विवेक चूड़ामणि

By: Feb 20th, 2021 12:16 am

गतांक से आगे…

अखंडबोधोऽहमशेषसाक्षी

निश्वरोऽहं निरहं च निर्ममः।।

मैं अखंड बोधस्वरूप हूं, सबका साक्षी हूं तथा अहंता और ममता से रहित हूं।

सर्वेषु भूतष्वहमेव संस्थितो

ज्ञानात्मनांतर्बहिराश्रयः सन्।

भोक्ता च भोग्यं स्वयमेव सर्वं

यद्यत्पृथग्दृष्टमिदन्तया पुरा।।

ज्ञानस्वरूप से सबका आश्रय होकर समस्त प्राणियों के बाहर और भीतर मैं ही स्थित हूं तथा पहले जो-जो पदार्थ इंदवृत्ति द्वारा भिन्न-भिन्न देखे गए थे, वह भोक्ता और भोग्य सबकुछ स्वयं मैं ही हूं।

मययखंडसुखाम्भोधौ बहुधा विश्ववीचयः।

उत्पद्यंते विलीयंते मायमारुतविभ्रमात्।।

मुझ अखंड आनंद समुद्र में विश्वरूपी नाना तरंगें मायारूपी वायु के वेग से उठती और लीन होती रहती हैं।

स्थूलादिभावा मयि कल्पिता भ्रमा-

दारोपिता नु स्फुरणेन लोकैः।

काले यथा कल्पकवत्सराय-

नर्त्वादयो निष्कलनिर्विकल्पे।।

जैसे निष्कल (हानि-वृद्धि-शून्य) और निर्विकल्प काल में स्वरूप से कोई कल्प, वर्ष, अयन और ऋतु आदि का विभाग नहीं है, उसी प्रकार लोगों ने भ्रमवश केवल स्फुरणमात्र से ही आरोपित करके मुझमें स्थूल-सूक्ष्म आदि भावों की कल्पना कर ली है।

आरोपितं नाश्रयदूषकं भवेत्

कदापि मूढैर्मतिदोषदूषितैः।

नार्द्रीकरोत्यूषरभूमिभागं

मरीचिकावारिमहाप्रवाहः।।

बुद्धि-दोष से दूषित अज्ञानियों द्वारा आरोपित की हुई वस्तु अपने आश्रय को उसी प्रकार दोषयुक्त नहीं कर सकती जैसे मृगतृष्णा (रेगिस्तान में दिखने वाला जल) का महान जल-प्रवाह अपने आश्रय ऊसर भूमि-खंड को गीला नहीं करता।

आकाशवल्लेपविदूरगोऽह-

मादित्यवदभास्यविलक्षणोऽहम्।

अहार्यवन्नित्यविनिश्चलोऽह-

मम्भोधिवत्पारविवर्जितोऽहम्।।

मैं आकाश के समान निर्लेप हूं, सूर्य के समान अप्राश्य हूं (जिसे किसी अन्य से प्रकाशित होने की अपेक्षा नहीं है), पर्वत के समान नित्य निश्चल हूं और समुद्र के समान अपार हूं।

न मे देहेन संबंधो मेघेनेव विहायसः।

अतः कुतो मे तद्धर्मा जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तयः।।

जैसे मेघ से आकाश का कोई संबंध नहीं है, वैसे ही मेरा भी शरीर से कोई संबंध नहीं है, तो फिर इस शरीर के धर्म जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति आदि मुझमें कैसे हो सकते हैं।

उपाधिरायाति स एव गच्छति

स एव कर्माणि करोति भुड्.क्ते।

स एव जीर्यन्म्रियते सदाहं

कुलाद्रिवन्निश्चल एव संस्थितः।

उपाधि ही आती है, वही जाती है तथा वही कर्मों को करती और उनके फल को भी भोगती है तथा वृद्धवस्था के प्राप्त होने पर वही मरती है। मैं तो कुल-पर्वत के समान नित्य निश्चल-भाव से ही रहता हूं।

न मे प्रवृत्तिर्न च मे निवृत्तिः

सदैकरूपस्य निरंशकस्य।

एकात्मको यो निविडो निरंतरो

व्योमेव पूर्णः स कथं न चेष्टते।।

मुझ सदा एकरस और निरवयव की न किसी विषय में प्रवृत्ति है और न किसी से निवृत्ति। भला, जो निरंतर एकरूप घनीभूत और आकाश के समान पूर्ण है, वह किस प्रकार चेष्टा कर सकता है।


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