वजूद से लड़ती परंपरागत फसलें

यदि शुद्ध हिमाचली भुट्टे (मक्की) की लज्जत व अन्य पहाड़ी लजीज व्यजनों का जायका कायम रखना है तो परंपरागत फसलों को बचाकर इनके संरक्षण की पैरवी करनी होगी…

हिमाचल प्रदेश की आर्थिकी में कृषि, बागबानी तथा पशुपालन व्यवसाय का विशेष महत्त्व व योगदान रहा है। राज्य की लगभग 90 प्रतिशत ग्रामीण आबादी का एक बड़ा हिस्सा अपने पुश्तैनी व्यवसाय कृषि व बागबानी से जुड़ा है। राज्य में प्रतिवर्ष कई किस्मों के सेब, आम व अन्य फलों के साथ सब्जियों के उत्पादन में इजाफा हो रहा है, लेकिन इसके साथ प्रदेश अपने सदियों पुराने कई परंपरागत उत्पादों के लिए भी प्रसिद्ध रहा है जिनमें सफेद प्रजाति की मक्की, कुफरी व लाहौल-स्पीति का आलू, नूरपुर का किन्नु, करसोग के कुल्थ, कांगड़ा की चाय, भरमौर के राजमाह तथा पहाड़ी लहसुन, अदरक, लाल चावल व कोदरा आदि शामिल हैं। अपनी बेहतर गुणवत्ता की बदौलत बेहतरीन खाद्य पदार्थों में शुमार इन उत्पादों की बाजारों में भारी मांग रहती है। अपनी विश्वसनीय गुणवत्ता की पहचान तथा हिमाचल की कृषि संस्कृति का अहम हिस्सा रही कुछ परंपरागत फसलों के लिए यहां के किसान ‘जीआई’ टैग (जियोग्राफिकल इंडिकेशन) लगाने की मांग भी करते आ रहे हैं ताकि इन फसलों की विशेष पहचान बनाकर इन्हें देश व विदेश के बाजारों में उतारा जा सके। चूंकि बाजार में बेहतर गुणवत्ता ही प्रतिस्पर्धा का केंद्र होती है, किसानों की आमदन व आत्मनिर्भरता भी उत्पाद की गुणवत्ता पर ही मुन्नसर करती है और हिमाचल के शुद्ध पहाड़ी कृषि उत्पाद स्वास्थ्य मानकों की कसौटियों पर सर्वश्रेष्ठ हैं। मगर विडंबना यह है कि 70 के दशक में देश में कृषि क्रांति का आगाज हुआ।

फसलों की उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए खेतों में रासायनिक खादों का बेहताशा प्रयोग हुआ। परंपरागत बीजों की जगह विदेशों से महंगे हाईब्रिड बीजों को आयात किया गया जो आज तक बदस्तूर जारी है। बेशक उस हरित क्रांति से कृषि क्षेत्र में अनाज की रिकॉर्ड पैदावार हुई तथा विदेशों से आयात होने वाले खाद्यान्नों पर निर्भरता कम हुई, मगर हकीकत यह है कि उस कृषि क्रांति का दायरा रासायनिक खादों, विदेशी बीजों व कीटनाशकों के इर्द-गिर्द ही घूमता आ रहा है। रासायनिक खादों का सही इल्म न होने की वजह से इनके अंधाधुंध इस्तेमाल ने कई जानलेवा रोग भी उत्पन्न कर दिए। विदेशों से आयात कृषि बीजों के साथ कई प्रकार की विदेशी खरपतवार भी खेतों में पहुंच गई। इस खरपतवार को नष्ट करने के लिए किसानों को महंगे व जहरीले कीटनाशकों का प्रयोग करना पड़ता है। उसी हरित क्रांति के अज़ाब ने हिमाचल की पौष्टिकता से भरी कई दलहन व तिलहन की परंपरागत फसलों को भी हाशिए पर धकेल दिया।

 लुप्तप्रायः हो रही सदियों पुरानी इन्हीं फसलों में शुद्ध पहाड़ी किस्म की मक्की, पहाड़ी हल्दी, मोठ व मंढल तथा प्रोटीन से भरपूर पहाड़ के ‘कालाधान’ की उत्कृष्ट किस्म जैसी पारंपरिक फसलों का वजूद लगभग समाप्त ही हो चुका है। आलम यह है कि आज की युवा पीढ़ी परंपरागत कृषि पद्धति तथा उसके उपकरणों व बीजों के नाम भी भूल चुकी है, मगर आज आधुनिकता की चकाचौंध में जहां किसानों का रुझान विदेशी हाईब्रिड बीजों की तरफ  बढ़ रहा है, वहीं कुछ वर्षों से ‘कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय’ भारत सरकार ने परंपरागत फसलों के संरक्षण व विकास के लिए किसानों को कृषक अधिकार संरक्षण के अंतर्गत ‘पादप जीनोम संरक्षण पुरस्कार’ देने की शुरुआत की है। 2018-19 में हिमाचल के चंबा जिला में भांदल कस्बे के किसान सदियों पुरानी ‘सफेद मक्की’ के साथ अन्य दुर्लभ किस्म की मक्की को सहेजने में इस राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं। वर्तमान में कृषि भूमि को रासायनिक खादों व कीटनाशकों से मुक्त करने के लिए ‘प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान’ जैसी योजना के तहत किसानों को जीरो बजट खेती के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। केंद्र सरकार ने पारंपरिक फसलों के संरक्षण के लिए ‘परंपरागत कृषि विकास योजना’ का आगाज भी किया है। स्वास्थ्य के मद्देनजर वैश्विक स्तर पर आज प्राकृतिक व जैविक कृषि की कवायद जोरों पर है। विश्व के देशों के लिए यह कृषि तकनीक भले ही नई हो, मगर पांच दशक पूर्व राज्य सहित देश में खेती गोबर, गोमूत्र व गोवंश पर आधारित कृषि शैली का स्वरूप जैविक व प्राकृतिक ही था। रसायन के उपयोग के बिना औषधीय गुणों से भरपूर उगने वाली पारंपरिक फसलें तथा खेती के बुनियादी असूलों को समेटे भारतीय परंपरागत कृषि पद्धति विश्व में सर्वश्रेष्ठ रही है। इससे पर्यावरण स्वस्थ तथा प्रकृति व कृषि क्षेत्र में संतुलन कायम रहता था। अनाज व बीज भंडारण के तरीके भी कीटनाशकों के दुष्प्रभाव से सुरक्षित थे। कृषि भूमि की उर्वराशक्ति तथा खाद्यान्नों की उपज व गुणवत्ता किसान देसी खाद के नुस्खों से बढ़ाने में माहिर थे।

हिमाचल में 85 प्रतिशत से भी अधिक किसान लघु व सीमांत श्रेणी में आते हैं, मगर सीमित हो रही कृषि जोत में भी रसायनों व विदेशी बीजों का ग्रहण लग चुका है। घातक कीटनाशकों व महंगे हाइब्रिड बीजों का प्रतिवर्ष देश में कई करोड़ रुपए का व्यवसाय हो रहा है। हाइब्रिड बीजों के अलावा राज्य में हर साल करोड़ों रुपए का मक्की, गेहूं व आलू का बीज बाहरी राज्यों से आयात होता है। इन बीजों की बढ़ती सक्रियता से अपने गुणवत्तायुक्त स्वदेशी व पारंपरिक बीज उपेक्षित हो रहे हैं। रासायनिक खरपतवार नाशकों का प्रयोग कृषि भूमि, घासनियों, भूगर्भीय जल, प्राकृतिक जलस्रोतों, कृषि उपज की गुणवत्ता तथा आम लोगों के साथ पशुओं के स्वास्थ्य के लिए भी नुकसानदेह सिद्ध हो रहा है। देश में ‘लोकल फॉर वोकल’ मुहिम के तहत स्वदेशी उत्पादों को तरजीह देकर इनकी अहमियत को बढ़ाने के प्रयास हो रहे हैं। मगर इस तसव्वुर की कामयाबी के लिए उन परंपरागत फसलों के संरक्षण पर भी नजर-ए-इनायत की जरूरत है जिनका हिमाचल की माटी से पुराना इतिहास जुड़ा है। बहरहाल खेती के लिए नई तकनीक जरूरी है, मगर अतीत से अमानत रही परंपरागत फसलें राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पटल पर राज्य की समृद्ध कृषि तहजीब की शिनाख्त जाहिर करती हैं। यदि शुद्ध हिमाचली भुट्टे (मक्की) की लज्जत व अन्य पहाड़ी लजीज व्यजनों का जायका कायम रखना है तो परंपरागत फसलों को बचाकर संरक्षण की पैरवी करनी होगी।


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