। यह चुनाव उस समय हो रहा था जिस समय किसान आंदोलन अपने पूरे उफान पर है। पंजाब तो इसका केंद्र ही है। 26 जनवरी को आंदोलन के नाम पर जिस प्रकार कुछ संगठनों ने दिल्ली में किया, उससे अंदेशा था कि पंजाब में एक बार रेडिकल्स फिर से उभार पर आ रहे हैं और इसका असर शायद इन चुनावों पर भी पड़े। लेकिन यदि सचमुच रेडिकल्स उभार पर हों तो उसका लाभ किस संगठन को मिल सकता था, इसकी चर्चा में आम आदमी पार्टी का नाम ही सबसे ज़्यादा लिया जाता था। एक प्रश्न और भी चर्चा में था कि अकाली दल ने चार साल पहले जन विरोध के चलते जो सत्ता गंवा दी थी, क्या वह पंजाब में अपनी खोई ज़मीन प्राप्त करने के रास्ते पर चल पड़ा है। ख़ासकर अपने गढ़ मालवा में।

इन प्रश्नों का उत्तर जान लेने से पहले चुनाव परिणामों पर एक दृष्टि डाल लेना लाभदायक होगा। स्थानीय निकाय के इन चुनावों में कांग्रेस ने कुल 2165 सीटों में से 1484 सीटें जीतीं। अकाली दल के हिस्से 294 सीटें आईं। उसके बाद आम आदमी पार्टी को 57 सीटें मिलीं और भारतीय जनता पार्टी को केवल 47 सीटें मिलीं। वैसे भाजपा ने कुल एक हज़ार सीटों पर ही अपने उम्मीदवार खड़े किए थे। इसमें तो कोई शक ही नहीं कि कम से कम शहरी व कस्बाई पंजाब ने कैप्टन अमरेंद्र सिंह के पक्ष में मतदान किया है। लेकिन यह कांग्रेस के पक्ष में भी है या नहीं, इस पर पंजाब में लंबे अरसे तक विवाद चलता रहेगा। या यों कहना चाहिए कि चल ही पड़ा है क्योंकि कैप्टन कभी भी सोनिया-राहुल-प्रियंका की लिस्ट में नहीं रहे। यह तिकड़ी अभी भी पंजाब कांग्रेस में नवजोत सिंह सिद्धु को स्थापित करने में लगी हुई है। लेकिन आखिर पंजाब के शहरी मतदाताओं ने कैप्टन के पक्ष में मतदान क्यों किया? इसका सीधा सा कारण यही है कि कैप्टन के बारे में लोगों को विश्वास है कि वे पंजाब में उग्रवादियों के खिलाफ डट कर खड़े हैं। उनकी यह लड़ाई केवल राजनीतिक लाभ-हानि के लिए नहीं है, बल्कि यह उनके सिद्धांत व आस्था से उपजी है। वर्तमान किसान आंदोलन में भी चाहे वे अपने राजनीतिक लाभ-हानि को देखते हुए इसका समर्थन ही नहीं कर रहे, बल्कि इसे हवा भी दे रहे हैं, लेकिन जब आंदोलन में रेडिकल्स के प्रवेश या प्रभाव की बात आती है तो वे इसका विरोध करते हैं।

 जहां तक अकाली दल का प्रश्न है, उसने पंजाब में अपनी विश्वसनीयता खो दी है। कुछ साल पहले इसकी शुरुआत पंजाब में नशों के प्रचलन से जुड़ी बातें के कारण हुई थी जिसके असर से अकाली दल अभी तक उभर नहीं सका। यही कारण है अपने गढ़ बठिंडा में उसने नगर निगम की सरदारी पचास साल तक संभाले रहने के बाद भी कांग्रेस के हाथों गंवा दी। किसान आंदोलन का समर्थन करने के बावजूद दल लोगों में भविष्य में अपने अच्छे आचरण का विश्वास नहीं जमा सका। वैसे कहा जा सकता है कि अकाली दल का मुख्य आधार पंजाब के गांवों में है, न कि शहरों और क़स्बों में। उसने इसके बावजूद शहरों व क़स्बों में तीन सौ के आसपास सीटें जीत ली हैं। वह भी तब जब उसका भारतीय जनता पार्टी से समझौता टूट चुका है। यह मानना पड़ेगा कि अकाली पार्टी का स्ट्रक्चर बरकरार है, उसे बहुत ज़्यादा नुक़सान नहीं पहुंचा है। आम आदमी पार्टी पर पंजाब में पहले भी यह आरोप लगता रहा है कि वह रेडिकल्स की सहायता से पंजाब की सत्ता प्राप्त करना चाहती है। सैद्धांतिक तौर पर आम आदमी पार्टी अलगाववाद की समर्थक नहीं है, इसमें भी कोई शक नहीं। इसका अर्थ यह हुआ कि आम आदमी पार्टी केवल सत्ता प्राप्त करने के लिए रेडिकल्स को, यदि अंग्रेज़ी में कहा जाए तो यूज करना चाहती है। लेकिन क्या रेडिकल्स इतने मूर्ख हैं कि आम आदमी पार्टी उनको ‘यूज’ कर जाए! ऐसा नहीं है। रेडिकल्स जानते हैं कि पंजाब के लोग उनके साथ नहीं हैं, इसलिए वे कभी पंजाब में सत्ता में नहीं आ सकते। लेकिन वे आम आदमी पार्टी को इस काम के लिए ‘यूज’ करते हैं।

वर्तमान किसान आंदोलन में भी आम आदमी पार्टी की यही भूमिका है। उन्हें आशा थी कि किसान आंदोलन को समर्थन की आड़ में वे पंजाब में प्रभावी पार्टी बन कर उभरेंगे जिसका लाभ आने वाले विधानसभा चुनावों में लिया जा सकेगा। लेकिन पंजाब के लोगों ने शायद आम आदमी पार्टी को यह ख़तरनाक खेल खेलने की अनुमति नहीं दी। पार्टी को कुल 57 सीटें मिलीं। अब प्रश्न भारतीय जनता पार्टी का। पार्टी को कुल 47 सीटें मिलीं। वह अपने प्रभाव क्षेत्रों यानी अबोहर, फाजिल्का, होशियारपुर, बटाला इत्यादि में भी बुरी तरह पिट गई। सब से पहले तो यह कि कई दशकों के बाद भारतीय जनता पार्टी अकाली दल से नाता तोड़ कर अपने बलबूते चुनाव लड़ रही थी। दूसरे किसान आंदोलन का सबसे ज़्यादा दंश भारतीय जनता पार्टी को ही झेलना पड़ रहा है। तीसरा आंदोलन का लाभ उठा कर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने भाजपा चुनाव प्रचार कर ही न सके, इसलिए कार्यकर्ताओं के घरों का घेराव करने का अभियान चला रखा था। कहा जाता है कि पंजाब पुलिस भी इस काम में उनकी प्रत्यक्ष या परोक्ष मदद करती थी। इसलिए भाजपा हाशिए पर चली गई। भाजपा नेता हरजीत सिंह ग्रेवाल, जिसे किसान आंदोलन में सबसे ज़्यादा विरोध झेलना पड़ रहा है, के अनुसार विपरीत परिस्थितियों में भी भाजपा ने अपने चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ा और कार्यकर्ता कहीं भी सरकारी दमन के बावजूद पस्त नहीं हुआ, यह सबसे बड़ी उपलब्धि है। उनके अनुसार भाजपा का मूल ढांचा यानी कार्यकर्ताओं का नेटवर्क शत-प्रतिशत बरकरार है।

ईमेलः kuldeepagnihotri@gmail.com


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