संत रविदास की शिक्षाएं आज भी प्रासंगिक

मन सदैव सुगमता से प्राप्त होने वाली वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए लालायित रहता है, भक्ति का मार्ग कठिन होता है, इसलिए वह इससे दूर भागना चाहता है। माया के प्रभाव में पड़कर यह लुभावने दिखाई देने वाले विष तुल्य सांसारिक विषयों को सुख का साधन मान लेता है और उनकी ओर आकर्षित होता है…

सभी संत-महात्माओं का, चाहे वे किसी भी काल या देश में क्यों न आए हो, एक ही संदेश संसार के नाम होता है। सच्चे संत जाति, पंथ, संप्रदाय, रंग-रूप, देश और धर्म के बनावटी भेदों से सदैव ऊपर होते हैं। संतों का इस संसार में आने का उद्देश्य कोई नया धर्म या संप्रदाय स्थापित करना नहीं होता। वे तो आवागमन के चक्र में पड़े तथा परमात्मा से बिछुड़े जीवों को जन्म-मरण से छुटकारा दिलवाने का प्रयास करते हैं। संत रविदास, जिनकी 27 फरवरी को जयंती है, ने भी हमें इस बात को याद दिलवाने का प्रयास किया है कि यह मनुष्य जन्म हमें अनेक जन्मों के पुण्यों के उपरांत प्राप्त हुआ है तथा परमात्मा से मिलाप करना इस जीवन का मुख्य ध्येय होना चाहिए।

अतः इस मनुष्य जीवन को प्राप्त करने के बाद भी यदि हम सांसारिक दलदल में फंसे रह जाते हैं और परमात्मा की प्राप्ति की राह पर आगे नहीं बढ़ते तो यह जीवन व्यर्थ ही समाप्त हो जाएगा : ‘नैन उघरि न पोषियो, तुझ मानुष जन्म किह लेखा रे, पांउ पसार किमि सोई परयौ, तैं जनम अकारथ खोया रे।’ अर्थात हे मानव, तुम्हें अमूल्य मनुष्य जन्म मिला है, किंतु तुमने इसकी कीमत को नहीं जाना, तुमने इसके सही उद्देश्य को नहीं पहचाना। संत रविदास जी ने संसार के उन समस्त लोगों को चेताया है जो सांसारिक विषयों में पड़कर परमात्मा की प्राप्ति के अनमोल अवसर को खो देते हैं। ऐसे मनुष्य सच्चे हीरे को छोड़कर कौड़ी के लोभ के पीछे भागते रहते हैं : ‘हरि सा हीरा छाडि़ कै, करै आन की आस। ते नर जमपुर जांहिगे, सत भाषे रविदास।’ जिस परमात्मा की हमें खोज करनी चाहिए और जो हमारे जीवन का परम लक्ष्य होना चाहिए, वह समस्त संसार में एक ही है। परमात्मा जाति, संप्रदाय, रंग-रूप, देश और धर्म के भेदों से परे है, उसकी भक्ति का अधिकार सभी को है : ‘जन्म जात मत पूछिए, का जात अरू पात। रविदास पूत सभ प्रभ के कोउ नहिं जात कुजात।’ रविदास जी का मानना है कि हम सभी एक ही निराकार परमात्मा की संतान हैं।

इसी कारण सभी जन्म से एक समान हैं। जाति-पाति का भेदभाव मनुष्य द्वारा उत्पन्न किया गया है। हम सभी छोटे या बड़े अपने कर्मों के कारण ही बनते हैं, कोई जाति, परिवार, धर्म हमें छोटा-बड़ा बनाकर पैदा नहीं करता। ये तो अहंकारी छवि वाले मनुष्यों द्वारा जाति-पाति का भेदभाव उत्पन्न किया जाता है : ‘रविदास उपजइ सभ इक नूर तें, ब्राह्मन मुल्ला सेख। सभ को करता एक है, सभ कूं एक ही पेख।’ रविदास जी ने तत्कालीन ब्राह्मण समाज पर करारा प्रहार किया था जो अध्यात्म के नाम पर अपनी पूजा करवाने की बात करते थे तथा सामाजिक भेदभाव को उत्पन्न करने में जिनका बड़ा योगदान रहा था। उन्होंने गुणहीन ब्राह्मण की अपेक्षा गुणवान चांडाल को श्रेष्ठ माना है : ‘रविदास बाह्मन मति पूजिए जउ होवै गुनहिन। पूजिहिं चरन चंडाल के, जउ होवै गुन परवीन।’

संत रविदास जी ने परमात्मा की प्राप्ति के लिए मनुष्य जन्म को ही सर्वोपरि माना है जिसे मनुष्य चौरासी लाख योनियों के बाद प्राप्त करने में सफल हो पाता है। मनुष्य जीवन की सार्थकता सिद्ध करते हुए उन्होंने कहा है कि ईश्वर प्राप्ति तो केवल मात्र मनुष्य जन्म में ही संभव है और प्रत्येक मानव शरीर में बसी आत्मा परमात्मा को अपने अंदर ही प्राप्त कर सकती है। उसे प्राप्त करने के लिए जंगलों, पहाड़ों, तीर्थ स्थलों पर जाकर ही प्राप्त नहीं किया जा सकता, उसे प्राप्त करने के लिए बाहरी खोज व्यर्थ है। वह तो प्रत्येक छोटे-बड़े, निर्धन-धनी के अंदर समाया है। केवल मात्र आंतरिक ज्योति को जगाने की आवश्यकता है। संत रविदास जी ने बाह्यि पाखंडों का खंडन किया है। उनका मानना है कि भिन्न-भिन्न प्रकार के वस्त्र धारण करने, शरीर पर भभूत लगाने आदि से परमात्मा को धोखा नहीं दिया जा सकता और न ही उसे बाह्यि साधनों द्वारा प्रसन्न किया जा सकता है। जो लोग इस प्रकार के ढोंग में रत रहते हैं, वे अपने और परमात्मा के मध्य एक दीवार खड़ी कर देते हैं। वे स्वयं भ्रम का शिकार होते हैं और दूसरों को भी भ्रम में डालते हैं। ऐसे बाह्यि आडंबर करने से परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती : ‘माथै तिलक हाथ जप माला, जग ठगने कूं स्वांग बनाया। मारग छांडि कुमारग डहके, सांची प्रीत बिनु राम न पाया।’ संत रविदास जी ने नाम के महत्त्व को स्वीकार किया है। उनका मानना है कि नाम के द्वारा ही ईश्वर से हमारा मिलाप संभव हो पाता है।

हालांकि परमात्मा सर्वव्यापी है और वह हम सबके अंदर विराजमान रहता है, किंतु उस परमात्मा को प्राप्त करने में नाम ही सहायक होता है। संत रविदास जी ने परमात्मा की सच्ची भक्ति करने के लिए तथा परमात्मा के प्रति सच्चा प्रेम उत्पन्न करने के लिए संतों एवं उनके भक्तों की संगति को अनिवार्य माना है। हमारी आध्यात्मिक उन्नति साधु-संतों की संगति और उनके सत्संग पर निर्भर करती है। आध्यात्मिक उन्नति करने के लिए आत्मा का परमात्मा के प्रति प्रेम अनिवार्य माना गया है। संत रविदास जी ने इस बात को भी बहुत ही स्पष्टता से व्यक्त किया है, जब तक मनुष्य परमात्मा द्वारा बनाए गए जीवों का वध करते रहेंगे तथा उनका मांस खाते रहेंगे, तब तक हम परमात्मा को कभी भी प्राप्त नहीं कर सकते। मांसाहार से हम अपने कर्मों के बोझ को और अधिक बढ़ा देते हैं, जिस कारण से परमात्मा को प्राप्त करना हमारे लिए असंभव हो जाता है : ‘रविदास जीव कूं मारि कर, कैसो मिलहिं खुदाय। पीर पैगंबर औलिया, कोउ न कहइ समुझाय।’ संत रविदास जी ने मन को आध्यात्मिक उन्नति में सबसे बड़ा बाधक माना है। मन सदैव सुगमता से प्राप्त होने वाली वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए लालायित रहता है, भक्ति का मार्ग कठिन होता है, इसलिए वह इससे दूर भागना चाहता है।

माया के प्रभाव में पड़कर यह लुभावने दिखाई देने वाले विष तुल्य सांसारिक विषयों को सुख का साधन मान लेता है और उनकी ओर आकर्षित होता है। जब तक मन स्थिर नही होता, तब तक यह आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर सकता। मन स्वाद का शौकीन है और वह निरंतर सांसारिक विषयों का पीछा करता रहता है। संत रविदास जी की शिक्षाएं आज भी प्रासंगिक हैं। उनके द्वारा दी गई सीख को अपनाकर आज का नैतिक पतन की ओर जा रहा समाज, अपना हित कर सकता है। संत रविदास जी की जयंती पर हमें शपथ लेनी चाहिए कि हम उनके द्वारा दिखाए गए मार्ग का अनुसरण करेंगे।


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